शनिवार, 28 फ़रवरी 2009

चिट्ठा सागर में अरमानों की नाव लिए ये जा रहा है कोई चिट्ठाकार!

चिट्ठाकार चर्चा -आख़िर चयन का मानदंड क्या हो ? मैं भी इस प्रश्न भवर से निकल नहीं पा रहा हूँ ! और दिन हैं कि पलक झपकते बीत जाते हैं और अगली चर्चा शुरू करने को उकसाने लगते हैं -और फिर मन उसी अदि प्रश्न का टेक पकड़ लेता है -'कस्मै देवाय हविषा विधेम ? " आख़िर किसकी खोज खबर लूँ ! अब हिन्दी ब्लागाकाश या चिट्ठासागर में नित नये नये सितारों /मीनिकाओं का जलवाफरोश हो रहा है -आँखें चुधियाँ रही हैं ! और मुझे देर सबेर जहाँ तक सम्भव हुआ इन सितारों /मीनिकाओं का खैर मकदम तो करना ही है ! अब तक कई नामचीन चिट्ठाकार इस चट्ठे को अपनी गरिमामयी उपस्थिति से आलोकित भी कर चुके हैं ! मैं सोचता रहा कि इस बार क्यूं न किसी होनहार चिट्ठाकार की चर्चा न कर ली जाय !

..तो शुभ संकल्प है कि आज युवा चिट्ठाकार अभिषेक मिश्र के बारे में थोड़ी चर्चा कर ली जाय जो अभी अभी रांची के चिट्ठाकार मिलन से खट्टी मीठी यादों के साथ लौटे हैं और मुझे थोड़ा शक है कि पूरा दिल बिचारे का सही सलामत लौटा है या नहीं भी ! इस उम्र में ऐसा होना और वह भी ख़ास तौर पर सीधे साधे से युवाओं के साथ सहज ही है ! मुझे शिद्दत के साथ लगता रहा है कि कतिपय मामलों में हम और अभिषेक सरीखे पुरुषों के साथ ऐसा जीवन के अन्तिम सोपान तक होता आया है और होता रहेगा -यही तो चिरन्तन व्यथा है ! पुरूष व्यथा ! पर फिर भी बदनाम भी वही होता आया है ! कैसी बिडम्बना है ?

अभिषेक बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के छात्र हैं जहाँ मुझे प्रवेश द्वार से ही टरका दिया गया था जब मैं एम् एस सी में दाखिला लेने वहाँ १९७६ के आसपास गया था .तभी मुझे लग गया था कि अब जीवन का वह मुकाम गया हाथ से जहां तक मुझे अब तक पहुँच जाना था ! फिकर नाट ,मगर यह मलाल हमेशा सालता रहता है कि इस महान शिक्षा मन्दिर मैं प्रवेश तक न पा सका और दूसरे, तबसे यहाँ के छात्रों, अध्यापको को लेकर एक घणी सी हीन ग्रंथि भी मन में फांस सी अटकी हुई है -बहरहाल इसी अंतर्जाल से जब अभिषेक ने मुझे खोजा और ई मेल से हम परिचित हुए तो मेरी ग्रंथि एकटीवेट हो गयी ! मगर फिर भी मैं अभिषेक को इतना तवज्जो नहीं देता गर उन्होंने मेरी कमजोर नस न टीप दी होती ! गरज कि उन्होंने विज्ञान कथा की चर्चा छेड़ दी और मैं फंस गया -जो लोग मेरे इस ट्रैप को जानते होंगे चेहरे पर एकाध इंच मुस्कान जरूर तिर आयी होगी ! अकादमिक माहौल और लोग मेरी कमजोरी है बाकी बातें बाद में आती हैं ,पर अभी छोडिये इन बातों को, यहा चर्चा तो अभिषेक की हो रही है ,मगर एक बात साफ़ कर दूँ कि निरपेक्ष रूप से केवल चिट्ठाकार चर्चा हो भी नही सकती उसी के बहाने चर्चाकार भी अभिव्यक्त और चर्चित होता है !

बहरहाल मैंने अभिषेक को विज्ञान कथा से प्रथम मिलन के लिए गलीचों की नगरी भदोहीं के शानदार मेघदूत होटल में एक परिचर्चा के दौरान आमंत्रित किया -अपनी हीन ग्रंथि के चलते उन्हें इम्प्रेस करने के लिए -और पूरे अटेंशन के साथ उनके साथ बैठ कर नाश्ता करने आदि का उपक्रम किया ! उन्हें शायद जल्दी थी वे लौट गए और यह आज तक नहीं बताया कि वे विज्ञानं कथा के चमक दमक माहौल से प्रभावित हुए थे भी या नहीं ! तब से उनसे बातें कम से कमतर होती गयीं भले ही वे बनारस में ही हैं पर हम सभी के अपने अपने अफ़साने ,गमें मआश हैं और हैं गमें रोजगार ! हाँ इन दिनों उन्होंने अपने ब्लाग धरोहर पर पोस्टों की फ्रीक्वेंसी बढ़ा दी और एक नया ब्लाग गांधी जी पर शुरू कर दिया ! दो दीगर कम्युनिटी ब्लॉगों में अलग से शिरकत भी वे कर ही रहे हैं ! मैंने भी गांधी जी पर उनके ब्लॉग की शुरुआत से उन्हें और भी गंभीरता से लेना शुरू किया और मैंने ही नहीं अब उनकी नैया रफ़्तार पकड़ रही है -इंशा अल्लाह वे भी अब सेलिब्रटी बनने की राह पर हैं, इस बात से पूरी तरह बेखबर कि सेलिब्रिटी होने के अपने बडे खतरे भी हैं !
अभिषेक की रूमानियत उनके आत्मपरिचय के इन कालजयी शब्दों में झलकती है ,"मधुर भावनाओं की सुमधुर, नित्य बनाता हूँ हाला; भरता हूँ उस मधु से अपने, ह्रदय का प्यासा प्याला. उठा कल्पना के हाथों से, स्वयं उसे पी जाता हूँ; अपने ही मैं हूँ साकी, पीने वाला मधुशाला." वैसे उनकी लोक जीवन ,परम्पराओं ,संस्कृति की समझ और रुझान की इन्गिति उनके चिट्ठे धरोहर से होती है !

उनकी एक हालिया पोस्ट में जब मैंने यह जिक्र पाया कि वे रांची ब्लॉगर मीट में यहाँ से जा रहे हैं और शायद इसलिए भी कि वे झारखंड से ही बिलांग करते है मैंने उनसे शिकायती लहजे में सम्पर्क करना चाहा कि भैये हमको भी बता दिए होते तो साथ लटक लिए होते क्योंकि एक मनभावन निमंत्रण मुझे भी वहाँ जाने को मिल चुका था और इनकार पर उपालम्भ भी -मगर ये भाई तो पहली वाली ट्रेन से रवाना भी हो चुके थे न जाने कैसे रंगीन सपने लिए ,हसरते लिए ! कहतें हैं ना कि एक से भले दो और यात्रा प्रसंगों में तो यह जुमला अक्सर इस्तेमाल होता है मगर शायद अभिषेक को यह गंवारा नही था -वे अपने सपनों को साझा करने को शायद तैयार नहीं थे ! यार अभिषेक मैं तुम्हारा प्रतिद्वंद्वी हो भी नही सकता -कहाँ पूरी युवा ऊर्जा से लबरेज तुम और कहाँ पुरूष रजोनिवृत्ति के कगार पर आ पहुँचा मैं ! कोई मुकाबला ही नही है भाई ! मगर हाँ साथ होता तो कुछ उपदेश देता (पर उपदेश कुशलबहुतेरे वाला ) -शायद तुम्हे मना भी लेता ( भले ख़ुद को नहीं मना पाता ) कि " छाया मत छूना मन होगा दुःख दूना मन ! "

पर अब तुम वहाँ से वापस आ गये हो .जानता हूँ (ऋतम्भरा शक्ति से ) कि उद्विग्न हो इसलिए तुम्हे कल लंच पर बुलाया है ! थोड़ी उद्विग्नता शायद बाँट लूँ -यह जन्म ईश्वर ने शायद मुझे इसलिए ही दिया है -परमारथ के कारने साधुन धरा शरीर ! पर अभिषेक को बुलाने में मेरा भी एक निहायत टुच्चा सा स्वार्थ भी छुपा है ! इसके आगे की चर्चा शायद अभिषेक अपने ब्लॉग पर करें !

अभिषेक अगर अपने यह पढ़ लिया है तो भी आपको बिना किसी सेकंड थाट के कल आना ही है -कुछ पसंदीदा खिलाने का वादा !

तो मित्रों मैं अभिषेक की आतुर प्रतीक्षा में हूँ ! इति ......

शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2009

देवता उसने कहा था ....

पता नहीं आप किसी के साथ ऐसा होता है या नहीं मगर मेरे साथ अक्सर ऐसा होता है कि सुबह उठते ही किसी गीत ,कविता ,गजल की पंक्तियाँ मन में सहसा ही कौंध उठती हैं और दिन भर ग्रामोफोन के रिकार्ड के तरह मन में घुमड़ती रहती है -चाहे और अनचाहे भी ! कभी बेखुदी में कविता/गीत होंठो तक भी आ पहुंचता है और चैतन्यता में आते ही हठात मुंह सी लेना होता है -असहज सा चौर्य निगाह से इधर उधर देखने पर अक्सर अपने ड्राईवर के होंठो पर डेढ़ इंच मुस्कान पाकर किंचित सकुचा भी जाता हूँ !साथी टोकने लगते हैं और आग्रह करते हैं तो उन्हें गुनगुनाकर उपकृत भी कर देता हूँ !
आज की कविता हरिवंशराय बच्चन जी की है जो एक लम्बे अन्तराल के बाद सहसा ही याद हो आयी है और मेरा पीछा नहीं छोड़ रही है -सुबह से कम से कम दस बार इसे गुनगुना चुका हूँ ! अब यह रील दिन भर चलेगी -आशंकित भी हूँ ! बहरहाल कविता ये रही -
देवता उसने कहा था
रख दिए थे पुष्प लाकर
नत नयन मेरे चरण पर
देर तक अचरज भरा
मैं देखता खुद को रहा था
देवता उसने .....
गोद मन्दिर बन गयी थी
दे नए सपने गयी थी
किन्तु जब आँखे खुली तो
कुछ न था मंदिर जहां था
देवता उसने ....
प्यारा पूजा थी उसी की
है उपेक्षा भी उसी की
क्या कठिन सहना घृणा का
भार पूजा का सहा था
देवता उसने कहा था


अब मैं इसका भावार्थ यहा लिख नही पा रहा ,अपनी तईं समझ तो रहा हूँ -साहित्य का मेरा ज्ञान पल्लवग्राही और समझ अधकचरी सी ही है ! प्रायः श्रेष्ठ कृतियाँ पूरी समष्टि से मानों तादाम्य स्थापित कर लेती हैं ! अब देखिये न बच्चन जी की इस कविता ने मुझसे शिद्दत के साथ तादात्म्य बना लिया है -मानों अब यह मेरी ही अभिव्यक्ति बन बैठी है -इसलिए ही कभी कभी सोचता हूँ कि पूर्व कविजन जो पहले ही अभूतपूर्व बल्कि कालजयी कृतियाँ रच गए हैं तो नयी रचनाओं के सृजन की जरूरत ही क्या है ? हम उनकी पंक्तियों के जरिये अपनी बात शायद और भी प्रभावपूर्ण तरीके से कह सकते हैं ! है कि नहीं ?

बड़ों से आग्रह की गुस्ताखी नहीं कर सकता पर अनुज हिमांशु से गुजारिश की है कि वे इसका भावार्थ मित्रों के लिए कर दें -बाकी तो प्रबुद्धजन इसका अर्थ ,निहितार्थ ,भावार्थ तथा यथार्थ सभी कुछ समझ ही जायेंगें ! हिमांशु के उत्तर का इंतज़ार है -अगर उन्होंने काम पूरा कर भेज दिया तो इसी पृष्ठ पर ही वह भी प्रस्तुत हो जायेगा !

और यह रहा हिमांशु का जवाब जो किंचित देर से मगर दुरुस्त आया है बस जल्दी से कामा फुलस्टाप सहित यहाँ चेप रहा हूँ _आदरणीय,
बहुत क्षोभ का अनुभव कर रहा हूं, इतनी देर से आपकी यह मेल पढ़ने में। कल एक शादी में पूरी रात जागता रहा, इसलिये सुबह नेट पर नही आया, सोता रहा; पर जो 'सोवत है सो खोवत है'। समय से आपके आदेश का पालन नहीं कर सका -क्षमा-प्रार्थी हूँ।
केवल क्षमापन स्तोत्र ही बाँच कर छुट्टी पा जाता, पर अचानक डैशबोर्ड में आपकी नयी पोस्ट देखी। पढा तो पाया- कि मैं सार्वजनिक तौर पर दोषी हो जाऊंगा, तय काम न करने पर।
अपनी मंद-मति के सापेक्ष्य जितना हो सका वह मेल कर रहा हूँ -

कविता में व्यक्ति की अपनी निष्ठा और अपने भाव ही वरेण्य होते हैं, संकेत तो इसी ओर है । एक व्यक्ति किसी को अपनी श्रद्धा अर्पित कर रहा है। वह व्यक्ति पूजार्ह है या नहीं है, इससे उसका कुछ लेना देना नहीं है । फूलों का उपहार वह पूज्य के चरणों पर रख देता है, क्योंकि पुजारी ने उसे देवता मानकर उसकी अर्चना की थी । उस व्यक्ति की गोद ही पूजा करने वाले के लिये मंदिर का गर्भ-गृह बन गयी थी ।

जिसकी पूजा हो रही है उसकी योग्यता पीछे हो गयी थी, पूजा करने वाले की श्रद्धा आगे खड़ी हो गयी थी । पूजा का उपहार अपने सम्मान में अर्पित देखकर पूजित व्यक्ति की आँखें स्वयं की ओर मुड़ गयीं । वह एक सपने में खो गया है, यह सोचते हुए कि क्या जिसे मंदिर समझा जा रहा है, वह मंदिर है । अगर पूजा से कुछ मुझे मिला तो वह मेरी नहीं पूजा करने वाले की विशेषता थी, श्रद्धा थी; और मुझे कुछ नहीं मिला तो वह भी पूजा न करने वाले की उपेक्षा या घृणा ही थी, श्रद्धा नहीं थी । मैं जो पाता हूँ, वह मेरी अपनी उपलब्धि कम, दाता की श्रद्धा ही अधिक है । मैं पूजा से प्रसन्न तो होता हूँ कि क्योंकि उसने मुझे देवता कहा था, तो क्या जब पूजा के स्थान पर उसने घृणा दी तो उसे भी क्या उसी मोद के साथ ग्रहण कर लूंगा ? यदि हाँ, तब तो उसने जो देवता कहा था वह सार्थक था । यदि नहीं, तब उसने चाहे जो कहा हो , मेरा कुछ भी होना न होना निरर्थक था ।

मैं उद्विग्न हुआ, यह मेरी तुच्छता थी, वह देता गया, यह उसकी महानता थी । अतः सार्थकता 'अहं ब्रह्मास्मि' की नहीं 'तत्वमसि' की है ।

कविता का भाव आत्मकेन्द्रित न होकर विश्ववन्दित दिशा की ओर बढ़ गया है। इनका मेल 'बच्चन' की स्वयं की इन भाव भरी पंक्तियों से स्वयं बैठ जाता है -

"पूछ मत आराध्य कैसा
जब कि पूजा भाव उमड़ा
मृत्तिका के पिण्ड से
कह दे कि तू भगवान बन जा,
जान कर अनजान बन जा ।"


स्नेहाधीन-
हिमांशु कुमार पाण्डेय

रविवार, 22 फ़रवरी 2009

लिंगार्चन -उदगम से उत्स तक (३)


 आप पढ़ चुके हैं -

लिंग पूजा -एक वैज्ञानिक विवेचन!

लिंगपूजा :उदगम और उत्स (वैज्ञानिक विवेचन -२)

अब आगे -

फ्रायड की मानव स्वप्नों के सम्बन्ध में मान्यता थी कि कोई भी लम्बी कठोर वस्तु चाहे वह निर्जीव हो या सजीव लिंग का ही प्रतीक होती है। ``द ह्यूमन जू´´ में डिजमंड मोरिस ने यथार्थ जगत में भी लिंग प्रतीकों की एक लम्बी सूची का बड़ा ही रोचक वर्णन किया है। यथार्थ जगत में विज्ञापकों, कलाविदों एवं लेखकों ने जाने-अनजाने लिंग के प्रतीकों का व्यापक प्रयोग किया है। तीर, टाई, मोमबत्ती, छड़ी, केला, कन्दमूल, मछली, साँप-क्या निर्जीव क्या सजीव, लिंग प्रतीकों में सभी कुछ हैं। मछली एवं साँप अपने आकार-प्रकार के कारण, गेंडा उत्थित सींगों के कारण तथा पक्षी अपने ``गगनभेदी´´ उड़ान के कारण लिंग का प्रतीक हो मानव कल्पना में स्थायित्व प्राप्त कर चुके हैं।

यहाँ तक कि अस्त्र-शस्त्र भी अपने ``शरीरोच्छेदन´´ के गुण के कारण, लिंग के प्रतीक बन गये हैं। यही नहीं बीयर और शैम्पेन की बोतल का खुलते ही ``स्खलित´´ होने लगने की प्रक्रिया ने उसे लिंग-प्रतीकों की लम्बी सूची में ला दिया हैं इसह तरह, ``चाभी´´ भी अपने गुण के कारण कहीं-कहीं लिंग का प्रतीक है।

आधुनिक व्यवहारविदों (इथोलाजिस्ट्स और बिहैवियरिस्ट्स) का मानना है कि खेलकूद में प्रयुक्त होने वाले कई उपकरण भी लिंग प्रतीकों की सूची में हैं। स्पोर्टसकारें, लम्बी, चिकनी, चमकदार और प्राय: लाल होती हैं। तीव्रशक्ति एवं द्रुतगति से आगे बढ़ती हैं। इन विशेषताओं ने ही उन्हें लिंग का प्रतीक बना दिया हैं। संगीत शास्त्र और स्थापत्य कला में भी लिंग प्रतीकों के भरपूर उदाहरण मिलते हैं। मन्दिर , मिस्जद व गिरजाघरों में शिखरों एवं अट्टालिकाओं के उध्र्वभाग प्रत्यक्षत: लिंग प्रतीकों का आभास देते हैं।

वनस्पति जगत में भी, लिंग प्रतीकों की भरमार है। ऐसी वनस्पतियाँ जिनकी जड़ों के आकार लिंग सदृश हैं, विश्व की कई संस्कृतियों में आज भी पूजित हैं। विदेशों की मैन्ड्रेक लता (विशाखमूल) की जड़ और हमारे यहाँ के कन्दमूलों में एक विशिष्ट लाल प्रजाति (शकरकन्द) अपने लैंगिक आकार के कारण अनेक तीज त्यौहारों पर पूजित होते आये हैं। यह सचमुच दिलचस्प है कि उत्तर प्रदेश के पूर्वान्चल में शिव और पार्वती से जुड़ी लोक कथाओं में लाल कन्द की अपनी विशेष भूमिका है। स्त्रियों के प्रमुख त्यौहारों में लाल प्रजाति के कन्द को विधिवत् पूजा जाता है। भाद्र कृष्ण पक्ष में स्त्रियों का एक प्रमुख त्यौहार हलषष्ठी (ललही छठ) होता है, जिसमें स्त्रियाँ लाल कन्द को पूजती हैं, शिव पार्वती को लक्ष्य कर छह कहानियाँ मनोयोग से कही सुनी जाती हैं, जिसमें लाल कन्द ``लिंगरूप´´ में विर्णत होता है।

आज का सभ्य मानव जब क्रोध में अपने आदि मूलावस्था में पहुँच जाता है, तब उसकी सहज प्रवृत्तियाँ मुखर हो उठती हैं। वह गाली-गलौज के स्तर पर पहुँच जाता है। उसकी हर गाली का तीक्ष्ण बाण लिंग से संयुक्त हो जाता है। अपने नजदीकी पशु रिश्तेदारों (कपि बानर बान्धवों) की भाँति अपनी दबंगता प्रगट करने के लिए वह भी पूर्वकथित "उत्थित लिंग´´ के प्रदर्शन जैसा ही वातावरण सृजित कर आतंक पैदा कर देता है। अंगूठा दिखाना भी इसी प्रक्रिया की एक अपेक्षाकृत शिष्ट अभिव्यक्ति हैं।

वास्तव में, दार्शनिक-वैज्ञानिक धरातल पर शिवपुराण का यह कथन कि पूरा जगत ही लिंगमय है, असंगत नहीं लगता। ऐसा लगता है कि लिंग पूजा की समझ में मनुष्य का एक असीम सत्ता के समक्ष नतमस्तक होते जाने का सत्य भी छुपा है जिसका उसने अपनी सांस्कृतिक विकास की यात्रा में निरंतर सुरुचिपूर्ण तरीके से अनुष्ठानीकरण किया है और आर्यावर्त में वह हमारे सामने पूरे विधि विधान के साथ शिवलिंग पूजा के बहुत ही आदरणीय और मांगलिक रूप में प्रस्तुत है !
(समाप्त )

शुक्रवार, 20 फ़रवरी 2009

लिंगपूजा :उदगम और उत्स (वैज्ञानिक विवेचन -२)

लिंग पूजा के वैज्ञानिक विवेचन की इस दूसरी कड़ी को देते हुए किंचित संकोच /धर्मसंकट की मनोदशा में हूँ -यह लोगों की धार्मिक आस्था को कदाचित आहत कर दे -पर मेरा यह मंतव्य कतई नही है और ही मेरा उद्देश्य किसी नये वितंडा को तूल देने का है -मुझे मेरे सुदीर्घ अध्ययन और अल्प समझ के चलते जो सूझ रहा है उसे पूरी विनम्रता और सभी के प्रति (व्यक्ति , आस्था और संस्था ) आदर भाव के साथ यहाँ जानकारी बांटने की ही प्रबल इच्छा के साथ प्रस्तुत कर रहा हूँ -बस अनुरोध है कि खुले मन से इसका अवगाहन करें और चाहें तो अपनी शंकाएं भी खुले मन से यहाँ रखें जिससे और भी ज्ञानार्जन हो सके !
प्रख्यात ब्रितानी जीव विज्ञानी (एन्थ्रोपोलाजिस्ट) एवं व्यवहारविद डॉ0 डिज्मांड मोरिस अपनी दो बहुचर्चित पुस्तकों ``द नेकेड ऐप "एवं द ह्यूमन जू´´ में लिंगपूजा के रोचक जैवीय (बॉयालाजिकल) एवं व्यवहार पक्षीय (इथोलोजिकल) कारणों पर प्रकाश डाला है। आज की सर्वमान्य वैज्ञानिक विचारधारा के अनुसार आधुनिक मानव, जैवीय विकास की प्रक्रिया में वानर-कपि सदृश प्राणी से ही विकसित हुआ एक अत्यन्त उन्नत सामाजिक पशु है। अतः लिंगपूजा के सन्दर्भ में ज़रा बानरों और कपियों (चिम्पांजी, गोरिल्ला गिब्बन आदि) के लिंग विषयक व्यवहार प्रदर्शनों पर भी दृष्टिपातकर लिया जाय ।

विकसित स्तनपोषी पशुओं (नर वानरगण / प्राइमेट) में लिंग का सम्बन्ध प्रजननशीलता से तो है ही, परन्तु साथ ही साथ यह उनके सामाजिक श्रेष्ठता के निर्धारण की भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। कैसे ? व्यवहारविदों का कहना है कि पशुओं में लिंग प्रदर्शन एक दंबंग प्रक्रिया है। नर, मादा से शारीरिक रुप से अधिक दबंग, आक्रामक एवं सशक्त होते हैं। नर सरीखा व्यवहार (जिसमें लिंग प्रदर्शन की एक मुख्य भूमिका है) जहा दबंगता (डामिनेन्ट ) का परिचायक है, वहीं मादा सरीखा व्यवहार ठीक इसके विपरीत दब्बूपन( सब्मिस्सिवनेस ) का।

बन्दर व कपि मुख्यत: छोटे-छोटे दलों में रहते हैं। इन दलों का मुखिया उस दल का ही एक सशक्त नर सदस्य होता है। वह अपने ``विद्रोही´´ अनुचरों को अनुशासित करने के लिए अपने आक्रामक हाव भावों के साथ ही अपने " उत्थित लिंग´´ का प्रदर्शन करता है। विद्रोही सदस्य भयाक्रान्त होकर नतमस्तक हो उठता है। कभी-कभी वे इतना भयाक्रान्त हो उठते हैं कि अपने ``पुरुषत्व´´ को तिलांजलि दे मादा जैसा आचरण भी अपना लेते हैं। नर स्क्वीरेल मन्की (एक बन्दर प्रजाति) अपने क्रोध की चरमावस्था में दल के ``विद्रोही´´ सदस्य के मुँह पर अपने उठित लिंग से प्रहार सा करता है। तुरत फुरत भयग्रस्त सदस्य, उसका स्वामित्व स्वीकार कर लेता है। लगता है कि किसी उत्थित लिंग के प्रति नतमस्तक होने की यह भयग्रस्त भावना मानव मन में गहराई तक उतरती चली आयी है। विकास क्रम में सम्भव है ``बिनु भय होई न प्रीति´´ की भावना के वशीभूत होकर ही मानव लिंगार्चनोन्मुख न हुआ हो।

न्यू गुयेना के आदिवासी आज भी परस्पर कबीलाई युद्धों में अपने कमर के सहारे लिंग से बंधी एक फुट नलिका का आक्रामक प्रदर्शन करते हैं। उनका यह विचित्र लैंगिक प्रदर्शन विरोधियों को भयाक्रान्त करता है। अपने देश में भी नागा साधुओं में लिंग के सहारे वजनी पत्थर उठाने की प्रतिद्विन्द्वता होती रही है, जो उनके शक्ति सामर्थ्य और साधना के स्तर का निर्धारण करती है। तन्त्र शास्त्र में सजीव मानव लिंग को भिन्न-भिन्न विधियों से अलंकृत करके पूजने का विधान रहा है। मानव के सांस्कृतिक विकास के साथ ही साथ लिंग अपने वास्तविक रूप से कई गुना बढ़ता गया। विदेशों में प्रेम की देवी ``वीनस´´ के मिन्दर के चारों ओर लिंग स्तम्भों की ऊँचाई कहीं-कहीं 200-400 फीट तक पहुँच गयी है।

यह स्पष्ट है कि मानव कल्पना में लिंग के समक्ष अन्य शारीरिक अंग गौण हो गये हैं। ``लिंग´´ की विशिष्टिता ने अन्य मानवीय अंगो को जैसे निस्तेज सा कर दिया है। जिस प्रकार एक कार्टूनिस्ट किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति के रेखांकन में उसके खास ``पहचान´´ को ही उभारता है और अन्य प्रत्यंगों को उपेक्षित सा कर देता है, उसी तरह लिंग की प्रधानता के सन्दर्भ में भी घटित हुआ लगता है।
जारी .......

बुधवार, 18 फ़रवरी 2009

लिंग पूजा -एक वैज्ञानिक विवेचन !

यह लेख मैंने तीसेक वर्षों पहले लिखा था,जब इलाहाबाद विश्विद्यालय के प्राणिशास्त्र विभाग का शोध छात्र था .काफी पढ़ वढ ,अनेक किताबों की खाक छान कर ,अपने वजीफे की राशि को मुक्त हस्त लुटा किताबों की खरीद फरोख्त कर (जिनमें से कई बिल बिला गईं ,कुछ दोस्तों के हाथ लग गईं .और कुछ साल दर साल हो रहे तबादलों में तुड मुड कर भी मेरी किताबों की आलमारियों को बोझिल कर रही हैं ! ) ,पर यह लेख उस समय कहीं प्रकाशित नही हो सका -धर्मयुग ,कादम्बिनी और यहाँ तक सरिता से भी खेद सहित वापस हो गया ! फिर मैंने कहीं भेजा ही नहीं ! यह फाईलों में सिमटा दुबका पडा रहा बेचारा ! शायद यह लेख क्वचिदन्यतोअपि की ही बाट जोह रहा था ! मुझे आज तक यह समझ में नही आया की यह लेख कहीं क्यों नही छप सका -अब तो यह आपके सामने है आप ख़ुद बताने की कृपा कीजियेगा ! आज भी इसमें कहीं कामा फुलस्टाप तक के सम्पादन की कोई जरूरत मैं नहीं समझ पा रहा और इसके एक एक शब्द से मेरा पूरा इत्तेफाक है ! अब यह समवयी समीक्षा (पीयर रिव्यू ) के लिए पहली बार यहाँ प्रकाशित हो रहा है -शायद तीन कड़ियों में ! महाशिवरात्रि के अवसर पर इसका समापन नियोजित है !

लिंग पूजा की वैज्ञानिकता

लिंगार्चन के दार्शनिक-वैज्ञानिक पक्ष पर एक शोधपरक दृष्टि



भारत में लिंग पूजा का सम्बन्ध भगवान शिव से है। शिवलिंग जिस ``पीठिका´´ पर स्थापित किया जाता है, वह स्त्री ``योनि´´ का प्रतीक होता है। इस प्रकार से ``अर्धनारीश्वर´´ के प्रतीक के रूप में भी लिंगार्चन किया जाता है। सम्पूर्ण भारत, चाहे कश्मीर हो या कन्याकुमारी शिवलिंग समान रूप से पूजित है। पुराणों में, लिंगार्चन के सन्दर्भ में अनेक प्रकार के कर्मकाण्ड लिखे गये हैं। लिंग की स्थापना और उसके महात्म्य से भारत का पूरा धार्मिक इतिहास भरा पड़ा है। प्राय: सभी प्रमुख पुराणों एवं महाकाव्यों में शिवोपासना के सन्दर्भ में लिंगार्चन का विशद विवरण मिलता है। यहाँ शिवोपासना और लिंग के सन्दर्भ में सभी कथाओं का वर्णन सम्भव नहीं हैं। एक कथा के अनुसार शिव को महिर्ष भृगु द्वारा श्राप ग्रस्त किये जाने के कारण लिंगार्चन प्रारम्भ हुआ। इस प्रकार विभिन्न स्थलों पर विभिन्न लिंगों के पूजा के सन्दर्भ में अनेक प्रकार की जनश्रुतियों एवं पौराणिक आख्यायिकायें प्रचलित हैं।
वास्तव में, शिवलिंग अपने में एक महान व्यापकता समेटे हुए है-
यथा-
सर्वेषां शिवलिंगानां मुने संख्या न विद्यते
सर्वां लिंगमयी भूमि: सर्वं लिंगमयं जगत।
(शिव पुराण, रूद्र संहिता, श्लोक 9)

विश्व के अन्य देशों में भी लिंगोपासना की पौराणिकता/ऐतिहासिकता के पर्याप्त प्रमाण मिलते हैं। पश्चिम में इसका एक रूप ``फैलिज़्म´´ या ``फैलिसिज़्म´´ के नाम से प्रचलित है। प्राचीन यूनान में लिंग पूजा विधिवत सम्पन्न की जाती थी। प्राचीन रोम में ऐसे उत्सवों का उल्लेख है जिनमें सामूहिक रूप से स्त्रियों द्वारा चौराहों पर एक दीर्घकाय लिंग की पूजा अर्चना की जाती थी। चीन (हांगकांग) में, लिंग रूपी प्रस्तर खण्डों का पूजन स्त्रियाँ सन्तानोत्पत्ति के लिए और वैश्यायें अपने धंधे की सफलता के लिए करती रही है। विश्व के अन्य भूमध्यवर्ती देशों में लिंग देवता (प्रियापस) का पूजन सन्तानोत्पत्ति की आकांक्षा से होता आया है। ईसाई धर्म में, कहीं-कहीं सापों को लिंग का प्रतीक मान लिया गया है। प्राचीन मिस्र के चित्रों में सांपों के राजा ``अम्मन´´ के लिंग को विशिष्टता के साथ उभार कर दिखाया गया है।

हज़रत ईसा के जन्मकाल के पहले से ही लिंग पूजा के `तन्त्रवाद´´ से भी संयुक्त हो जाने के समुचित प्रमाण मिलते हैं। अधिकाशं मिन्दरों के भित्ति चित्र तन्त्रवाद से अनुप्राणित होने के नाते विशेष रूप से लिंग विषयक हो गये हैं। दक्षिण भारत और नेपाल के मिन्दरों की शिल्पकलायें और भित्ति चित्र इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय हैं। तन्त्रपूजा में भैरवी चक्र के अन्तर्गत, ``देवचक्र´ में लिंगोपासना का विधान है। भारत में, लिंगपूजा और उसके तन्त्रवाद से संयुक्त होने की प्राचीनता के यथोचित ऐतिहासिक प्रमाण मिलते हैं वस्तुत: सिन्धु घाटी की सभ्यता से लेकर आज तक लिंग पूजा के सम्यक ऐतिहासिक प्रमाण विभिन्न संग्रहालयों में सुरक्षित हैं। प्रयाग के संग्रहालय में गुप्तकालीन एकमुखी शिवलिंग व चतुर्मुखी शिवलिंग विशेष रूप से दर्शनीय हैं।
जारी .....
.लिंगपूजा :उदगम और उत्स (वैज्ञानिक विवेचन -२)

लिंगार्चन -उदगम से उत्स तक (३)


मंगलवार, 17 फ़रवरी 2009

डार्विन एक व्यक्तित्व ! (डार्विन द्विशती )

पहले बता दूँ कि कल रात साढ़े नौ बजे एन डी टी वी इंडिया ने डार्विन द्विशती पर एक विशेष रिपोर्ट प्रसारित की जिसे बेहद प्रभावशाली लहजे में प्रस्तुत किया रवीश कुमार नें -आज ११.३० दिन में यह पुनः प्रसारित होगा .मौका लगे/मिले तो जरूर देखें -बहुत ही परिश्रम से तैयार की गयी यह बहुत रोचक प्रस्तुति है .भारत में किसी भी टी वी चैनेल की डार्विन पर पहली और बेहतरीन प्रस्तुति ! मेरी बधाई !
अब आगे चलें, आज डार्विन के व्यक्तित्व पर कुछ चर्चा हो जाय ! डार्विन की विलक्षण विनम्रता प्रभावित करती है। उनके चुम्बकीय व्यक्तित्व से लोग उनकी ओर खिंचे चले आते थे। उनकी नीली भूरी आँखों में सहानुभूति की गहरी चमक सी थी। सभी से उनका व्यवहार मृदु था। जो एक बार भी उनसे मिल लेता था उनकी तारीफ किये बिना न रहता। डार्विन ने अपने एक मित्र को लिखे अपने पत्र में कहा था, ``ऐश्वर्य- सम्मान, सुख और समृद्धि सच्चे स्नेह सम्बन्धों के आगे धूल के समान है´´।
वे अपने धुर विरोधियों के प्रति भी बड़े उदार थे। उनके विरोधी भले ही गाली-गलौज तक उतर आते थे, डार्विन ने कभी भी अपना आपा नहीं खोया। उनके विरूद्ध कभी भी कटु शब्दों का इस्तेमाल तक नहीं किया। बल्कि उन्होंने सदैवे अपनी आलोचना के लिए उनके प्रति आभार ही जताया। अपनी कड़ी से कड़ी आलोचना को वे धैर्य से सुन लेते थे और अपनी कमियों पर ज्यादा ध्यान देते थे। डार्विन का यह व्यक्तित्व किसी के लिए भी अनुकरणीय हो सकता है। ( हमारे ब्लॉग मित्र सुन देख रहे हैं ना ?)

एक अविस्मरणीय मुलाकात ... ...
एक बार इग्लैण्ड के तत्कालीन प्रधानमंत्री गोल्डस्टीन डार्विन से मिलने आये। मिलने के उपरान्त लोगों ने डार्विन से इस मुलाकात के बारे में पूँछा। डार्विन ने कहा, ``मेरे साथ तो गोल्डस्टीन साहब इतनी सहजता और विनम्रता से पेश आये कि कहीं से भी ऐसा प्रतीत नहीं हुआ कि वे प्रधानमंत्री हैं, उनका आचरण मेरे जैसे ही साधारण व्यक्ति के स्तर का था... ... ``यह बात जब गोल्डस्टीन को बतायी गई तो उनका जवाब था, `अरे... ... उनके बारे में तो मैं भी ऐसा ही सोच रहा था´´।

डार्विन, आस्तिक या नास्तिक?
डार्विन खुद को अज्ञेयवादी मानते थे यानि न तो नास्तिक और न ही आस्तिक। उनका महज यह मानना था कि परम सत्ता को समझ पाना सम्भव नहीं है। ईश्वर में विश्वास के प्रति वे बहुत आश्वस्त नहीं थे। आत्मा, परमात्मा के सम्बन्धों, अमरता की अवधारणा आदि विषयों को वे मनुष्य की बौद्धिक सीमा से बाहर का विषय मानते थे। उनकी पत्नी यद्यपि चर्च से बड़ी प्रभावित थीं, डार्विन के अज्ञेयवादी होने के बावजूद भी नैत्यिक कार्यो में उन्होंने सदैव उनका सहयोग किया।
विश्व चिन्तन पर चाल्र्स डार्विन का कितना जबर्दस्त प्रभाव रहा है यह अकेले इस वैज्ञानिक के व्यक्तित्व और कृतित्व से जुड़े निरन्तर तीन तीन शतकीय आयोजनों से इंगित होता है। डार्विन से जुड़े दो शताब्दी समारोहों-1959 में उनकी युगान्तरकारी पुस्तक `द ओरिजिन´ की प्रणयन शताब्दी, पुन: उनके मृत्यु (1882) की पुण्य शती (1992) और अब 2009 में उनके जन्म की द्विशती। यह वह तिहरा शतक है जब इस महान वैज्ञानिक, महामानव की प्रासंंगिकता को लेकर एक बार फिर सारे विश्व में बहस-मुबाहिसों का दौर शुरु हो रहा है।

मन्की ट्रायल यानि कटघरे में विकासवाद!
अमेरिका में इतिहास अपने को दुहरा रहा है। वहाँ के कुछ शहरों में सृजनवादियों ने फिर से बखेड़ा शुरू कर दिया है। उनकी माँग है कि डार्विनवाद के बजाय स्कूलों में सृजनवाद पढ़ाया जाय। अमेरिकी राष्ट्रपति बुश तक भी इन्हीं सृजनवादियों के बहकावें में आकर विकासवाद के साथ ही सृजनवाद को पढ़ाये जाने पर जोर दिया .अभी ओबामा इस मुद्दे पर मुखर नही हुए हैं .
इन घटनाओं ने बीते दिनों (1925) के एक चर्चित मुकदमें की याद दिला दी है जो कानून की किताबों में `मंकी ट्रायल आफ टेनेसी´ के नाम से विख्यात है। अमेरिका के टेनेसी राज्य में एक कानूनी प्रावधान ऐसा भी था जिसके अनुसार बाइबिल के सृजनवाद के दीगर किसी और मत का प्रवर्तन एक अपराध था।
टेनेसी के एक कस्बे `डेटेन´ में जब जान थामस स्कोप्स ने विकासवाद का पाठ बच्चों को पढ़ाना शुरु किया तो मानों बवेला मच गया। उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। फिर शुरू हुआ वह मुकदमा जो सृजनवाद और विकासवाद को लेकर शुरु हुए घमासान का एक काला अध्याय माना जाता है। स्कोप्स को कानून के उल्लंघन का दोषी माना गया - उन्हें गिरफ्तार किया गया, जुर्माना भी किया गया। हालांकि उच्च न्यायालय में अपील के बाद वे बरी हो गये और उस कानून को भी अब बदल दिया गया है। अमेरिका के अरकंसास प्रान्त में `सृजनवाद´ और विकासवाद को साथ-साथ पढ़ाये जाने का एक विवादास्पद कानून पुन: 1982 में लागू हुआ जब समूचा विश्व डार्विन की पुण्य शती मना रहा था। इसका भी पुरजोर विरोध हुआ तो इसे भी रदद् करना पड़ा।
किन्तु पुन: सृजनवादियों ने डार्विनवाद के खिलाफ कमर कस ली है और वे एक राजनीतिक शक्ति के रुप में उभर रहे हैं।

रविवार, 15 फ़रवरी 2009

अंतर्जाल युग का इंटरव्यू-एक सिफारिश !

यह इंटरव्यू तनिक पढ़ें तो ! मेरी सिफारिश है मान जाइए ! ये दो छोटे नन्हे मुन्ने घरौदा बनाने में कैसे मशगूल से हैं ! अहमन्यता ग्रसित हम बड़े लोग कैसे उन्हें हाशिये पर करते रहते हैं -इस तथ्य की बेपरवाह उपेक्षा कर के भी कि कल उनका ही है हमारा नहीं ! और उन्हें भी इसकी फिक्र नहीं है -वे भी अपने में ही मस्त हैं !
यह सिफारिश इसलिए नहीं कि क्वचिदअन्यतोअपि का उल्लेख उस इंटरव्यू में हुआ है -पर सच मानिए अंतर्जाल पर होने वाले इंटरव्यू के शिल्प और कलेवर के एक 'सजेस्टेड फार्म ' के लिए भी मैं यह सिफारिश कर रहा हूँ ।
साक्षात्कारी अंकित की उम्र अभी विवाह योग्य भी नही हई है -और साक्षात्कारित हिमांशु जी भी अभी उम्र के कच्चे ही हैं -पर चिंतन की परिपक्वता से आप्लावित , उज्ज्वल भविष्य के प्रति आश्वस्त करते हुए - इन दोनों सद्य युवा महानुभावों के बारे में ज्यादा नहीं लिख रहा क्योंकि इन्हे अपने चिट्ठाकार चर्चा में भी तो लेना है ना कभी ! मैं क्या उन्हें पूरा ज़माना भी इग्नोर करने की हिमाकत नहीं कर सकता ! आने वाला युग उन्ही का तो है !
तो पढ़ें यह इंटरव्यू !

शनिवार, 14 फ़रवरी 2009

रक्षाबंधन और वैलेनटाईन डे-क्या कोई समानता है ?

यह करीब ३० वर्ष पहले की बात है मैं तब बी बी सी का नियमित श्रोता था -किसी कार्यक्रम में एक पाठक ने भारत से पूंछा था कि क्या इंग्लैंड में रक्षाबन्धन जैसा कोई त्यौहार मनाया जाता है तो कार्यक्रम की प्रस्तोता ममता गुप्ता का जवाब यूँ था -
हाँ मिलता जुलता एक त्यौहार सा यहाँ भी मनाया जाता है मगर वह भाई बहन के बीच के प्रेम का ही प्रतीक न होकर व्यापक स्तर पर लोगों के बीच प्रेम का प्रतीक होता है -नाम है वैलेनटाईन डे ! मुझे आश्चर्य हुआ कि भारत में कार्ड व्यवसायिओं ने यही कोई डेढ़ दशक पहले पवित्र प्रेम के इजहार वाले इस त्यौहार का एक संकीर्ण स्वरुप भारत में लांच किया जो अपने विकृत व्यावसायिक रूप में महज युवाओं के बीच के प्रेम इजहार का बायस बन गया ,आप किसी भी को वैलेनटाईन डे की शुभकामनाएं दे सकते हैं ।
मगर ध्यान रहे कि अपनी वैलेनटाईन उसी को बनाएं जो आपके दिलों पर राज करती /करता हो !
तो आप सभी को इस विदेशी प्रेम दिवस पर हार्दिक शुभकामनाएं -हमारा असली मदनोत्सव भी आने वाला है ।
उसकी भी अग्रिम शुभकामनायें ! सररर ......(उसकी शुभकामना में यह उच्चारण जरूरी है -इसके बारे में आगे बताएँगे ! अभी जल्दी है मैंने अपने वैलेनटाईन से कुछ वायदे किए हैं आज के लिए इसलिए निकलता हूँ ! )

बुधवार, 11 फ़रवरी 2009

देव डी-एक सेकंड थाट, ममता जी की टिप्पणी पोस्ट के उपलक्ष्य में !

उस दिन मैंने एक मिनी पोस्ट इस फिल्म पर इसलिए प्रकाशित की थी कि मित्रों को सहेज दूँ कि बच्चों को साथ लेकर देखने न जायं ! नाहक ही इम्बरैस्मेंट होगा ! अब तक तो ब्लॉग जगत में इस फिल्म को लेकर कई अच्छी समीक्षाएं भी आ चुकी हैं ! कुछ प्रतिक्रियाएं ! जिनमें एक मैंने कमेन्ट क्या कर दिया कि हंगामा ही हो गया है ।
इसलिए इस फ़िल्म पर एक सेकेण्ड थाट जरूरी हो गया है ।
अनुराग कश्यप भले ही बहुत विद्वान और अलग हट के निर्देशक हों मगर व्यावसायिकता का अपना पक्ष तो होता ही है । कहीं पढा था कि अनुराग कश्यप इस फिल्म के लिए महिलाओं की मिजारिटी वाला सेंसर बोर्ड चाहते थे वह शायद उन्हें मिल भी गया -सच मानिये मैं इस बात पर कायम हूँ कि यदि एक भी भद्र जन सेंसर बोर्ड में होता तो कई दृश्यों को जिस वीभत्स तरीके से दिखाया गया है कैंची चल गयी होती ! अतृप्त काम वासना को दिखाने के लिए जिस वीभत्सता के स्तर पर निर्देशक जा पहुंचा है वह उसकी शायद ख़ुद की (फर्स्ट हैण्ड ) विकृत भोगेच्छा फंतासी को मूर्त रूप देती है -नर नारी की देह को विकृत काम वासना से क्या इस तरह सार्वजनिक मंच पर प्रोजेक्ट / अपमानित करने लायक है ? फिर तो पॉर्न क्या बुरा है ? पॉर्न को सभ्य समाज सार्वजनिक करने का पक्षधर क्यों नही होता ?
फिल्म कुछ महिलाओं को इसलिए अच्छी लग सकती है कि निर्देशक ने इसमें उन्हें पुरूष के इमोशनल और यौनिक अत्याचार का शिकार होता दिखाया है और बहुत चालाकी से महिलाओं की सहानभूति बटोरने की कोशिश की है . आज जब अनेक उत्पादों को बेंचने के लिए उपभोक्ताओं के हर वर्ग और लिंग को साधा जा रहा है,गला काट संघर्ष में हर उत्पादक दूसरे उत्पादक के बधे बधाये ग्राहकों में सेंधमारी की फिराक में रहता है -अनुराग कश्यप ने भी फिल्म प्रेमियों की जमात की आधी दुनिया में सेंध लगाने की चालाक कोशिश की हैं -इमोशनल अत्याचार का जुमला लांच कर बन्दे ने ख़ुद यही हथियार आधी दुनिया पर चला दिया है -
पुरूष हर वक्त कामुक फंतासियों में डूबा होता है -नारी के कोमल मन को वह कभी समझना ही नहीं चाहता ! नारी तो बस अपने हमदम का हर वक्त हर घडी अच्छा ही चाहती है -शादी शुदा होकर भी वह अपने प्यार के लिए बिछ जाती है । यही दृश्य है शायद जिन पर भोली नारियां फिदा हो रही हैं ! और भी देखिये -फिल्म यह प्रतिपादित करती है कि नारी हर हाल में पुरूष की मारी बेचारी है पर फिर भी चरित्र के मामले में वह पुरूष पर भारी है -इस फिल्म में तो उसे नायक का दुखहर्ता ,तारणहार बना दिया गया है ! यही सब वे प्रायोजित पहलू हैं जिनके सहारे नारियों को बरगलाकर सिनेमा हाल तक ले आने की चालाकी फिल्म में हुयी है -और ख़ुद इमोशनल अत्याचार का सहारा लेकर निर्देशक फाईनेंसर की झोली भरने के लिए नारी मन का शोषण करने को उद्यत दीखता है .
ममता जी की टिप्पणी ने मुझे भी मर्माहत किया इसलिए यह पोस्ट कि मैं अपनी टिप्पणी को सही संदर्भ में सुधी जनों के समक्ष रख सकूं !
फिल्म विकृत सेक्स फंतासियों का कूड़ा दान है -यह मेरा दृढ़ मत है ! जिन्हें अच्छी लग रही वे भोले लोग हैं प्यारे प्यारे !

सोमवार, 9 फ़रवरी 2009

देव डी-देवदास,पारो और चन्दा के आधुनिक (कु )रूप -नयी बोतल में पुरानी शराब !

अभी कल ही देखी यह फिल्म .बच्चों के साथ इसे देखने ना जाय ! नहीं तो आँखें परदे के बजाय जमीन पर गड़ी रह जायेंगी ! फिल्म के निर्देशक हैं अनुराग कश्यप और उन्होंने डैनी बोयेल को विशेष धन्यवाद दिया है -वही स्लम / दाग वाले डैनी बोयल ! कहानी बिल्कुल वही पुरानी देवदास वाली ही है -चरित्र भी वही हैं पर पृष्ठभूमि समकालीन है -अंतर्जाल और पोर्नो साहित्य ,दिल्ली की सोशल सेक्स वर्कर्स का दुश्चक्र और विकृत सेक्स का खुला खेल मन को क्लांत करता है -फ़िल्म के कई दृश्य वस्तुतः बेहद अश्लील हैं लेकिन यह फिल्म एडल्ट है यह प्रत्यक्षतः घोषित नहीं है !
मैं तो टाईम्स आफ इंडिया के समीक्षक द्वारा पाँच स्टार में पाँचों दिए जाने के झांसे में फिल्म देखने चल पडा ! अभी उधेड़बुन में हूँ कि इसे कितने स्टार वास्तव में मेरे हिसाब से दिए जाने चाहिए -मगर पाँच तो कदापि नहीं ! फिल्म ने गांधीगीरी की ही तर्ज पर एक नही भाव शब्दावली लांच की है जो चल निकलेगी -इमोशनल अत्याचार !
अब इमोशनल अत्याचार क्या है इसे समझने बूझने के लिए आप इस फिल्म को देख सकते हैं !
कहानी तो अंतर्जाल पर मिल ही जायेगी !

शनिवार, 7 फ़रवरी 2009

मिलिए हिन्दी चिट्ठाजगत के तार सप्तक की प्रथम तारिका से !

मुझे बकलमखुद हिन्दी चिट्ठाजगत का तार सप्तक सा लगता है ! आज तारसप्तक की इस प्रथम तारिका (Debutante) से आप से रूबरू कराने का नेक इरादा है .वैसे तो आप ख़ुद भी बकलमखुद पर जाकर इनका तआरूफ प्राप्त कर सकते हैं मगर फिर चिट्ठाकार- चर्चाकार के नजरिये से इस शख्सियत से आप थोड़े ही मिल पायेंगे ! लिहाजा यह मेरा सौभाग्य कि आपको अनिता कुमार से मिलवाने का मौका मुझे मिल रहा है . बकौल अजित वडनेरकर के इनका एक खिलंदड़ा चिट्ठा भी है--कुछ हम कहें !
अब खिलंदड़ा का शाब्दिक और भाववाचक अर्थ क्या है यह आप अजित वडनेरकर जी से पूंछ लें या तो आप
ख़ुद कुछ हम कहें पर जा एक नजर डाल लें -आप में से कई बन्धु बांधवियों नें उस ब्लॉग का साक्षात्कार तो किया ही है . यह बात दीगर है कि आपको उस ब्लॉग पर खिलन्दड़ा सा कुछ भी ना लगे ! आप इस बारे में डिटेल्ड तहकीकात भी अजित जी से ही कर सकते हैं -वे शब्द पारखी जो हैं ! अब हिन्दी की गोबर पट्टी वालों को यह तो नागवार लगता ही है कि अजीत को अजित लिखा जाय और अनीता को अनिता और संयोग ऐसा कि यह अतिथि और आतिथेय दोनों के नामों के साथ घटित है .अनिता जी के नामके साथ तो एक और अनकुस लगने वाली बात है वह है उनके नाम के आगे कुमार जुडा होना - अब ठेंठ हिन्दी के पुर्बई लोग कुमार का मतलब पुरूष वाचक संज्ञां से लगाते हैं ,मगर अभी तक तो आप जान ही गएँ होंगे अनिता कुमार जी बकलमख़ुद की प्रथम तारिका , एक विदुषी हैं !
अनिता जी से मेरा परिचय यही कोई साल सवा साल पुराना है .जब नारी नख शिख वर्णन का जुनूनी दौर चल रहा था कई सहिष्णु महिला ब्लागरों ने उस ब्लॉग के अंतर्वस्तु के वैज्ञानिक विवेचन के पहलू को सराहा था उसमें अनिता जी भी थीं .मैं उनकी उस हौसला आफजाई का शुक्रगुजार हूँ .उन्हें तब यह आश्चर्य हुआ था कि वैसी अंतर्वस्तु की सामग्री अंगरेजी में तो है मगर हिन्दी में अभाव है .अब कोई आपकी प्रशंसा करे तो जाहिर है आप के मन में उसके प्रति अच्छा भाव जागृत तो होगा ही -लिहाजा मैं अनिता जी का सम्मान करने लगा .अनिता जी मोहमयी नगरी की महिला हैं -आधुनिक विचारों की हैं .पेशे से शिक्षिका हैं .कंप्यूटर की जानकारी में भी निष्णात हैं .बहुत प्रखर बुद्धि की हैं -मुझ जैसे गवईं परिवेश के बेसऊर लोगों को चुटकी बजा के डील कर लेती हैं .की बोर्ड पर तो उनकी उंगलियाँ इतनी तेज चलती हैं कि शायद अदनान सामी की उंगलियाँ भी पियानो पर उतनी तेज न थिरक सकें ! मुझे उन्होंने चैटिंग के मैराथन में कई बार परास्त किया है -मैंने उनका लोहा मान लिया .अंगरेजी पर उनका कमांड है -हिन्दी भी अच्छी है मगर कुछ आंचलिक से शब्दों को जाहिर है वे समझ नहीं पातीं .मगर जानने की उनकी इच्छा तीव्र है .अब जैसे उन्होंने मुझसे एक बार पूंछा कि भदेस माने क्या होता है .मुम्बई शहर में रहकर भी हिन्दी के प्रति उनकी यह प्रतिबद्धता काबिले तारीफ़ है .वे फुरसतिया की फैन हैं -उनके ब्लॉग जगत के अवदानों से खासी चमत्कृत ! .मुझे तो बल्कि उनका फुरसतिया शौर्य वर्णन चुभ सा गया ! मगर भई जो सच है वह है ! हाँ कोई यह न पूंछ ले कि आख़िर यह फुरसतिया है कौन -भई पहचान कौन !
उन्हें संगीत पसंद है और उनकी पसंद सचमुच उच्च कोटि की है,बोले तो रिफायिंड टेस्ट ! -उन्होंने मुझे कुछ अपनी पसंद के गीत सुनवा कर उपकृत भी किया है .पुस्तकों की तो ख़ास तौर पर कायल हैं .मुझसे कह कह कर बनारस के पुस्तक विक्रेताओं के कैटलाग उन्होंने मंगवाए हैं -कोई किताब भी लिख रही हैं इन दिनों -शायद मनोविज्ञान पर कोई पाठ्य पुस्तक .इसलिए चिट्ठाकारिता की फ्रीक्वेंसी कफी कम हो गयी हैं -वे इस बात की पक्षधर हैं कि ब्लॉग जगत पर एक सीमा तक ही समय जाया करना चाहिए .बाकी और भी तो काम है -मैं मूरख उनकी सीख नही मान सका और दो पुस्तकों का पेड़ प्रस्ताव ठुकरा चुका हूँ -निगोड़ी इन ब्लागिंग के चक्कर में मुझे इन दिनों कुछ सूझता ही नहीं ! मुझे होश है कि मैं बेहोश हूँ और निरंतर कोई गुमाह किए जा रहा हूँ ! सारी अनिता जी आपकी सीख अभी तक शिरोधार्य न कर पाने के लिए !
चिट्ठाजगत के तार सप्तक की यह प्रथम नायिका इतनी तीव्र मष्तिस्क की स्वामिनी हैं कि कोई महिला जान थोड़ी स्वच्छन्दता न ले ले और मर्यादित रहे इसलिए उसे पहले ही यह कह कर औकात में ला देती हैं कि वे ख़ुद एक मष्तिष्क भर हैं -उन्हें जेंडर के चश्में से न देखा जाय ! मतलब वे न स्त्रीलिंग हैं और न ही पुलिंग और जाहिर हैं हिन्दी की नपुंसक लिंग भी नही ही हैं -वे महज मस्तिष्क हैं - द ब्रेन ! मैं उनसे हेलो ब्रेन से ही संबोधन शुरू करता हूँ ! अभी उसी दिन ही तो मैंने ब्रेन से बसंत की बात की , जाते हुए ठण्ड की चर्चा की और उन्होंने मुझसे डार्विन की द्विशती को जोरदार तरीके से मनाने का आह्वान भी किया ! उनके सामान्य ज्ञान और बौद्धिक समझ की सानी चिट्ठाजगत में कम ही है । आप ख़ुद उनके ब्लॉग पर जाकर यह जान समझ सकते हैं ,उन्हें चैट पर चाहें तो निमंत्रित कर थाह पा सकते हैं पर यह मान लें कि चैट में चित आपको ही होना है !
मैं बकलम ख़ुद की इस प्रथम तारिका के मंगलमय भविष्य की कामना करता हूँ !




रविवार, 1 फ़रवरी 2009

संभावनाशील चिट्ठाकार हैं सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी जी ...! (चिट्ठाकार चर्चा )

इसे ही तो कहते हैं न कि गली में छोरा और नगर में ढिंढोरा ! कई दिन से इसी उधेड़बुन में था कि अबकी चिट्ठाकार चर्चा का शिकार किसे बनाऊँ ! कुछेक के बारे में सोचा तो देखा कि भाई तरुण और ताऊ जी उन पर पहले ही कुर्बान हो चुके हैं .कुछ निर्णय नहीं कर पा रहा था कि किसे पकडूँ किसे छोडूं ,किसे अभी पकडूं किसे जब कोई न मिले तब आजमाऊँ और इसी उधेड़बुन में सहसा ही देवदूत से प्रगट हो गये अपने जार जवार के ही सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी जी ! अभी अभी वे इन्द्रलोक से खलियाये हैं ! और इसके पहले कि वे फिर से देव मंडली में जा मिलें और हम लोगों को भूलते चले जायं (बड़े लोगों की कम्पनी ऐसे ही होती है भैया !) उन्हें अपनी याद दिलाई जाय और बताया जाय कि जिस भी मंडली में रहें कम से कम हमें भी कभी कभार याद तो कर लिया करें !

सिद्धार्थ जी अभी तक पूरी तरह युवा हैं -इस बारे में मेरी नेक सलाह है कि कोई उन्हें इस बारे में तो कतई न आजमाए और सिद्धार्थ जी किसी को भी अभी इस कच्ची युवावस्था में तो कदापि आजमाने को मौका ना ही दें ! अनुभव बताता है कि ज्यादातर इमोशनल लफडे इसी उम्र में परवान चढ़ जाते हैं और जिंदगी भर सालते रहते हैं .डर तो इसी बात का है कि सिद्धार्थ भाई कुछ ज्यादा ही डैन्जर जोन में हैं -उम्र का अल्हड़पन , गजटेड सरकारी नौकरी -साफ्ट टार्गेट तो वे वल्लाह हैं हीं ! खुदा बचाए ! लेकिन मानना होगा अपनी तल्ख़ लेखनी से वे इस मामले में अनजान रहकर भी लोगों को पास फटकने का मौका न देकर एक तरह से अपनी लक्ष्मण रेखा बनाए हुए हैं ! (यहाँ लिखना कम समझना ज्यादा ! )
होशियार तो खैर हैं हीं -कुछ तो इंसान कुदरती तौर पर होता है और कुछ सरकारी नौकरी भी बना भी देती है -वे लोगों की बडी बारीक छानबीन करके ही सम्बन्धों की पेंगें बढाते हैं .अब जैसे उनसे मेरे तवारुफ़ का वाकया बताऊँ -पिछले दिनों दुर्गापूजा के अवसर पर मैंने अपने किसी ब्लॉग पर लिखा कि मैं इन दिनों पूजा पंडालों की मजिस्ट्रेटी ड्यूटी में हूँ बस तड से भाई जी ने ताड़ ही तो लिया कि मैं कोई बड़ा प्रशासनिक अधिकारी ही होऊंगा -अब पानी तो अपना सतह ही ढूँढता है ना इसलिए उन्होंने फौरन यह दरियाफ्त कर ही लिया कि मैं आख़िर किस पद पर हूँ पर मुझे भी दुःख हुआ कि सिद्धार्थ जी को मजबूरन यह सच बता कर कि मैं मोहक्माये मछ्लियान का एक मरियल सा मुलाजिम हूँ मायूस सा कर दिया होगा .अब भाई कोई बडा प्रशासनिक आफीसर ब्लागिंग स्लागिंग के चक्कर में पड़ने से रहा -आख़िर है क्या यहाँ ? कौन सा पुरुषार्थ यहाँ दिखे है जो आला आफीसर यहाँ समय जाया करने को आयें ! ये तो ठलुआ लोगों का शगल है भर -अब अपवाद के तौर पर ही अपने सिद्धार्थ जी और ज्ञान जी यहाँ बने हुए हैं और केवल इसलिए कि उनमें लीक से हट कर कुछ करने की तमन्ना है .या फिर वे जहां हैं वहाँ अपने को शायद पूरी तरह संतुष्ट नहीं पा रहे हैं ! ये दिल मांगे मोर ! यह बात सिद्धार्थ जी के आत्मकथ्य से भी स्पष्ट होती है आईये देखें -
"अपनी रूचि के काम नहीं कर पाने का मलाल लिए मैं अपनी गृहस्थी में खुश रहने की कोशिश कर रहा हूँ. पत्रकारिता, लेखन, रंगमंच, पत्रमित्रता, चित्रकारी आदि एक-एक कर शगल बन कर आए और परवान चढ़ने से पहले ही चलते बने. मिडिल-क्लास मानसिकता ने सरकारी नौकरी को ही जीवन का श्रेय-प्रेय मान लिया था. जबसे मिल गई तबसे ही यह शेर हॉन्ट करता है:- जिंदगी में शौक क्या कारे- नुमाया कर गए; बी.ए. किया, नौकर हुए, पेंशन मिली और मर गए. अब फ़िर से कोशिश कर रहा हूँ अपने भीतर से टटोलकर कुछ बाहर लाने की...मित्रों से कुछ सीखने की लालसा है और कुछ बाँटने का उत्साह है…"
तो यह वह जज्बा है जो आज के मेरे अतिथि चिट्ठाकार को ब्लागिंग तक खींच लाया है .सिद्धार्थ जी तो मुझे जैसे भूलते से गए मगर मैं पूरी सजगता के साथ अपने प्रिय ब्लागर को फालो करता ही रहा हूँ -मैं और वे लगभग एक ही सामाजिक सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से ही हैं -शिक्षा दीक्षा का भी परिवेश एक जैसा ही है इसलिए सोच में काफी साम्यता है -इसलिए उन्हें बीते दिनों नारी विमर्श के मुद्दों पर अपनी बात रखने की पुरकशिश कोशिशों को देखकर सहानुभूति भी हुई पर मैं चूंकि ख़ुद इस मुहिम पर हथियार डाल चुका हूँ अतः बस चुपचाप इनके बलिदान को देखता रहा ! पर सच कहूं खूब लडा मरदाना ........काबिले तारीफ़ !
मैं सिद्धार्थ जी की लेखनी का कायल हूँ -ऐसा शब्द चित्र खींचते है सिद्धार्थ जी कि सारा दृश्य आखों के सामने साकार हो जाता है -मिसाल के तौर पर उनकी हालिया लेखनी का चमत्कार अप देख सकते हैं -तिल ने जो दर्ददिया और रामदुलारे जी नही रहे -ये तो बस बानगी भर हैं इन पोस्टों में सिद्धार्थ जी की मनोविनोद्प्रियता ,सम्मोहित करने वाली शैली और संवेदनशीलता को सहज ही देखा, महसूस किया जा सकता है .और एक प्रखर लेखनी की सम्भावनाशीलता के प्रति भी हम आश्वस्त होते है .
सिद्धार्थ जी इन दिनों हिन्दुस्तानी एकेडेमी को पुनर्जीवित करने में लगे हैं -मुझे याद है कि मेरे इलाहाबाद प्रवास में वह एक परित्यक्त सी जगह थी और कभी कभार वहां कोई लैक लस्टर कार्यक्रम हो जाता था जिसमें एकाध में शरीक होने के बद फिर अगले किसी भी एकेडेमी के प्रोग्राम में न जाने की मैं कसम खाता था ! पर आजकल इन पीयूष पाणि सिद्धार्थ जी ने वहाँ के माहौल को गुलजार कर रखा है ! किसी कायदे के आदमी को किसी भी अग्नि परीक्षा में झोंक दो वह कंचन सदृश होकर और भी आभामय हो उठता है ! सिद्धार्थ जी इसके जाज्वल्यमान मिसाल हैं !
सिद्धार्थ जी आप दिनों दिन शोहरत की बुलंदियां छुएं ,मगर हमें भी याद रखें !

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