मंगलवार, 29 सितंबर 2009

आईये ढोल नगाडे बजाएं और खील बताशे बाटें -ब्लागवाणी का पुनरागमन ! ब्लागजगत की आज विजय दशमी है !

ब्लागवाणी की इतिश्री क्यों ?खल वंदना जो नहीं की इसलिए !

ब्लागवाणी का समापन बहुत ही अप्रत्याशित रहा ! कईयों को इस घटना ने किंकर्तव्यविमूढ़ता के मोड  में ला दिया ! मैं खुद भी उद्विग्न हूँ ,लगता है कोई  अपना बहुत घनिष्ठ ही अचानक बीच से उठ गया ! विचारों का झंझावत पीछा ही नहीं छोड़ रहा है ! सत्कर्मों की  कलयुगी नियति के ऐसे  दृष्टांत किस ओर  संकेत करते हैं ? यही न कि हम किसी तरह का सत्कर्म करना छोड़ दें ? समाज सेवा ? मारो गोली ? कभी लगता है कि ब्लागवाणी के नियंताओं ने इस अभियान को लांच करते समय अन्यान्य कर्मकांडों के साथ  खल वंदना नहीं की होगी ! खल वंदना ? जी हाँ ,बिना खल वंदना के अपने गोबर पट्टी में कोई काम निर्विघ्न हो ही नहीं सकता . ऐसा ज्ञानी जन कहते भये हैं ! कोई भी नया काम शुरू करो तो देवी देवता पूजन तो करो ही खल वंदना भी अनिवार्य रूप से कर लो -नहीं तो उद्यम वैसे ही असफल जायेगा ,जैसे ब्लागवाणी की गति हुयी !

संत कवि तुलसीदास तक  भी रामचरित मानस के आरम्भ में ही खल वंदना के पुनीत कार्य को पूरे विधि-विधान और मनोयोग से निपटाते हैं -आईये उन्ही से कुछ सीखें ! रामचरितमानस की शुरुआत तो तुलसी धरती के देवताओं (महीसुर ) यानी ब्राह्मणों   के च्ररण वंदन से करते हैं -बंदऊँ प्रथम महीसुर चरना --मगर कौन से ब्राह्मण ? -पोंगा पंडित नहीं बल्कि वे ब्राहमण जो "मोह जनित संशय सब हरना - यानि ऐसे ब्राहमण जो मोह /भ्रम से मानव मन में उपजने वाली सभी शंकाओं का समाधान  कर दें  -ऐसे ही  ब्राह्मणों की  तुलसी ने वंदना की -फिर गुरु और संतों की उपासना -वंदना की ! फिर वे किसकी वंदना करते हैं आईये उन्ही की लेखनी में देखें-
बहुरि बन्दि  खल गण सतिभाये .जे बिन काज दाहिनेहु बाएँ 
पर हित हानि लाभ जिन्ह केरे .    उजरे हर्ष विषाद बसेरे
{अब मैं सच्ची भावना से दुष्टों की वंदना करता हूँ जो बिना ही प्रयोजन ,
अपना हित करने वालों के प्रति भी प्रतिकूल आचरण करते हैं
(ब्लागवाणी प्रकरण को ध्यान रखें ) .दूसरों के हित की हानि ही जिनके दृष्टि में
लाभ है .जिन्हें दूसरों के उजड़ने में हर्ष और बसने में विषाद होता है}

तुलसी का यह खल वंदना प्रसंग तो लंबा है मगर दुष्टों के कुछ और गुण -अवगुण तुलसी के ही शब्दों में यहाँ बताना चाहता  हूँ -
पर अकाजु  लगि तनु परिहरहीं .जिमि हिम उपल कृषि दलि गरहीं 
बंदऊँ खल जस शेष सरोषा .सहस बदन् बरनई पर दोषा 
 { वे दूसरों के नुक्सान के लिए उसी तरह अपने  शरीर का त्याग भी कर डालते हैं
( ब्लागवाणी प्रकरण  याद रखे ) जैसे ओला फसलों का नुक्सान करने में खुद गल कर नष्ट हो .जाता है
मैं दुष्टों की  बंदना करता हूँ ,वे शेषनाग के समान हजार मुख वाले हैं और दूसरों के दोष
का  अपने हजार मुंहों से वर्णन करते हैं}
अगर आप को रुचे तो यह पूरा प्रकरण और भी विस्तार से रामचरित मानस में पढ़ सकते हैं ! मुझे भी लगा कि मैंने अपने इस प्राण प्रिय ब्लॉग की अधिष्ठापना पर खल वंदना नहीं की थी ! सो अब ब्लॉग वाणी प्रकरण के बहाने ही उनका स्मरण कर लूं ! विनय करता हूँ कि  क्वचिदन्यतोअपि को वे अपनी बुरी नजर से बख्श देगें ! मगर क्या सचमुच वे ऐसा  करेगें ? ह्रदय कम्पित है ! क्योंकि -
बायस पलिहै अति अनुरागा .होहिं निरामिष कबहुं न कागा 
(कौए को कितने ही प्रेम -आदर से क्यों न पालिए ,
तरह तरह से उसकी  सेवा सुश्रुषा भी कीजिये फिर भी
वह मैला खाना थोड़े ही छोड़  देगा ! )
ॐ शांतिः शांतिः

सोमवार, 28 सितंबर 2009

विजयदशमी पर यह कैसा उपहार ?

आदरणीय मैथिली जी और प्रिय सिरिल ,
आपको विजयदशमी की बधाई और ढेरो शुभकामनाएं ! मैं यह क्या देख रहा हूँ ? ब्लागवाणी को बंद कर दिया आपने ? विजयदशमी पर आपने यह कैसा उपहार दिया है ! मैं तो स्तब्ध हूँ ! क्या इस निर्णय के लिए यही सबसे उपयुक्त समय था ! विजयदशमी असत्य पर सत्य के विजय का पर्व है -आसुरी प्रवृत्तियों पर देवत्व के अधिपत्य के  विजयोल्लास का पर्व ! यही हमारी सनातन सोच है ,जीवन दर्शन है ! ऐसे समय इस तरह की क्लैव्यता ? कभी राम रावण से पराजित भी हुआ है ? यह आस्था और जीवन के प्रति आशा और विश्वास के  हमारे जीवन मूल्यों के सर्वथा विपरीत है कि प्रतिगामी शक्तियां अट्ठहास करने लग जायं और सात्विक वृत्तियाँ नेपथ्य में चली जायं  ! और वह भी आज के दिन -विजय दशमी के दिन ही ?
आपसे आग्रह है कि सनातन भारतीय चिंतन परम्परा के अनुरूप ही ब्लागवाणी को आज विजयदशमी के दिन फिर से प्रकाशित करें ! सत्यमेव जयते नान्रितम के आप्त चिंतन को आलोकित करें !

अगर आप ऐसा नहीं करते तो हिन्दी ब्लागजगत की विजयदशमी  कैसे मनेगी   ? ब्लागवाणी के अनन्य मित्रों ,प्रशंसकों को आप आज के दिन यही उपहार दे रहे हैं -वे क्या अपने को पराजित और अपमानित महसूस करें? नहीं नहीं आज के दिन तो यह निर्णय बिलकुल उचित नहीं है ! ऐसा न करें कि राम पर रावण की विजय का उद्घोष हो ?पुनर्विचार  भी न करें, ब्लागवाणी के तुरीन से तत्काल शर संधान कर असत्य और अन्याय के रावण का वध करे -प्रतिगामी शक्तियों को  पराभूत करें! हम आपका आह्वान करते हैं !

सोमवार, 21 सितंबर 2009

वर्षा : एक विदा गीत !

वर्षा अवसान पर है, इस बार बिना बरसे ही ! चाहे रीतिकाल की नायिका रही हो या फिर भगवान राम ही -वर्षा ने  विरही विरहनियों को जहां रुलाया है ,संयोग को भरपूर उद्दीपित भी किया है ! घन घमंड गर्जहिं घनघोरा ,प्रिया हीन डरपहिं मन मोरा -यह राम जैसा  स्थितिप्रग्य  भी कह उठता है ! मगर मुई,निगोड़ी  इस बार बिना बरसे (भरपूर बरसे ) ही जा रही है ! कितनी ही कामनाएं मन में रह गयीं ! मैं हर बार वर्षा की घनघोर फुहार/झापस  के साथ पद्माकर के इन पंक्तिओं का सस्वर पाठ करते नहीं थकता था ! प्रिय हिमांशु से अनुरोध है कि वे पद्माकर की इस वर्षा गीत -कविता को कविता कोष में दर्ज कर दें -यह वहां नहीं है !

और साथ ही प्रमाणिक पाठ और भावार्थ भी सुधी पाठकों के लिए यहाँ प्रस्तुत करें जिससे वे लाभान्वित हो सकें ! और मित्रगण आपसे अनुरोध  है कि एक बार दुबारा भी यहाँ लौट कर इस अद्भुत वर्षा -कविता की भावानुभूति जरूर कर लें ! इस वर्ष वर्षा रानी तो जम के नहीं बरसी ,मगर जाते जाते उनकी विदाई इस कविता से करके उन्हें अगले वर्ष झूम के बरसने की मनुहार भी आपके साथ कर  देता हूँ -

चंचल चमाकै चहु ओरन ते चाय भरी 
चरजि गयी थी  फेरी चरजन  लागी री 
कहें पद्माकर लवन्गन की लोनी लता 
लरजि गयी थी फेरि लरजन लागी री 
कैसे धरौ धीर वीर त्रिविध समीर तनै 
तरजि  गयी थी फेरि तर्जन लागी री 
घुमणि घमंड घटा घन की घनेरे आवे 
बरसि  गयी थी फेरि बरसन लागी री 
मेरे पास जो पाठ मिला है इस कविता का, वह कुछ इस तरह है -


चपला चमाकैं चहु ओरन ते चाह भरी 
चरजि गई ती  फेरि चरजन  लागी री ।
कहैं पद्माकर लवंगन की लोनी लता 
लरजि गयी ती फेरि लरजन लागी री ।
कैसे धरौ धीर वीर त्रिबिध समीरैं तन 
तरजि  गयी ती फेरि तरजन लागी री ।
घुमड़ि घमंड घटा घन की घनेरी अबै 
गरजि  गई ती फेरि गरजन लागी री ।


"विरहिणी नायिका पावस ऋतु की प्रबलता, उसकी बार-बार चढ़ाई, उसकी अंगीभूत विद्युत, समीर तथा घनगर्जन की पुनरावृत्ति से विचलित हो रही है । एक बार तो वह किसी तरह बरसात की मार सह गयी, किन्तु दुबारा वही दृश्य होने पर वह कहे जा रही है कि चपला (बिजली) की चारो ओर से जो चमक उमंग के साथ दीख रही थी, वह रह-रह कर फिर चमक रही है । चमकी थी, फिर चमकने लगी है । पद्माकर कहते हैं कि नायिका ने लवंगलता का सिहरना अभी-अभी देखा था, लेकिन पावसी तरंग में वह फिर हिल गयी, फिर हिल गयी । वह व्यथित होकर कह रही है कि मैं कैसे धीरज धरूँ ? त्रिविध समीर (शीतल, मंद, सुगंध) बह रहा है । यह मेरे शरीर को तर्जना (दुख) दे गया है और फिर-फिर मुझे छू-छू कर कष्ट पहुँचा रहा है । वह कंपित है, बादल की घनी उमड़ती-घुमड़ती घटा अभी-अभी गरजी थी लेकिन वह फिर-फिर गरजने लगी है । 

इस प्रकार बार-बार एक ही दृश्य और एक ही क्रिया का आघात-प्रतिघात विरहिणी नायिका को विचलित कर रहा है, और पद्माकर ने उसकी इसी दशा का वर्णन किया है ।"


स्नेहाधीन
हिमांशु

शनिवार, 19 सितंबर 2009

मौज लेने वालों की आई शामत !

आखिर जो नहीं होना चाहिए वही शुरू हो गया ! चट्टाने दरक गयीं !ब्लॉग जगत के दो महनीय सर्व आदरणीय शख्शियतों में असम्वाद मुखर हो उठा ! जलजला आ ही गया समझो !और यह सब मौज लेने की फुरसतिया आदत के चलते हुआ ! हमलोगों की तरफ एक हिदायत भरी कहावत है -" हंसी हंसी में बडेर पड़ना" ! तो इहाँ बडेर पड़ गयी मानो ! वो गीता में एक श्लोक है -यद्यदा चरति श्रेष्ठः तद्देवो इतरो जनः ! मतलब श्रेष्ठ लोग जैसा आचरण करते हैं बाकी जन  वैसा ही अनुसरण करते हैं ! यह संकट की घडी है !

आईये मौज लेने की प्रवृत्ति की कुछ विवेचना का प्रयास किया जाय ! मनुष्यों में अन्य गुण दोषों के साथ यह एक नैसर्गिक प्रवृत्ति है -दूसरों का उपहास उडाना ! कुछ लोगों को  खुद के सिवा दुनिया में सब कुछ असंगत ,अनुचित और अव्यवस्थित लगता है ! बचपन में यह प्रवृत्ति ज्यादातर लोगों में ठाठे मारती है -मगर आगे चल कर दुनियावी रीति रिवाजों को सीखते सीखते बहुतों में यह प्रवृत्ति लुप्त हो जाती है -मगर कुछ लोग फिर भी अपना पैनापन बनाए रहते हैं और हावभावों से विद्रोही ही बने रह जाते हैं -कबीर भी एक ऐसे ही विद्रोही रहे -मगर समय के साथ लोगों को यह लगने लगा कि कबीर का विद्रोह जायज है ,उसमें निःस्वार्थ  और त्याग का सम्पुट है ! सत्य का तपोबल है -और उन्हें लोग बर्दाश्त करने लगे -कबीर बीच  बाजार 'लुआठी' लेकर लोगों को अपना ही घर फूंकने को ललकारने लगे फिर भी लोगों ने कुछ नहीं कहा ,क्योंकि तब तक सब जान गए थे कि यह  दिल का अच्छा इंसान है !

कबीर की परम्परा आगे चली -बड़े बड़े साहित्यकार -व्यंगकार हुए ! शौकत  थानवी ,शरद जोशी ,हरिशंकर परसाई ,श्रीलाल शुक्ल आदि आदि -मौज लेने की इनकी भी बड़ी सात्विक प्रतिभा थी और इन्होने अपने मौज को ऐसा साहित्यिक जोड़ा जामा
पहनाया कि उसमें मौज लेने में परनिंदा और कटाक्ष का कुरूप भाव छिप गया और व्यंग हास्य के हंसमुख दूल्हे का ही रूप सामने आया ! जिसकी व्यापक जन स्वीकार्यता हुयी ! जानकार जानते हैं कई ऐसे  साहित्यिक संस्कार-शिल्प और विधायें हैं जिनसे बात बन जाती है और किसी का दिल भी नहीं दुखाती -सीधी कड़वी बात को भी लक्षणा और व्यंजना में कह दी जाती है ! बुरी नहीं लगती ! और कहीं बडेर ( झगडा टंटा ) भी नहीं होता ! यह हुनर हमारे कई पूर्ववर्ती साहित्यकारों में सहज ही दिखता है ! मौज लेने की कोई सीमा रेखा तो होनी ही चाहिए ! मत भूलें कि हम यहाँ  सार्वजानिक हैं ! निजी ब्लॉग की स्वतंत्रता  की दुहायी दे दे  कर दूसरों पर सतत चंचु प्रहार क्या उचित है ?

ब्लॉग जगत के नए घमासान में शायद व्यंग हास्य की उस  सहज स्वीकार्य परम्परा का उल्लंघन  हुआ लगता है -जिससे "शस्त्र न उठाने को " प्रतिबद्ध ब्लागजगत के भीष्म आज "जो हरिहू शस्त्र न गहाऊँ " की मुद्रा में दीख रहे हैं ! यह बहुत अप्रिय है ! दुखद है ! एक बहुश्रुत और सुचिंतित संस्कृत के श्लोक से बात पूरी करना चाहता हूँ -
सत्यम ब्रूयात प्रियं ब्रूयात 
न ब्रूयात सत्यम अप्रियम

बुधवार, 16 सितंबर 2009

जब हो कोई पाषाण निष्ठुर (कविता )....

कविता मानव मन की सशक्त अभिव्यक्ति है ! भावों के झंझावात  की एक संक्षिप्त किन्तु सारगर्भित प्रस्तुति ! ताऊ अपनी कवितायेँ सीमा जी से जन्चवाते हैं ! इसी  दृष्टांत ने मुझे प्रेरित किया इस कविता को हिमांशु जी से दुरुस्त कराने के लिए ! अब यह आपके सामने सादर साग्रह प्रस्तुत है -कही आपके सवेदना के तंतुओं को झंकृत करे तो ही यह विनम्र प्रयास सार्थक होगा !

जब हो कोई पाषाण निष्ठुर 
 
  जिस प्रेम में प्रतिदान न हो
फिर उसे अवदान क्यों हो ?
जब हो कोई पाषाण निष्ठुर
भावना का दान क्यों हो ?

जब  दर्प गर्हित दृष्टि हर पल
फिर वहाँ मनुहार क्यों हो ?
भाव  हो प्रतिकार का  फिर
याचना का निर्वाह क्यों हो

  निर्मम ह्रदय अभिव्यक्त प्रतिपल
फिर प्रेम का उदगार क्यों हो ?
हो मानिनी का हठ अपरिमित
 तब कभी  अभिसार क्यों हो ? 
 



रविवार, 13 सितंबर 2009

बोलो बेटा ...बोलो ...क्वचिद ....अन्यतो ..अपि ......क्वचिदन्यतोअपि !.....

इन दिनों टी वी पर एक बड़े व्यावसायिक प्रतिष्ठान का बहुत मजेदार विज्ञापन दिखाया जा रहा है जिसमें पूरे लाड प्यार और दुलार से एक  दम्पति अपने सद्यजात बेटे को चेकोस्लोवाकिया का उच्चारण सिखा रहे हैं और बच्चा बार बार  हुर्रर्र हुररर कहते हुए आखिर चेकोस्लोवाकिया कह पाना सीख ही लेता है !  बेटे के भविष्य को लेकर एक समर्पित दम्पति सफल होते हैं जो विज्ञापन में उनके चेहरे पर आये  गहन संतुष्टि भाव से साफ़ प्रगट होता  है ! वह  संतुष्टि भाव  उनके चेहरे पर एक अबोध को भाषा संस्कार सिखाने के कठिन श्रम को भी छुपा लेता है ! मगर हाय रे अपना चिट्ठाजगत .....जहां  क्वचिद अन्यतो अपि के उच्चारण को एक मुद्दा बना दिया गया है !

इस ब्लॉग के आरम्भ में ही इसके नामकरण को पूरे संदर्भ और प्रसंग के साथ निरूपित कर दिया गया था ! और यह जनभाषा में काव्य रचना के पुरजोर समर्थक ,प्रातः स्मरणीय तुलसीदास जी की कृति से ही साभार लिया गया है ! अब तो डॉ. अमर कुमार ने एक अन्यत्र संदर्भ देकर इसकी अर्थवत्ता को उजागर किया है ! यथा-
क्वचित + अन्य + यद्यपि का सँधि विग्रह है, क्वचिदन्य्तोअपि
क्वचित प्रकाशं क्वचित्प्रकाशं,
नभ: प्रकीर्णाम बुधरम विभाति
क्वचित क्वचित पर्वत सनिरुद्धम ,
रुपं यथा शान्त महार्णवस्य
डाक्टर साहब पढ़ रहे हों तो कृपा कर इसका पूरा अर्थ भी दे दें -हम गरीबों का भला होगा !


यह सही है कि अन्य बहुत सी बातो के साथ ही भाषा का संस्कार भी  बचपन में ही मिल जाना चाहिए ! हमें याद है संस्कृत के कई शब्दों के उच्चारण हमने सश्रम ही सीखा -भाषा  कोई भी हो ,हमें उसके नए शब्दों को सीखने के प्रति क्यों लालायित नहीं होना चाहिए ! क्या अग्रेजी में कठिन शब्द नहीं हैं ? उनका उच्चारण सीखने में तो हम सब पापड बेलने को तैयार रहते हैं मगर बात जब हिन्दी और संस्कृतनिष्ठ शंब्दों  की आती है तो हम मुंह फुलाने लगते हैं ! ऐसा दुहरा मानदंड क्या केवल इसलिए ही है कि  अंगरेजी जुगाड़ फिट करने की भाषा है और यह नग्न सच भी है इसी विदेशन ने हमें अपनी भाषा बोलियों  से निरंतर दूर किया है ! ज्ञान के प्रेमियों के लिए नित नए शब्दों को सीखना एक शगल है /होना चाहिए ! सुवरण को खोजत फिरत कवि व्यभिचारी चोर .....
जहाँ तक बस चले अनगिनत  भाषाओं के शब्दों से अपने ज्ञान को समृद्ध करें इसको लेकर अनिच्छा हमारी मंशा और क्षमता पर ही प्रश्नचिहन खडे करती है ! और हां ,जहाँ रहे वहां की बोली भाषा को ही तरजीह दें ! मगर ज्ञान की अभिवृद्धि पर अंकुश भला  कौन विवेकशील चाहेगा ?
तो भैया  बाबू जरा प्रेम से बोलिए तो क्वचिद अन्यतो अपि ......

क्वचिदन्यतोऽपि....! 







गुरुवार, 10 सितंबर 2009

शनि तो खुद कष्ट में हैं दूसरों को क्या कष्ट देगें !

सुबह का समय कितना तेज भागता है -मेरे पास केवल १० मिनट बचे हैं और मुझे यह बात आप तक पहुचानी ही है  ! पिछले दो ढायी घंटे सुन्दर पोस्टों और उन पर की गयी एक से एक नायाब टिप्पणियां पढने में बीत गया ! यह मंद गति संभव है कल से मेरे ऊपर शनिदेव की कृपा के चलते हुयी हो ! शनि =शनैः शनैः मतलब धीरे  धीरे और चर मतलब चलना ,तो जो धीरे धीरे चले वह क्या हुआ बच्चों ? शनिस्चर या शनिदेव ! ठीक बात !

अपनी तो ठहरी कन्या राशि जिस पर कल की ही भोर की रात में ये महराज आकर ठहर गए हैं और साढ़े सात साल रहेगें जैसा कि ब्लागजगत के ज्योतिषियों ने बाचा है ! बचपन से ही कन्याराशि होने के नाते साथियों की ठोना बोनी का शिकार होता रहा -लोगों ने जान तभी जाकर बख्शी जब बाकायदा दाढी मूंछे आ गयीं और पुरुष हारमोन का प्रभाव प्रत्यक्ष  हो गया ! यह व्यथा कथा कभी अन्यत्र !

लेकिन शनी महराज ने आते ही अपनी स्नेह वर्षा शुरू कर दी है -ऑफिस में नया कम्पयूटर आ गया और इंस्टाल भी हो गया ! कल ही ! जब लोग ९९ के फेर में पड़े रहे -अरे वही ९९९९९९९९९ और न जाने क्या क्या ! शनि महराज दरअसल इस समय खुद भरी कष्ट में है क्योंकि जिन पर उन्हें नाज रहता रहा उनके वही भव्य छल्ले ही गायब  हो गए हैं ! तो वे सारी मानवता को अब खुद दुःख कातर हो देख रहे है -आपदा धर्म अपना चुके हैं ! उनके लिए अनुष्ठान होने चाहिए -शनि देव विघ्न निवारण अनुष्ठान ,कभी कभी सोचता हूँ कि हमारे ये ज्योतिषी कल्पनाशीलता से इतने  रहित क्यों हो गए हैं -उनके इष्ट देव कष्ट में हैं और कहीं से भी विघ्न निवारण मंत्रों की गूँज नहीं सुनायी दे रही -शनिदेव के कष्ट का निवारण करने को कोई शांति मंत्र पाठ नहीं हो रहा ! यह तो चिंता की बात है !

हे ब्लागजगत के ज्योतिषविदों जरा भी तो शनि देव पर तरस खाओ जिन्होंने आपकी पीढियों तक को खिला खिला कर तर किया है उन पर  आज कुछ प्रत्युपकार करना है तो पीछे न हटिये -यहीं ब्लॉग जगत से ही उनके कष्ट निवारण का अनुष्ठान ,जप तप आरम्भ करिए ! यह मेरी निवेदन पोस्ट इसीलिये ही है ! और हां ,हे ब्लागजनों अब शनि से  मत डरिये उनके दुःख में भागीदार बनिए ,वे हमेशा आपके दुखों के भागी रहे हैं ! आज आप साबित कर दीजिये कि धरती वासी मानव कभी भी संकीर्ण और अनुदार नहीं  रहे हैं उनमें पर -दुःख कातरता कूट कूट कर भरी है !

रविवार, 6 सितंबर 2009

घर के अखबार की रद्दी ऐसे बिकी ...आप भी आजमायें यह फार्मूला !

ज्यादातर नगरीय मध्य वर्गीय लोगों की मासिक आर्थिकी में अखबार पर खर्चे का बजट शामिल है -मैं हिन्दी और अंगरेजी के दो अखबार मंगाता हूँ जिन पर कुल ढाई सौ का बजट प्रावधान रहता आया है ! छठे छमासे इन अखबारों की रद्दी गृह मंत्रालय द्वारा बेंच दी जाती है और गृह आर्थिकी के ओपेन बजट में यह आमद दर्ज नही होती . कहाँ जाती हैं मैंने कभी पूंछा और ही बताया गया है ! मुझे मालूम है कि महिलायें एक कुशल गृह-आर्थिकी विद और प्रबन्धक होती हैं इसलिए उनकी व्यवस्था पर कोई प्रश्न चिह्न उठाने का सवाल ही नही है ! मैं यह बात गृहणियों के लिए कह रहा हूँ -वर्किंग वूमन के बारे में मेरी कोई फर्स्ट हैण्ड जानकारी नही है ! ज्यादातर गृहणियों को वेतन भोगी गृह स्वामी द्बारा एक मुश्त वेतन राशि थमा दी जाती है और 'गृह कारज नाना जंजाला 'से राहत भरी मुक्ति पा ली जाती है -कोई भी कुशल गृह स्वामी यही आजमूदा नुस्खा अपनाता है और रोज रोज की घरेलू चिख चिख से बरी हो जाता है -वैसे मैं ऐसे भी सज्जनों को जानता हूँ जो पूरा वेतन भूल से भी अर्धांगिनी को नही सौपते -'जिमी सुतंत्र होई बिगहिं नारी ' और पैसे की इस मामलें में बड़ी भूमिका के प्रवचन के साथ एक मामूली सा वेतन का हिस्सा सहचरी को टेकुली सेंधुर के नाम सौंप देते हैं -और उसे क्या चाहिए सब सुख तो ऐसे सज्जन उसे देते ही हैं -यह अकाट्य (!) तर्क भी उनके पास रहता है ! बहरहाल यह तो विषयांतर हो गया !
मैंने जब यह ढेर दरवाजे पर देखा तो हतप्रभ रह गया

अब मुद्दे पर ! अभी उसी दिन दफ्तर से घर पहुँचा तो क्या देखा कि ठीक दरवाजे के सामने /बाहर रद्दी अख़बारों का जखीरा लगा हुआ है बिल्कुल असुरक्षित और बेपरवाह ! डोर बेल बजाने और दरवाजे को खुलने के साथ यही जानकारी मैंने गृह मंत्रालय से तलब की तो एक बहुत रोचक दास्तान सामने आयी जिसे आपसे साझा करने का लोभ संवरण नही कर पा रहा !

तो मेरे आफिस जाने के बाद उस दिन इत्मीनान से अखबार की रद्दी बेचने का अनुष्ठान और ब्राह्मणी द्वारा कुछ दान दक्षिणा पाने का भी प्रयोजन था -रद्दी वाला आया तो था मगर बात बनी नहीं .वह भी पक्का मोल तोल वाला निकला और गृह मंत्रालय तो इसमें पहले से ही निष्णात ! उसने कहा हिन्दी वाला वह रूपये किलो लेगा और अंगरेजी वाला पाँच में ! गृह मंत्रालय को एक तो इस पर कड़ी आपत्ति थी कि हिन्दी और अंगरेजी के भावों में यह भेद भाव क्यों और यह भी कि वह दरें बहुत कम लगा रहा था ! और जब रद्दी खरीदने वाले ने यह देखा कि गृह मंत्रालय के पास एक सही भार लेने वाली मशीन है तो वह फिर भाग ही खडा हुआ ! डील कैंसिल ! अब मुसीबत में गृह मंत्रालय ! इतना बोझ घर के बाहर तो गया फिर घर के भीतर लाना स्वच्छता आदि के लिहाज से मुनासिब नही था -फिर वह पूरा गट्ठर वहीं रह गया !

मगर यह दास्तान मुझे आश्चर्यजनक तरीके से काफी प्रफुल्लित होकर सुनायी जा रही थी और मुझे कुछ असहज सा लग रहा था ! मैंने कारण पूंछा कि आखिर इस विषम परिस्थिति में यह अकारण प्रसन्नता क्यों ? जवाब सुन कर मैं भी मुस्कुराए बिना और ब्राह्मणी को बधाई दिए बिना नही रह सका -आप भी धैर्य खोएं और सुनें ! किस्सा कोताह यह कि रद्दी खरीदने वाला फेरी वाला जब चला गया तो कुछ ही देर बाद एक बनारसी साडी बेचने वाला नमूदार हुआ और विस्मय के साथ उसने रद्दी के अखबारों की ढेर के मामले में पूंछा और उसमें से सात रूपये किलो देकर तीन किलो अख़बार ले गया साडियों के बीच लगाने के लिए ! वाह प्रति किलो तीन रूपये मुनाफा ! फिर आया धोबी उसने भी यह दृश्य देखा तो पहले से ही तय राशि पर दो किलो वह उठा ले गया इस्त्री किए कपडों की तह लगाने ! अगले दिन अल सुबह अखबार देने वाले ने जब यह खुली प्रदर्शनी देखी तो उसने कहा कि उसे माह जुलाई -अगस्त का अंगरेजी का पूरा अख़बार एक ग्राहक को चाहिए -वह भी सात रूपये किलो में उठा ले गया ! बची खुची प्रदर्शनी के बारे में पड़ोस के दरजी को पता चला तो वह उठा ले गया पहले से ही तयशुदा कीमत पर ! मतलब आर्थिक शास्त्र का एक ऐसा उदाहरण प्रस्तुत हो गया कि विक्रेता को भी फायदा और क्रेता को भी -बीच की एक कड़ी जो गायब हो गयी थी ! सच है खुदा जब देता है तो छप्पर फाड़ के देता है ! अब देखिये आगे यह रद्दी कैसे बेची जाती है ! दूसरे गृह मंत्रालय भी इस वाकये से फायदा उठा सकते हैं !
और ऐसे बिकती रही दिन भर अखबारों की रद्दी

हल्का फुल्का

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