मंगलवार, 28 दिसंबर 2010

बोर और बोगस है तीसमारखां!

संशय तो पहले से ही था,मगर फिल्म ने सारे संशयों को मिटा कर साबित कर दिया कि वर्ष २०१० के सबसे बोर फिल्मों में तीसमारखां  ने भी अपना नाम दर्ज कर लिया.पैसे और वक्त दोनों की बर्बादी है तीसमारखां . रही बात शीला की जवानी का आईटम डांस तो वह  पहले से ही तमाम चैनलों पर कोहराम मचाये हुए है .इसके बारे में भी यही समझ लीजिये कि दबंग के मुन्नी  बदनाम के आगे   यह मसाला आईटम  भी पनाह और पानी मांगता नजर आता है और गीत के अश्लील बोल की बात तो अलग है ही .

न जाने शुरू से ही क्यों फिल्म झोल खाती नजर आती है ,निर्देशन का कसाव तो फ़िल्म में कहीं है ही नहीं और शायद इसका अहसास निर्देशक फरहा खान को हुआ और इंटरवल के बाद उन्होंने मेहनत दिखाई मगर मामला हाथ से फिसल चुका था .हाँ एक गीत वल्लाह रे वल्लाह कर्णप्रिय जरुर है और मुस्लिम रहन सहन/परिवेश के अनुकूल है .मगर  इतना तड़क भड़क और रंगों साज इस्लाम के अनुकूल तो नहीं -इस विरोधाभास पर दिमाग चलता रहा और फिल्म की रील आगे खिसकती रही .

शीला की जवानी वाला आईटम  भी फिल्म के शुरू होते ही डाल दिया गया और उसके ख़त्म होते ही लग जाता है कि अगर इस बहु प्रचारित दृश्य का यह हाल है तो फिर पूरी फिल्म का क्या होगा -और आशा के अनुरूप ही फिल्म  बाँध  नहीं पाई -हाँ आठ दस वर्ष के बच्चे जरुर नायक की उल जलूल हरकतों पर किलकारियां मार रहे थे-मगर मुझे तो अक्षय कुमार की कलाबाजियां और बेहूदी संवाद अदायगी पर कुढ़न हो रही थी .

फिल्म की कहानी एक चोरों के सरताज की है जो एक पूरी ट्रेन को लूटने का तामझाम अंजाम देता है जिसमें सरकार के अन्टीक -पुरातात्विक महत्त्व के दुर्लभ खजाने भरे हैं .कहानी की मूल सोच दुरुस्त है मगर उसे ठीक से फिल्माया नहीं जा सका है ..छोटे मोटे दृश्य बच्चों के मनोरंजन के लिए बढियां बन पड़े हैं -जैसे अद्भुत ब्रेसलेट के जरिये  चोर का गायब होना और बिना सर वाले घुड़सवार भूत का आतंक .

मेरी ओर से एक स्टार ...बच्चों को भेज सकते हैं मगर वहां भी शीला की जवानी रोड़े अटकाए हुए हैं ...निर्णय आपका! 

बुधवार, 22 दिसंबर 2010

दशक शुभकामना!

मित्रों ,अब से केवल दस दिन बाद की सुबह  मानवता की देहरी पर एक  नई  दशाब्दी की दस्तक लिए आ पहुंचेगी.अब कुछ लोगों के लिए दशाब्दी का आकलन अलग हो सकता है जैसे २००० से २००९ तक भी एक दशाब्दी है मगर मैं २०११ से शुरू हो रहे दशक को ही सुविधा और सहजता के लिए नया दशक मान  रहा हूँ .वैसे भी मेरी अंकगणित बहुत कमजोर रही है और संख्याओं का खेल भी मुझे नहीं भाता ....मैंने सोचा एक भरेपूरे नए दशक के लिए शुभकामना का मौका दसेक दिन पहले ही न क्यों लपक लिया जाय....आखिर यह कोई एक नए साल का ही मामला थोड़े ही है पूरे दस वर्ष का पैकेज  है और हम एक दो नहीं पूरे दशक की शुभकामना यहाँ चेपने वाले हैं ...आप सभी को नया दशक शुभ हो ,समृद्धपूर्ण  हो -यह हार्दिक कामना देने के लिए ही यह पोस्ट है ...



मगर यह अवसर है थोडा अतीत जीवी भी हो उठने  का ,क्या खोया क्या पाया का आकलन करने का भी .बीते दशक की अनेक परचम लहराती उपलब्धियों में एक तो अपनी यह हिन्दी ब्लागिंग ही है जिसने भारतीय अभिव्यक्ति का एक नया युग ही आहूत कर लिया ...और मजे की बात यह है कि अभिव्यक्ति के इस माध्यम में स्वयं के दोष निवारण की भी अद्भुत क्षमता अंतर्निहित है और स्व-आलोचना ,बेलौस अभिव्यक्ति ,अनुपम विविधता,और नैरन्तर्य  के मजबूत खम्बों पर यह निरंतर उत्थान को अग्रसर है ,नए दशक में हिन्दी ब्लागिंग सफलता के नए प्रतिमान बनायेगी,इसमें मुझे  किंचित भी संदेह नहीं है और मेरा यह भी पूर्वानुमान है कि यह इसी दौरान ब्लागरों के लिए आर्थिक परितोषोंमें  भी सक्षम बनेगी. ब्लागिंग के इस बीतते दशक  (यद्यपि हिन्दी ब्लागिंग का दशक अभी पूरा नहीं हुआ ) के बाद के वर्षों में मैं भी यहाँ प्रादुर्भूत हुआ ..ब्लागिंग से तो नहीं मगर ब्लागरों से भरपूर दंश/डंक  भी खाये तो  प्रेमोपम प्रोत्साहन भी मिले ...एक मिलाजुला अनुभव! ब्लागिंग के कथित/ तथाकथित  मठाधीशों को तिरोहित   होते देखा तो कई  अकथित प्रतिभाओं  को सहसा प्रस्फुटित होते हुए भी.किसी ने अंतर्मन को अपने न बूझे जाने वाले व्यवहारों  से बेंध डाला तो किसी ने आगे बढ़कर स्नेह का अनाहूत संबल दे दिया ....कुल मिलाकर हिन्दी ब्लागिंग ने कुछ दिया ही ,लिया कुछ नहीं ... :) मित्र दिए ,थोड़े दुश्मन दिए ,प्रशंसक दिए ,आलोचक दिए,खुशी और गम दिए  और एक तरह से कहूं तो समग्रता और संतृप्ति का भाव दिया -सेन्स आफ कम्प्लीटनेस दिया ..और क्या चाहिए ....

ब्लागिंग ने कई अभूतपूर्व मित्र दिए जिनमें कुछ भूतपूर्व (ईश्वर उन्हें चिरायु करें ) हुए तो आज भी कुछ अभूतपूर्व ही हैं और पूरा विश्वास है अब कोई भूतपूर्व नहीं होगा ..उनके नामों को यहाँ गिनाकर मैं उन पुंजीभूत संज्ञाराशियों को सर्वनाम नहीं करना चाहता ,मुन्नियों को बदनाम और नामियों को सरेआम करने की मेरी कभी कोई फितरत नहीं रही -यह नीच और निषिद्ध कर्म है और  प्रतिगामी -काउंटर प्रोडक्टिव है.मुझे पता है  नया दशक कितनी  ही और मित्रता की सुवासित सौगातों को लिए  आने वाला है.मैं आशावादी हूँ और आने वाले दशक का इसी लिहाज से खैर मकदम को उत्सुक हूँ.
मुझे उदासीन ,हर चीज में नुक्स निकालने वाले ,आर्मचेयर क्रिटिसिज्म वाले लोग फूटी आँख  नहीं सुहाते .... महज इसलिए कि यह सब जीवन जीने का उत्प्रेरण नहीं है...
 चल समेट बोरिया बिस्तर 
आगामी दशक मेरे लिए एक और बड़ी आशा और प्रफुल्लता लिए आएगा जब 2017 में मैं सरकारी चंगुल / (कु) सेवा मुक्त हो जाऊँगा ,अगर पहले ही आवेदन नहीं कर दिया तब -और तब दुगुने उत्साह से  अपनी रचनात्मक ऊर्जा को समाज की सेवा में बहुविध लगा सकूंगा! आगामी दशक समूची मानवता के लिए कई बड़ी खबरे भी लाएगा ..चाँद पर एक आशियाँ बसने के हम थोडा और करीब हो जायेगें और भारत में सेवायोजन के अभूतपूर्व अवसर आयेगें ...हमारी अर्थव्यवस्था उत्तरोत्तर और सुदृढ़ होगी बावजूद इसके कि भ्रष्टाचारियों का बोलबाला और मुंहकाला होता रहेगा और अगर स्विस बैंक में जमा धन का पूरा व्योरा ही मिल जाए और धन की आंशिक वापसी भी भारत को हो जाए तो फिर मजा ही आ जाए ....नए दशक! तुमसे ये भी उम्मीद रहेगी .....जूलियन असान्जे  युग का सूत्रपात हो गया है इसलिए ऐसे किसी स्कूप का पूरा स्कोप है . 

मित्रों यह दशक चिंतन तो अभी बस शुरू हुआ है ..और यह पोस्ट तो खालिस आपको शुभकामना के लिए है  ..आशा करता हूँ कि अभूतपूर्व मित्रों का साथ इस पूरे दशक तो रहेगा ही ,उसके बाद  भी ......आज इन पंक्तियों को लिखते हुए एक असीम उर्जा का संचार अपने में पा रहा हूँ और इसे आप तक भी संचारित कर रहा हूँ ...वर्चुअल आस्मोसिस (शब्द कापीराईट है  )  के जरिये ..आप सभी का नया दशक बहुविध मंगलमय और समृद्धिदायक बने यही कामना है ...

मंगलवार, 21 दिसंबर 2010

जिन्होंने दिया उनका भला और जिन्होंने नहीं उनका भी ...

बात मेरे बर्थ डे की है जो १९ दिसम्बर को सामान्य सहज बीत गयी .कल रात महफूज भाई की विलम्बतम विश मिली , उन्होंने करीब दस बजे जब बिग बॉस में डाली और वीना मलिक लड़ रहे थे,मुझे काल करके बधाई दी ..उन्हें लगा कि मेरा जन्मदिन कल ही था ....इस बार जन्मदिन पर आने वाले शुभकामना संदेशों ने पिछले सारे रिकार्ड तोड़ डाले ..और यह करामात फेसबुक की है ..करीब डेढ़ सौ शुभकामनाएं वहां कुछ इस तरह  आती रहीं जैसे शुभकामनाओं की बरसात हो गयी हो ...फेसबुक में प्रोफाईल के ठीक नीचे जन्मदिन का उल्लेख होता है ..जैसा पहले भी हुआ है इस बार भी जहाँ कई अनपेक्षित शुभकामनाएं ,सुखद आश्चर्य के रूप में  लपकती हुई आ पहुँची तो कई बहु प्रतीक्षित एक बार और दगा दे गयीं ...मगर कुछ बहुत स्नेहिल शुभकामनाएं भी मिलीं जो ई ग्रीटिंग्स द्वारा मिलीं ...मनुष्य के जीवन के ये कुछ ऐसे अवसर होते हैं जब मनुष्यता में उसका विश्वास और गहरा उठता है ....आस्थाएं पुनः अंकुरित हो उठती हैं और जीवन के मोह फिर जागृत  हो उठते है ..सच है जीवन के सतत और सुचारू संवहन के लिए मोहबद्धता के  ऐसे क्षण बहुत जरुरी होते हैं और शायद  यही कारण रहे होंगे जब हमारे आदि पूर्वजों ने इन अवसरों का अनुष्ठानीकरण शुरू किया होगा ....जिससे मनुष्य का उत्साह और सांसारिकता के निर्वाह का जज्बा जोर मारने लगे  ....प्रकृति भी तो यही चाहती है ....



 कुछ शुभकामनाएं तो भूली  भटकती मेरे पिछले पोस्ट पर जो दिल्ली संस्मरण पर थी आ टिकीं ,एक वह बात जो मुझे रुचती नहीं कि किसी पोस्ट की अंतर्वस्तु पर टिप्पणी के बजाय उस पर असंगत बात लिखी जाय ....मगर यहाँ भी मनुष्य के व्यक्तित्व का वही नितांत कोमल पहलू उजागर हो जाता है जिसके  कारण वह धरती के जीवों का सिरमौर बना हुआ है ..मेरे किसी भी शुभाकांक्षी को जब भी जहाँ भी पता लगा कि मेरी बर्थडे है उन्होंने वही प्यार उड़ेल दिया ...अब बताईये भला क्यों मनुष्य मात्र के प्रति  मेरा प्रेम और समर्पण और गहरा न हो जाय ...कुछ मानव /मनु पुत्र श्रेष्ठ मुझे अनजाने ही फेसबुक पर शुभकामना चेप गए और कुछ जानबूझ कर भी चुप रहे ...हा हा ...इसलिए कि शायद  भूलवश मैंने उन्हें जन्मदिन विश नहीं किया था ....यह तो कोई बात नहीं हुई ..अपनत्व तो तब हुआ जब जबरदस्ती केक/मिठायी  खाने की जिद की जाय ....मित्रों ,ऐसे अवसर तो हमें झटक लेने चाहिए क्योकि यह हमें हमारी विशिष्टता का ही बोध कराते हैं ....मानव संस्कृति के सुनहले अवसर हैं  ये ...

प्रशांत प्रियदर्शी ने मुझसे फेसबुक पर पूछा कि सर इस बार का बर्थ डे आपके परिवार ने  कैसा मनाया ...शायद वे ज्यादा तड़क भड़क वाली बात सुनना चाहते थे....मैंने सच और सादगी की बात उन्हें बता दी -"बस एकाध व्यंजन अधिक था ...अब आप भी कहाँ पचपन में बचपन वाले जन्मदिन मनाये जाने की बात करते हैं ..." यह उनके लिए आश्चर्यजनक रूप से प्रत्याशित उत्तर था ...."कहने लगे हाँ इस उम्र में तो बाल बच्चे ही माता पिता का बर्थ डे मनाते हैं ' ....हाँ प्रशांत ,अच्छे बच्चे जरुर ऐसा करते हैं ....मगर ..खैर जाने दीजिये ...

तकनीक कहाँ मनुष्य का विस्थापन कर रही?  एस एम एस ,फोन काल ,अंतर्जाल सभी ने मेरे इस तिरपनवें वर्षगाँठ में संदेशवाहक का काम किया ..वह तो मनुष्यता को जोड़ने में किसी फौलादी सीमेंट का ही कार्य कर रही है ...एक चेरी की तरह ..मशीने और तकनीक इसी तरह मनुष्य की सेवा में लगी रहें ..यही कामना है ....मुझे मेरे जिन मित्रों ने जन्मदिन की बधाई दी और जिन्होंने न जानते हुए या जानते हुए भी नहीं  दी ,सभी को मेरा स्नेहसिक्त आभार ,अभिवादन और मंगलमय  नव वर्ष /नए दशक की अनगिन शुभकामनायें  .....


शनिवार, 18 दिसंबर 2010

दिल्ली की तीसरी सुबह -शाम और वापसी (दिल्ली यात्रा की समापन किश्त )

दिल्ली का तीसरा दिन अपने साथ आये मित्रवर गुप्ता जी के एक 'देखुआरी'* अभियान में बीत गया .रजनीश जी को फोनियाया तो वे कहीं किसी साहित्य अकादमी का संदर्भ देने लगे ..बाद में पता लगा कि वे किसी सीक्रेट मिशन पर थे....बनारस से फोन पर फोन आ रहे थे वहां शीघ्र पहुँचने को ....मेरी वापसी यात्रा तो ९ के शाम को शिवगंगा एक्सप्रेस से नियत थी मगर अब तुरंत निकलना जरुरी हो गया था और उधर विज्ञान संचार की कांफ्रेंस भी अपने शबाब पर थी ....बनारस के लिए इन्डियन एरलाईन्स की साढ़े दस बजे जाने वाली उडान से निकलने की संभावना क्षीण थी ...शाम स्पाईस जेट की टिकट ही नहीं मिल पाई ....न तो कांफ्रेंस में जा पाए और न ही बनारस को निकल सके ....अब बचे थोड़े समय में  निर्णय लिया गया कि एक शादी के बाबत गुप्ता जी के  अनुरोध को  पूरा कर लिया जाय ..लड़के की देखुआरी कर ली जाय .

लड़का  पीतमपुरा में किसी प्राईवेट कम्पनी में कार्यरत था ...अब गुप्ता जी पूरी जासूसी पर उतारू थे...लड़का आफिस से कुछ देर के लिए निकला था ..इसी बीच उसके कार्यालय भवन के पांचवें तल  पर मुझे भी खींच खांच कर वे ले जा पहुचे और जिस तरीके से लड़के से जुडी बातें पता करने लगे मुझे असहज  लगने लगा ..यह शिष्टाचार के विपरीत सा लगा और मैंने उन्हें हठात रोकते हुए कहा कि लड़के को आने दीजिये उसी से सब बातें पूछ लेगें ...इतने में 'लड़के' महोदय आ ही गए ओर हमें बड़े आदर भाव से आफिस में बैठाये और कॉफ़ी  मंगा ली ..मुझे लगा कि थोड़ी देर तक उनके बॉस ओर  सहकर्मियों ने मौके की नजाकत समझते हुए उन्हें ही कार्यालय के बॉस की पदवी दे दी थी -मतलब उनके आफिस में गजब की आपसी समझ थी ....गुप्त जी संतुष्ट हो चले थे..लड़का दिल्ली के अस्पतालों से प्लेसेंटा -गर्भनाल खरीद कर अमेरिका की स्टेम सेल कम्पनियों को भेजने के काम में लगी  फर्म में कार्यरत था ...अब मैं तो एक शौकिया विज्ञान संचारक हूँ ही ..लगा स्टेम सेल का कथा पुराण बांचने -लड़के के मुंह पर अपने देखुआरो के प्रति प्रशंसा भाव देख गुप्त जी आह्लादित हुए ...और लिफ्ट से उतरते ही मेरे प्रति तगड़ी कृतज्ञता व्यक्त की ..देखुआर और भावी वर दोनों इम्तहान में पास हो चुके थे..

अब थोड़े से बचे समय में हम चले प्रियेषा कौमुदी ,बेटी से मिलने जो दिल्ली विश्वविद्यालय नार्थ कैम्पस के  करीब ही हडसन लेन  में रहती हैं और अभी अभी जैसलमेर टूर से लौट कर वहां की मिठाईयां हम सभी को खिलाने को उत्सुक थीं ...पीतमपुर से यह जगह ज्यादा दूर नहीं है और हम पूरे दिन की टैक्सी कर ही चुके थे....प्रियेषा से मिलने के उपरान्त वापस पुराने राजेंद्रनगर के होटल पहुंचे और फिर सज धज कर आज के कांफ्रेंस बैंक्विट   के लिए जा पहुंचे -आज का भी रात्रि भोज स्वागत भोज की तरह भव्य और लाजवाब था ...उसका वर्णन पहले की पुनरावृत्ति ही होगी ...आज का रात्रि भोज मुख्य आयोजक संस्थान  के मुखिया द्वारा दिया गया था ....और भोज के दौरान ही उनका एक संबोधन ध्वनि विस्तारक से भी हमें सुनायी दिया जिसे सुन कर मुझे रामायण के राजा भानुप्रताप के भोज के समय की गयी आकाशवाणी याद आ गयी -ब्राह्मणों ,इस भोज को मत खाओ इसमें नर मांस मिला हुआ है ,सब अपने अपने घर जाईये ...(विप्र ब्रिंद उठि उठि  घर जाहू ..) यह पुराणोक्त  पूरा दृश्य ही लगा साकार हो उठा है ..होठों पर बरबस ही मुस्कान खिंच आई ...
 दिल्ली एअरपोर्ट टर्मिनल तीन का एक कोना

अगले दिन सुबह ही जल्दी जल्दी तैयारी,प्लेन न छूट जाय यह अतिरिक्त सावधानी बरत  कर सवा  आठ बजे ही इंदिरा गांधी अन्तराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर जा पहुंचा ..फिर उसी टर्मिनल तीन के इन्द्रपुरी सरीखे दृश्यों का  नजारा किया -जगमग जगमग करते किताबों के स्टैंड ,फ़ूड मार्ट ,ध्यान केंद्र आदि  जगहों पर   इधर उधर निरुद्येश्य घूमता रहा ,ट्रैवेलेटर पर आता  जाता रहा ...एक जगह सामने बनते हुए  डोसा  देखा तो  खाने का मन हो आया तो ९० रुपये(हे राम )  का डोसा खरीदा ,खाया ..तभी याद आया रुमाल जेब में नहीं है और सारा सामान तो  लगेज में बुक हो गया है ...वहां के चमकते दमकते उपभोक्ता स्टोरों पर एकल रुमाल खोजने लगा मगर एक साथ ४ या पांच के सेट चार सौ से छः सौ की रेंजमें उपलब्ध मिले ..अकेला रुमाल कहीं मिल ही नहीं रहा था ..भला मार्केटिंग का यह कौन सा फंडा है  समझ नहीं पाया ... एक दूसरे ऊँची दूकान और फीके पकवान   वाले ने कहा कि हाँ अकेला रुमाल तो है मगर  लायिनेन/लिनेन (LINEN )  का ... मैंने तपाक से कहा दे दे भाई ..लो काम बन गया ..मगर दाम सुना तो लगा दिल ने सहसा धडकना ही बंद कर दिया हो -एक अदद रुमाल के लिए सिर्फ १४०० रूपये की दरकार थी ...मैंने तेजी से उसे वापस फेंका और सारी ,इट्स टू कास्टली कहकर वहां से फूट लिया ..प्लेन का समय भी हो चला था ...हल्दीराम के शो रूम जहाँ करीब सौ खाद्य आईटमों की रेंज थी और सभी आईटम बाजार भाव पर ही उपलब्ध थे ,थोड़ी खरीददारी की .....और चल पड़ा गेट नंबर २८ बी की ओर जो हमें विमान तक ले जाने  वाला था  .....वहां पहुँचने पर पता लगा कि प्रस्थान गेट में परिवर्तन हो गया है और अब विमान के लिए २९ अ से प्रस्थान करना है ..जो सौभाग्य से बगल में ही था ...

 लिनेन की चौदह सौ रूपये की हूबहू ऐसी ही रुमाल जो मैं ले न सका:जिनके तेल के कुए होंगे वे ही ले पाते होंगें

 विमान ने देर से उडान भरी मगर बनारस की औसतन एक घंटे की यात्रा को पचास मिनट में पूरा किया गया ..यात्रा के दौरान एक मजेदार क्षण तब आया जब परिचारिका को मैंने ये बताया कि नाश्ते की आलू की टिक्की की प्रेपरेशन ठीक नहीं है जबकि  मैं लगभग पूरा नाश्ता -केक ,स्प्रिंगरोल,एक पैटीज उदरस्थ  भी कर चुका था ....परिचारिका ने कहा सर मैं अभी आती हूँ और  अगले ही पल लाकर नाश्ते का दूसरा बड़ा पैकेट पकड़ा दिया ..मैं कहता ही रह गया कि नो नो आई डिड नाट मीन दैट..इस बार का नाश्ता पहले से कई गुना ज्यादा  अच्छा था ,बिल्कुल गौरमेट च्वायस -या तो यह एक्जीक्यूटिव क्लास वालों के लिए था .आई मीन कैटल क्लास वालों से अलग विशिष्ट यात्रियों के लिए या फिर क्रूज/विमान स्टाफ  के लिए था ...मैं भी स्नैक्स का स्वाद लेते वक्त  अपने को उसी क्लास का मानने के मुंगेरीलाल के सपने में खो सा गया ..तभी बनारस लैंड करने का ऐनाउन्स्मेंट हो गया ..झटपट नाश्ता खत्म किया ......

अगले बीस  मिनट बाद मैं बाबतपुर अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे के आगमन गेट से बाहर  निकल रहा था ...
इति श्री दिल्ली संस्मरण कथा -सीजन दो
सीजन प्रथम
*देखुआरी -भावी वर को देखकर विवाह के लिए चयन की प्रक्रिया पूर्वांचल में देखुआरी कही जाती है! 

शुक्रवार, 17 दिसंबर 2010

संकलकों की असमय मौत पर एक शोकांजलि .....!

मैं डूबा तो था अपने दिल्ली संस्मरणों में मगर अचानक एक गतिरोध आ गया ....चिट्ठाजगत बंद हो गया ..अब यह स्थाई बंदी है या अल्पकालिक मुझे पता नहीं है मगर मैं इन संकलकों की व्यथा कथा समझ सकता हूँ ...सबसे पहली बात तो यही है कि ये एक बिल्कुल दया भाव/हितैषिता की भावना से वशीभूत /परोपकार  वाले "चैरिटी शो " के उपक्रम  है ..बिना किसी आर्थिक आधार  परोपकार के उदाहरण! एक तो दूर दूर तक कोई आर्थिक संभावना नहीं दूसरे मूर्खों की जमात का रोज रोज का उसी डाली के काटने का जूनून जिस पर वे जमे हैं ...मतलब लगभग रोज ही उन्ही  चिट्ठा  संकलकों  की कमियाँ गिनाना जो अगर वजूद में न  होतीं तो महानुभावों की  बातें भी सामने न आ पाती ....इन्ही कारणों से ब्लागवाणी बंद हो गया .....अब कौन कंगाली में आटा गीला करे -एक तो मिलना जुलना कुछ नहीं और रोज रोज लल्लू बरसाती और गजोधर के ताने सुनना ..मारो गोली क्या रखा है इस चैरिटी में ....

लिहाजा ब्लॉगवाणी ठप पड़ गयी  और अब चिट्ठाजगत के भी अवसान के दिन दिख रहे ...हिन्दी ब्लागिंग में यह संकट की स्थिति है ....क्योकि अभी भी हिन्दी ब्लागिंग परवान पर नहीं है और उसे अभी भी चिट्ठा संकलक के सहारे की जरुरत है -एक विश्वसनीय चिट्ठा संकलक की ..मैं अपने कुछ मित्रों से बात कर रहा था कि क्यों न ब्लागवाणी और चिट्ठाजगत को आर्थिक सहयोग के सहारे फिर से इस मुहिम में लगने का आह्वान किया जाय ...और ये संकलक कोई वार्षिक सहयोग राशि रख दें ....बिना आर्थिक संबल के ऐसी गतिविधियां एक तो संभव नहीं हैं और दूसरे इनका मुफ्त लाभ लेना अनैतिक भी है ...हमारे बनारस में जहाँ ढाई तीन हजार रूपये सालाना लोग पान की पीक के साथ प्रक्षेपित कर देते हैं -अगर इन इन संकलकों को केवल ५०० रूपये सालाना वार्षिक फीस दे दी जाय तो मुझे लगता है कहीं कुछ गलत नहीं है ....अब मुफ्तखोरी बंद की जाय ...अगर हम फीस देकर किसी सेवा का लाभ उठायेगें तो उसके प्रति एक तो जिम्मेदारी का अनुभव करेगें दूसरे हम तब गुणवत्ता की अपेक्षा भी कर सकते हैं ...

इधर ब्लॉगर मीट के नाम पर हम हजारो फूँक दिए जा  रहे है मगर हम इस ओर ध्यान नहीं दे पा रहे हैं ..क्योकि हमारी गतिविधियों को उजागर करने वाला चुपचाप सेवाभाव से अपना काम किये जा रहा  है मगर उसकी दैनंदिन दिक्कतों से हम मुंह फिराए बैठे हैं ..आईये हम इस पर गंभीरता से विचार करें और पहली प्राथमिकता चिट्ठाजगत और /या ब्लागवाणी को देकर हम इन संकलकों को पुनर्जीवित करने का प्रयास करें ..मैं और मेरे कुछ मित्र शुरुआती सहयोग से मुंह नहीं मोड़ेगें ऐसा मुझे विश्वास है ....कोई सुन रहा है ? (संकलक तो बंद हैं ! )


सोमवार, 13 दिसंबर 2010

ब्लागरों के ब्लॉगर और यारों के यार सतीश सक्सेना से मुलाक़ात ....दिल्ली प्रवास का दूसरा दिन!

सात दिसम्बर की सुबह दिल्ली बहुत ठण्ड थी ...पारा ६ डिग्री नीचे तक उतर चुका था ....टीवी के जरिये .इस ठण्ड की खबर के बावजूद भी मैं ठंड नहीं रख सका और बाबत ब्लॉगर मीट के सतीश सक्सेना जी को फोन कर डाला  ...उनकी वही परिचित दुःख हारण तारण उमंगपूर्ण आवाज सुनायी पडी ...वे मिलने को उत्साहित दिखे ...तय पाया गया कि सभी होटल रायल पैलेस या फिर निकटस्थ सम्मलेन के वेन्यू पर ही ९ की सुबह १० बजे इकट्ठे हो जायं ....इसके पहले मैं जिन जिन से अलग भी बात कर चुका था वे अन्यान्य कारणों से ९ के पहले उपलब्ध नहीं थे ..सतीश जी ने कहा कि वे ९ को तो आयेगें ही मगर इसके पहले भी मुझसे मिलना चाहेगें ..अगला इतने प्रेम से मिलना चाहे तो  मुझे मिलने में क्या दुविधा ..जाकर जेपर सत्य सनेहू तेहिं ता मिलई न कछु संदेहू ....आज कांफ्रेंस का उदघाटन सत्र था इसलिए हम सब पूरे औपचारिक तौर पर तैयार होकर जल्दी ही सम्मलेन स्थल पर पहुँच गए ....

आम जन के लिए विज्ञान और प्रौद्योगिकी संचार पर यह भारत का पहला अंतर्राष्ट्रीय सम्मलेन था ....प्रतिभागियों में काफी उत्साह था ....५० से भी अधिक देशों के प्रतिभागी उपस्थित हुए थे ...काफी गहमा गहमी थी ..उदघाटन हमारे सर्वप्रिय पूर्व राष्ट्रपति  कलाम साहब ने किया और युवाओं को विज्ञान संचार के मुहिम से जोड़ने का आह्वान किया ....साईंस ब्लागर्स असोशिएसन और साईब्लॉग पर इसकी रपटें  पढी जा सकती है ...

विज्ञान और प्रौद्योगिकी संचार के इस विशाल और अन्तर्ऱाष्ट्रीय सम्मलेन को भी अपने अहम् और संकीर्ण नजरिये के चलते कुछ विज्ञान संस्थानों  /परिषदों ने बायकाट कर रखा था क्योकि सबको सेन्ट्रल चेयर की दरकार थी ....जबकि इसकी वेबसाईट पर सभी शर्ते ,भागीदारी के नियम स्पष्ट रूप से इंगित थे और यह साईट निरंतर अपडेट होती रही है मगर शायद कुछ लोगों की गलतफहमी या अहमन्यता थी कि उनका हाथ पकड़कर मुख्य कुर्सी तक लाकर बिठाया जाएगा ..आयोजकों ने ऐसे संकीर्ण मानसिकता वालों को घास तक नहीं डाला और एक भव्य सफल कार्यक्रम करके दिखा दिया ...लोग ठगे भकुए से बने देख रहे हैं ..बंधुओं क्या बिना मुर्गों  के  बाग़ दिए  सूरज नहीं निकलता है ? ....अब मुर्गों/मूर्खों  को कौन बताये ? 

मुझे एक समान्तर सायंकालीन सत्र विज्ञान कथाओं के जरिये विज्ञान और प्रौद्योगिकी संचार पर कोआर्डिनेट करना था ....उसके पहले सतीश जी का फोन आ गया था कि वे मुझसे मिलने ही नहीं बल्कि लेने आयगें और हमने बिना विचारे झट से हाँ कर दी थी ....अब मुझे क्या पता था कि वे ठीक उसी समय आ जायेगें  जब मैं अपने सत्र संचालन के मध्य में था ....ऐसे गलत वक्त साईलेंट मोबाईल  थरथराया ..अन्तःप्रेरणा से जान गया कि सतीश जी हैं ....बिल्कुल वही थे...बोले कि वे बाहर इंतज़ार कर रहे हैं ..मैं फुसफुसाया बस आधे घंटे और ...वे मौके की नजाकत समझ गए और कहा कि ठीक है आधे घंटे बाद आते हैं ....लगभग  दो तिहाई विदेशी प्रतिभागियों से भरे  व्याख्यान हाल में जाकिर अली रजनीश ने भी साईंस फिक्शन इन ब्लाग्स पर अपना परचा पढ़ा .....बहरहाल आधे घंटे में सत्र का समय समाप्त हो गया ....आडियेंस दूसरे लेक्चर हालों की ओर लपक उठी और मैं मुख्य द्वार की ओर ..

जैसे ही मुख्य द्वार पर पहुंचा एक कार तेजी से भीतर घुसी -अन्तःप्रज्ञा ने तुरंत सचेत किया कि सतीश जी हैं ,हाँ वही थे... उन्होंने  भीतर से हाथ हिलाया और गेट पर ही कार रोककर दरवाजा खोल दिया ...और पीछे से आई कार का हार्न बज उठा ..मैंने उन्हें आगे बढ़ाकर  कार रोकने का इशारा किया ,थोड़े से असमंजस के बाद उन्होंने कार बढाई और आगे जाकर रोक दी ....सतीश जी सचमुच मुझे कांफ्रेंस स्थल से बलान्नयित करने का दृढ इरादा लेकर आये थे-इस प्रेमानुराग के चलते मैंने कांफ्रेंस डिनर को मारी गोली और चल पड़े इस यारों के यार और ब्लागरों के ब्लॉगर के साथ ...जाकिर अली रजनीश साथ में  थे उन्हें  शैलेश भारतवासी के यहाँ जाना था जहाँ वे ठहरे थे....सतीश ने उन्हें लिफ्ट दिया और शाम के भोज का गिफ्ट भी ..
यारों के यार और ब्लागरों के ब्लॉगर

हम पहली बार मिल रहे थे मगर अपरिचय की कोई दीवार नहीं ....खूब हंसी ठट्ठा हुआ ,ब्लागजगत के नामी गिरामियों की चर्चा हुई ....और उन्होंने एक जोरदार दावत मोतीमहल में दी ...उन्होंने मुझसे कुछ गोपन सवाल जवाब किये और मैंने उनका खुला जवाब दिया ..मेरे पास गोपन कुछ नहीं है ....कोई दुश्मन है या दोस्त एलानियाँ कहता हूँ जबकि कुछ नीति विशेषज्ञों का मानना है कि जीवन में गोपनीयता का अपना महत्व है और कभी कभार यह बेहद जरुरी है (जुलियन असान्जे ,सुन रहे हो न बास ) ....सतीश जी ..अरे अरे अभी ही सब  कह दूंगा तो उनके बारे में अपने चिट्ठाकार स्तम्भ में फिर क्या कहूँगा ...यारो के यार ने मुझे होटल पर रात्रि के दस बजे के आस पास छोड़ा और जाकिर को छोड़ने आगे बढ गए ....होटल में पहुंचते ही बनारस के शीतला घाट पर हुए हादसे की खबर सुन कर सन्न रह गया ...अब ब्लॉगर मीट का क्या होगा? मुझे तो वापस भागना होगा ....परिस्थितियाँ ही कुछ ऐसी हो गयीं थीं ....

 जारी है ....


 


रविवार, 12 दिसंबर 2010

दिल्ली में निशा निमंत्रण ......

दुलहन सी दिखी दिल्ली -एक और दिल्ली संस्मरण!-1

ऐसा लगा हम चंद्रलोक पर आ पहुंचे हों-इंदिरा गांधी अंतर्राष्ट्रीय एअरपोर्ट नई दिल्ली टर्मिनल तीन का नजारा-2

और  अब  आगे  ....

 

दिल्ली की पहली शाम हवाई अड्डे से रैन बसेरे  तक की भीड़ भरी ट्रैफिक के भेंट चढ़ गयी  .. किसी मित्र ने सही कहा था कि दिल्ली में आधी उम्र तो सड़कों की लम्बाई नापने में निकल  जाती है ....आयोजन स्थल -राष्ट्रीय कृषि विज्ञान संचार परिसर टोडापुर तक पहुँचते पहुँचते रात हो आई ,ठंडक भी काफी हो आई थी -अगले दिन सुबह पता लगा कि दिल्ली की ठंड ने ६ दिसम्बर की रात को एक दशक के रिकार्ड को भी धराशायी कर दिया था . पारा ६ डिग्री तक आ गिरा था -पिछली रात तो नहीं अब यह सुनकर कंपकपी छूट गयी ..शायद यह बीती रात के स्वागत भोज और आयोजन स्थल की भव्यता और इंतजामों का कमाल  था कि कंपकपी को भी  शायद  हमारे निकट आने में कंपकपी छूट गयी हो ....

काशी की ही डॉ .विधि नागर और उनके समूह की नृत्य नाटिका 'कृष्ण रास  ' की रंगारंग प्रस्तुति और स्वागत भोज के अंतर्राष्ट्रीय संस्पर्श ने माहौल में गर्माहट घोल दी थी ..चहुँ ओर दूधिया रोशनी और जगह जगह  दहकते  अलावों की व्यवस्था ने परिवेश को गुलाबी बना दिया था  -हर दृष्टि से सचमुच यह एक वार्म बल्कि वार्मेस्ट वेलकम /रिसेप्शन था ....अलग अलग समूहो ,देशी विदेशी वैज्ञानिको के परस्पर मिलते जुलते ग्रुपों  के हाय हेलो ,तरह तरह के उष्म पेयों ने वातावरण को रूमानी बनाने  में कोई कोर कसर न छोडी थी ....मेरे साथ मित्र गुप्त जी  के पहले अन्तराष्ट्रीय सम्मलेन  के संकोच सकुचाहट को रेड वाईन ने काफी हद तक दूर कर दिया था ..अन्य मित्रों के उद्दीप्त और प्रफुल्लित चेहरों से विदेशी ब्रांडों की उत्कृष्टता झलक  पड़ रही थी ......भोज बहुत भव्य और भोजन सुस्वादु था ..देशज  और अंतरद्वीपीय छप्पनों व्यंजन किंवा अधिक ही मे से मन पसंद का ढूंढना किसी टेढ़ी खीर से कम न था ....मेरा पेट तो स्टार्टरों /एपिटायिजर को चखने में ही भर गया था ..सुब्रमन्यन .साहब सही कहते हैं मैं एक खाऊ इंसान हूँ ...अब पालक पनीर आदि अनादि तो रोज ही खाते हैं ...इसलिए मैंने अपने मन  पसंद का एक अंतरद्वीपीय व्यंजन  ढूंढ ही निकाला -वेज आगरटिन  /बेकड वेजिटेबल ...जिसके लिए मेरा पेट पुष्पक विमान सा व्यवहार कर  हमेशा थोड़ी अतिरिक्त जगह दे ही देता है ....तदनंतर आईसक्रीम ..जी हाँ ठण्ड में आईसक्रीम का आनंद कुछ और ही होता है  ...जिस मित्र ने मुझे यह राज कोई एक दशक पहले बताया था सहसा सामने आकर मुझे आईसक्रीम खाते देख ढेढ़ इंच मुस्कान बिखेरते कहीं खो गए ...आखिर पांच सौ से भी अधिक भीड़ में कौन किसके साथ कब तक टिके ..जब नए नए साथी इधर से उधर गुजरते दिख रहे हों ..आखिर बेहद अधीरता के आगोश में आती हुई  इस दुनिया में कौन कब तक किसी का इंतज़ार करे  ... 
 इन कुर्सियों को अभी भी शायद  किसी का इन्तजार है 
बहुत कुछ रंगीन होते हुए भी मेरा मन विरक्त सा ही बना रहा .... उम्र के लम्बे अनुभव मनुष्य को निश्चय ही  उदासीन या फिर यथार्थ के धरातल पर ला देते हों .....मेरे मित्र गुप्ता जी बहुत खराब अंगरेजी के बावजूद पता नहीं एक विदेशी वैज्ञानिक बाला को न  जाने भारतीय संस्कृति का कौन सा सबक देते दिख रहे थे ...शायद  रेड़ वाईन या व्हिस्की का कोई कमाल का ब्रांड अपना  कमाल दिखाने को उद्यत हो उठा हो  ...मैं थोडा  सशंकित हो उठा और उन्हें हठात अपनी ओर उन्मुख किया और एक दूसरे कोने की ओर ले चला .संस्कृतियों की विभिन्नता कभी कभी परिचय का एक ऐसा क्षद्म्मावरण तैयार कर   देती है कि भोले भाले लोग धोखा खा जाते हैं ...और मेरे यह मित्र तो बड़े ही सरल ह्रदय के हैं ....सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी जी के एक वर्तमान वर्धा प्रवास के मित्र और मेरे पुराने मित्र अनिल अंकित राय मेरे खाने के आईटमों पर नजर रखे थे और उन्हें चिढाने के लिए मैं बार बार सीक कबाब .मछली टिक्का आदि आदि नान वेज लेने का उपक्रमं सा कर रहा था और वे किसी वेज आईटम के लिए व्यग्र दिखते थे....मैं बार बार उन्हें ताकीद करता बंधुवर कहाँ अंतर्राष्ट्रीय सम्मलेन में शाकाहारी ढूंढ रहे हो ....

 मेरा पसंदीदा कांटिनेंटल आईटम -बेकड वेजिटेबल 

मेरे अनुज डॉ मनोज मिश्र अपने मा पलायनम उद्घोष के बावजूद भी बार बार मेरे पास से पलायन कर रहे थे....उन्हें मेरे खाने पीने का ख्याल रखना चाहिए था ,मगर शायद वे अपने प्रोफेसनल कैरियर के प्रति ज्यादा चैतन्य दिख रहे थे....लेकिन अगले दिन मेरे साथ संयुक्त पेपर के प्रेजेंटेशन के समय होटल में जा सोये और मुझे उनका पेपर पढना पड़ा ..जबकि  मेरा स्पष्ट  आदेश था कि पेपर वही पढ़ेगें और सवाल आदि उठेगा तो मैं झेल लूँगा ....

मुझे अब ठंडक का अहसास होने लगा था .रात के ग्यारह बज चुके थे   ..नाक अन्दर से गीली गीली लग रही थी ....इसके पहले कि आयोजक जन विदेशी प्रतिभागियों को उनके प्रवासी ठिकानो पर ले जाने में व्यस्त हो जायं मैंने आयोजन के एक मजबूत स्तम्भ और एक बहुत ही नेक इंसान जिन्हें मनोज ने ग्रासरूट इंसान की संज्ञा से नवाजा ,संतराम दीक्षित जी को पकड़ा और जब उन्हें यह कहा कि हुजूर एक आप ही तो हैं इस भीड़ में जिसके रहमो करम पर  हम जिन्दा हैं नहीं तो लंका निश्चर  निकट निवासा  इहाँ कहाँ सज्जन का वासा तो वे पुलकित हो उठे और तुरंत हमारे ठहरने के स्थल रायल पैलेस होटल ,पुराना राजेंद्रनगर तक एक टैक्सी का इंतजाम कर दिए ...मनोज मैं और गुप्ता जी रैन बसेरे की ओर चल पड़े ...इस तरह दिल्ली की यह पहली निशा बीत चली थी और मुझे अनायास ही भरत के प्रयाग प्रवास का वह मानस पद बार बार याद  आ रहा था ...
सम्पति चकई भरत चक मुनि आयस खेलवार 
तेहिं निसि आश्रम पिजरां   राखे भा भिनुसार 
दिल्ली की एक नई सुबह हमारी प्रतीक्षा कर रही थी ....
अभी जारी है ...
.

शनिवार, 11 दिसंबर 2010

ऐसा लगा हम चंद्रलोक पर आ पहुंचे हों-इंदिरा गांधी अंतर्राष्ट्रीय एअरपोर्ट नई दिल्ली टर्मिनल तीन का नजारा

दुलहन सी दिखी दिल्ली -एक और दिल्ली संस्मरण!

अब आगे ....

कामनवेल्थ के पहले  हम जब भी दिल्ली एअरपोर्ट पर उतरे हैं ,वही परम्परागत तरीके से सीढ़ी का आकर यान से जुड़ने और फिर सीढ़ी से उतर कर फेरी बस पर बैठ एअरपोर्ट के आगमन भवन तक पहुंचने की स्मृति थी ...इस बार तो पूरा मंजर ही बदला हुआ था -सीढ़ी की छोडिये पूरा एअरपोर्ट भवन ही एक एअर  टनेल के जरिये विमान से  आ जुडा था ....यात्री  बस सीधे उसी में से होते हुए खूबसूरत दरियों/कारपेट  पर कदमताल करते हुए आगे बढ चले ....प्रौद्योगिकी का कमाल अपनी पूरी भव्यता के साथ हमारे सामने था ..एक क्षण को लगा कि जैसे मैं खुद अपनी विज्ञान कथा मोहभंग के नायक की ही तरह चंद्रतल पर लैंड कर चुका हूँ .....सब कुछ वायुरोधी एक बड़े कैप्सूल सा लगा और सामने   ट्रैवेलेटर जो समतल आगे की ओर भाग रहे थे और जो असहाय ,अशक्त  यात्रियों के लिए बनाए गए थे मुझे बेधड़क बनारसी की उन लाईनों की याद दिला रहे थे-ऐसी कब होगी दुनिया बेधड़क ,जब रुक जाएगा आदमी और चलने लगेगी सड़क ....जी हाँ वही मंजर सामने था और हम चलती सड़कों-ट्रैवेलेटर पर पैर जमाये आगे की ओर भागे जा रहे थे-हमारे रास्ते में ऐसी कई भागती सडके मिलीं ....कुछ छोटी जीपें भी दिखीं जिसे मैंने चंद्र्बग्घियों का प्रोटो टाईप माना,जो इधर से उधर यात्रिओं की फेरी में जुटी थीं ...यह सब चंद्रमा की भावी बस्ती का एक ट्रेलर ही तो लगा ....आज की इन प्रौद्योगिकियों से  अगर हम कोई संकेत लें तो निश्चय ही हम सौर मंडल में अन्यत्र की बसाहटों का सहज ही एक पूर्वानुमान लगा सकते हैं ....और विज्ञान कथाकारों के लिए ऐसे ही दृश्य भविष्य की कल्पनाओं के लिए प्रेरणा स्रोत बन जाते हैं! 

रुक गया है आदमी और चलने  लगी है सड़क -इंदिरा गांधी अंतर्राष्ट्रीय एअरपोर्ट नई दिल्ली टर्मिनल तीन 

मुझे अपना लगेज लेना था और इतने भव्य और तिलिस्मी से लग रहे भवन में अपना समान कहाँ से लूं यह दुविधा मन  में थी ..बहरहाल फ्लाईट संख्या आदि का पता बता  कर निचली मंजिल पर पहुँच एक इनक्वायरी विंडो पर जानकारी मिली कि  कन्वेयर बेल्ट संख्या तीन पर अभी अभी आ  पहुंचे जेट ऐअरवेज और इंडियन एअरलाईन के हमारे विमान आई सी ४०५ का सामान डाल दिया गया  है ..मैं मित्र गुप्ता जी के साथ वहां पहुंचा तो कन्वेयर बेल्ट पर सामानों के आने का सिलसिला शुरू हो गया था ....सबकी नजरें अपने अपने सामानों पर गडी थीं ,समान को सामने आते ही पहचान कर तुरंत उठाना था क्योंकि अगले पल इंगित सामान एक विशाल वलयाकार कन्वेयर बेल्ट पर घूमते हुए आगे बढ जाता था ..अचानक मैं असहज हो उठा क्योंकि इस बार मैं जो स्ट्राली ले गया था वह बहुत कामन माडल वाली थी ... बच्चे मेरी वाली स्ट्राली कब्जिया चुके थे और इस काले रंग की स्ट्राली जैसी कई स्ट्रालियाँ दीर्घ वलयाकार बेल्ट पर घूम रही थीं ...मैंने अपनी वाली  के  चक्कर  में दूसरों की कई स्ट्रालियों को उठा लिया और तुरंत  ही उनके वास्तविक स्वामी के टोंकने पर झेंपना पड़ा ..सबसे बड़ी झेंप तो तब हुई जब मुझे एक दूसरी स्ट्राली खुद अपनी ही लगी और ठीक यह फैसला लेने कि यह मेरी ही है के नैनो सेकेण्ड पहले उसके असली दावेदार ने अपना दावा ठोक दिया ....मैं अपना सा मुंह लेकर रह गया ..गलती यह हो गयी थी कि अपनी स्ट्राली पर मैंने कोई प्रमुख पहचान का चिह्न नहीं बनाया था ..अब मैं कुछ कुछ नर्वस सा होने लगा था और उधर मित्र गुप्ता जी बार बार यह कहकर कि इसलिए मैं लगेज बुक कराने का लफड़ा ही नहीं पालता मुझे खिझा रहे थे... एअर लगेज में बुक करने वाले समान पर एक सहजता से दिख जाने वाला  पहचान चिह्न प्रमुखता से न लगाकर मैंने बड़ी भूल कर दी थी ...धीरे धीरे सब सामानों के दावेदार अपना अपना सामान लेकर चलते जा रहे और मेरी स्ट्राली का कहीं अता पता नहीं था ...आखिर का  बैग भी उठ गया और कन्वेयर बेल्ट खाली हो गया ....

हम थोड़ी देर वहीं ठगे से रह गए ...आयोजकों का फोन आ रहा था और जानकारी मिल  रही थी कि दिल्ली  का तापमान १० डिग्री के नीचे आ चुका था ...मेरे सारे गरम कपडे उसी स्ट्राली में थे .. ..गुप्ता जी ने मुझे तनाव में देखकर कहा कि चलिए बाहर से स्वेटर इत्यादि खरीद  लेते हैं ....."मगर ,आखिर मेरा समान गया कहाँ ,कहीं वही से तो लोड होने से नहीं रह गया ...." कहकर मैं गुप्ता जी को वहीं रोक कर अगले १० मिनट में  इस बारे मैं औपचारिक शिकायत वगैरह  में लगा रहा ..वापस आया तो गुप्ता जी को कन्वेयर बेल्ट के सुदूर दूसरे किनारे की ओर टकटकी लगाये देखते पाया ..जाहिर था वे अभी भी आस लगाए बैठे थे...मैंने निःश्वास लेकर कहा चलिए कम्प्लेंट कर दी है ..छोडिये जो होगा देखा जायेगा ..बनारस के एअरपोर्ट पर अपने मित्र के पी सिंह  जी तो हैं ही ,वे सब कुछ ठीक करा देगें ....और तभी एक काली हिलती डुलती चीज अकेली कन्वेयर बेल्ट पर आगे सरकते हुई दिखी ....अरे कहीं वही तो नहीं है मेरी स्ट्राली ...हाँ हाँ वही थी मेरी स्ट्राली ...उतारने के बाद पूरी संतुष्टि हो गयी ...लौटते वक्त मैंने इस पर अपने बड़े से कांफ्रेंस बैज को ही  पहचान के लिए स्थायी रूप से लगा दिया है ...जैसे मेरे पूर्व के बैग्स और स्ट्रालियों पर लगे हैं और जिन पर अब बच्चे कब्ज़ा जमा चुके हैं ....

एअरपोर्ट पर प्री पेड टैक्सियों का रेट रीजनेबल है ....हमने ३२० रुपये में आयोजन स्थल राष्ट्रीय  कृषि विज्ञान परिसर (एन ऐ एस काम्प्लेक्स ) ,देव प्रकाश शास्त्री मार्ग टोडापुर /दसघरा पूसा के लिए टैक्सी ली और गन्तव को चल पड़े ....
अभी जारी है!

शुक्रवार, 10 दिसंबर 2010

दुलहन सी दिखी दिल्ली -एक और दिल्ली संस्मरण!

संस्मरण आखिर लिखे ही क्यों जायं?लिखने वाले के लिए तो मान  सकते हैं यह बिना लिखे रहा न जाय किस्म  की एक कशिश  है मगर पढने सुनने वाले का इससे कोई भला न हो तो फिर ऐसे संस्मरण से फायदा ही क्या ? दूसरी ओर कोई संस्मरण ऐसा हो जाए कि लोग पढ़ें और उन्हें लगे की अरे इस संस्मरण में तो मेरी खुद की ही झलक है-खूबियों की और मासूम भूलों  की  भी तो फिर बात ही बन जाए! मतलब संस्मरणों को बयां करना एक तरह से लोगों के मन  से जुड़ने की कवायद है ....इसलिए   इस बार की भी दिल्ली यात्रा के कुछ क्षणों को मैं आपके मन मस्तिष्क में  गिरवी रख देना चाहता हूँ ,ताकि कभी किसी मोड मुलाकात पर फिर से उसे जीवंत कर सकूँ .....अंतर्जाल और अपनी  याददाश्त का तो  कोई भरोसा नहीं .....मित्रों का भरोसा ही है जो अभी पूरी तरह टूटा नहीं ....अचानक ही कोई ऐसा शख्स आ मिल जाता है जो मानवता और दोस्ती में अपुन का विश्वास फिर से जगा जाता है .......दुनिया अच्छे लोगों से अभी पूरी तरह खाली नहीं हुई है ..ऐसा अनुभव शिद्दत के साथ दिल्ली में हुआ ...पर उसकी चर्चा आगे ...पहले यात्रा की कुछ बातें .....

दिल्ली में पी सी एस टी यानि पब्लिक कम्यूनिकेशन आफ साईंस एंड टेक्नोलाजी के ११वें  अंतर्राष्ट्रीय सम्मलेन में अपनी भागीदारी के लिए जाने के पहले सतीश सक्सेना जी को मैंने यह बता दिया था कि मैं कुछ अपनी पसंद के ब्लॉगर से जरूर मिलना चाहता हूँ और कम से कम एक चाय अपनी ओर से उन्हें पिलाना चाहता हूँ ,. यह कोई ब्लॉगर मीट की भूमिका नहीं थी ..वैसे भी महानुभावों में अब ब्लागर मीट को लेकर एक उपहासात्मक और व्यंगात्मक लहजा मुखर हो चला है  ..तिस पर  दिल्ली अभी अभी एक बड़े ब्लागर मीट से उबरी है  और अपुन भी  कोई सेलिब्रिटी थोड़े ही हैं  .और .कुछ लोग  आँखे  तरेरे ही रहते हैं ....बकौल सोम ठाकुर के ...अपना धरम है खुशबू खुशबू ,अपनी व्यथा है मन ही मन फिर भी न जाने क्यों कुछ साथी आँख तरेरे देखे हैं ..क्या बतलाएं हमने कैसे सांझ  सवेरे देखे हैं .....बस मेरी इच्छा कुछ मित्रों से मिल कर उनका  कुशल क्षेम भर जान लेना था ,उन्हें आँख भर देख लेना था  क्यूंकि उनकी रचनाओं से तो खूब परिचित हो ही लिया हूँ ..... 

 बस मैंने सतीश सक्सेना जी की मदद  मांग ली .....उन्ही से   इसलिए कहा कि उनमें मुझे एक समन्वयक की प्रतिभा मूर्तमान  दिखती रही है ..वे जब हिन्दू मुस्लिम के समन्वयन की बात इतनी सहजता से कर लेते हैं तो फिर चन्द ब्लागरों का समन्वय तो उनके बाएं हाथ क्या कनिष्ठा का ही खेल समझिये ....उन्होंने अपना  कुछ संशय अंगरेजी में बोलें तो  रिजर्वेशन  जरूर  मुझसे शेयर किये मगर यहाँ से मेरे चलने के पहले ही एक ब्लॉगर चाय पार्टी की बात पक्की हो गयी और वेन्यू टाईम वगैरह दिल्ली पहुँचने के बाद तय होने की सहमति बनी ...

अब दिल्लीवासियों की भी अपनी मुसीबतें हैं ..खुशदीप भाई ने कहा कि मेरी ड्यूटी कुछ ऐसी है कि मैं शाम को अवलेबुल नहीं हूँ ,अजय झा भाई कोर्ट के किसी सम्मन में फंसे ....किसी  प्रिय ने कहा कि मुझे आपसे भीड़ में नहीं अकेले मिलना है ....डॉ दराल साहब की क्लीनिक सुबह ९ बजे से ४ बजे तक रहती है ....बस रंजना भाटिया ( रंजू ) जी ,सीमा गुप्त जी ,एम वर्मा जी ,दर्शन बवेजा जी जैसे मुझसे मिलने के लिए ही तैयार बैठे थे ....सतीश जी ने कहा कि आप आईये  तो मिलने के लिए कम से कम मैं बेकरार हूँ! बहरहाल एक हसीन सी ब्लॉगर चाय पार्टी का  तसव्वुर लिए मैं आई सी ४०५ की उडान में सवार हो चला .मेरे साथ ,मेरे परम मित्र किन्तु ब्लॉगर नहीं मित्र एम एल गुप्ता जी को भी सम्मलेन में मेरे ही सत्र में एक पेपर  पढना था ..मगर उन्हें ब्लॉगर मीट का मतलब मैं समझा नहीं पाया ..उन्हें ब्लॉग किस चिड़िया का नाम है अब भी  पता नहीं है और उन्हें समझाने का मुझे वक्त नहीं मिला बल्कि कहिये उनके पास वक्त नहीं है .. ...वे बस अपने हाथ में एक बैग लटकाए जहाज में सवार हो लिए थे ..उनका मानना था कि लगेज बुक करने पर वहां वापसी लेने में बड़ी किच किच होती है और एक बार उनका बुक किया लगेज भी मिसप्लेस हो गया था, कई दिन बाद मिला .....इसलिए वे दिल्ली केवल एक हैण्ड बैग लटका के चलने के अभ्यस्त  हैं ...मैंने कहा भी कि दिल्ली में ठण्ड बढ चली है कुछ और गरम कपडे ले लीजिये तो उन्होंने कहा अगर ज्यादा ठण्ड लगी तो वहीं कुछ खरीद लेगें मगर समान बुक कर नहीं जायेगें..इधर मेरा हैंडबैग और जो स्ट्राली मैंने लगेज में बुक कराई गरम कपड़ों से ठसाठस भरे थे(सौजन्य श्रीमती जी ...) ..

दिल्ली तक की यात्रा एक घंटे २० मिनट में अच्छे स्नैक्स चाय /काफी के साथ पूरी हो गयी ..और विमान जब  लैंड होने के बाद अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे के टर्मिनल तीन से आ  लगा तो कामनवेल्थ के गेम के बाद की सजी सवरी दुलहन सी दिल्ली की मानो मुंह दिखाई हुई हो ....अद्भुत ,विस्मयपूर्ण दृश्य और यांत्रिकी ने हमारा  मन मोह लिया .....
अभी जारी है .....
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शुक्रवार, 3 दिसंबर 2010

मणिकर्णिका घाट पर पांच घंटे

बनारस काशी या वाराणसी नाम अलग भले हैं , स्थान एक और महात्म्य भी एक -भवसागर से मुक्ति की गारंटी! काशी के अनेक रंग हैं मगर मुक्तिदायिनी काशी का ही बोलबाला है -कहते हैं काश्याम मरणात मुक्तिः जो काशी में जीवन त्याग करता है वह मुक्त हो जाता है ....और काशी का यह  रंग  विगत एक दशक से मुझे अपनी ओर शनैः शनैः और भी आकर्षित करता रहा है .....मतलब जीवन की नश्वरता का भान उत्तरोत्तर और गुरुतर होता रहा है ....इन दस सालों में कितने ही स्वजनों  परिजनों को मैंने यहाँ अंतिम विदाई दी है .....मणिकर्णिका घाट पर उनकी जलती चिता को सलामी दी है ..याद पड़ता है वर्ष १९९९  में जब पिता जी को यहाँ मुखाग्नि दी थी और जलते हुए अनेक शवों को सामने देखा था तो जीवन से मानो वैराग्य हो उठा था....मगर आश्चर्य है कि फिर जगत गति में लीन  हो गया ...और  वही वैराग्य फिर फिर जोर मारने लगता है जब किसी स्वजन की अंतिम यात्रा में भाग लेता हूँ और उनके अंतिम संस्कार में शरीक होने मणिकर्णिका पहुँचता हूँ ....युधिष्ठिर से एक यक्ष प्रश्न यह भी पूछा गया था कि सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है तो युधिष्ठिर का जवाब था कि लोग शव यात्रा में भाग लेते हैं ..उस वक्त यही अहसास करते हैं कि एक दिन यहीं परिणति मेरी भी होनी है मगर दूसरे ही दिन से फिर से दुनियादारी में लीन हो जाते हैं ...


कल  सुबह ही पैतृक घर से माँ का फोन आ गया था कि फूफा जी(पिता जी की बहन के पति )  नहीं रहे ...फ़ूआ चार वर्ष पहले दिवंगत हुईं थी और गंगा के  मणिकर्णिका घाट पर उनके भी दाह संस्कार में मैं शामिल था ...और अब फूफा भी ..दोनों की असमय मृत्यु ...फ़ूआ  अपेंडिक्स -सेप्टिसीमिया और अब फूफा हार्ट फेल हो जाने से .असमय ही चल बसे .....उनकी अंतिम यात्रा की  प्रतीक्षा दिन भर करता रहा ..शाम को ६ बजे शव यात्रा बनारस पहुँची ....दाह संस्कार की लम्बी प्रक्रिया में रात्रि के पांच घंटे वहीं मणिकर्णिका पर बीते ....गंगा का मणिकर्णिका घाट विदेशी पर्यटकों के बीच बर्निंग घाट के रूप में प्रसिद्ध है क्योंकि वहां चौबीसों पहर अनवरत ,लाशें जलती रहती हैं .कहते हैं कि यहाँ की अग्नि विगत तीन हजार वर्षों से बुझी ही नहीं ...वहां का अग्नि कुंड लाशों की अग्नि से प्रज्वलित होता रहा है ..और वहीं से अग्नि निरंतर आ रही लाशों को भस्म करती रही है ...चिरतन ज्वाला है यह ,शाश्वत अग्नि !.......मणिकर्णिका का नामकरण कहते हैं तब पड़ा जब अग्नि कुंड में जली सती के मृत शरीर को लेकर घूमते विदग्ध शिव यहाँ भी पहुंचे और सती का  कर्ण फूल  यहाँ गिरा ....यहीं पर गंगा से पृथक किन्तु घाट से ही लगा एक आदि तीर्थ कुंड -चक्र पुष्करिणी है .जहाँ स्नान से सीधे मुक्ति का मार्ग  प्रशस्त हो उठता है मगर विधि की विडंबना देखिये अब इसमें पानी की एक बूँद भी नहीं है .....मरणं मंगलम यत्र सफलं यत्र जीवनं .......... यत्र सैसा  श्री मणिकर्णिका ....जहां मरना मंगलमय है और जीवन सफल वही मणिकर्णिका है ..ऐसा स्कन्द पुराण काशी खंड में वर्णित है .

फूफा जी के अब सहसा ही अनाथ हो गए दो पुत्र हैं ..बड़े २८  वर्षीय राघवेन्द्र शुक्ल और दूसरे कानपुर कृषि विद्यालय में पी एच डी कर रहे पंकज .....दिल्ली से राघवेन्द्र को आने में थोडा विलम्ब होने से अर्थी बनारस देर से पहुँची ..किन्तु विधान के अनुसार २४ घंटे के भीतर ही ....हमारे यहाँ मान्यता है कि पिता को मुखाग्नि ज्येष्ठ पुत्र जो शादी शुदा हो और जिसका यज्ञोपवीत हो गया हो (मतलब जनेऊ धारण करता हो ) वही करता है ....मगर पुरनियों ने विचार विमर्श कर कतिपय कारणों से  छोटे पुत्र पंकज को मुखाग्नि देने को आदेशित किया और झटपट उनको जनेऊ धारण कराया गया ...उनका मुंडन -केश प्रक्षालन  हुआ .....चिता सजाई गयी ....चन्दन और घी से उपचारित करने के बाद अग्नि कुंड से सरपत /नरकटों के बीच अग्नि स्फुलिंग लाकर दिया गया ..जिससे पांच बार परिक्रमा कर मुखाग्नि दे दी गयी ...सामान्यतः शव का पूर्ण दाह ढाई से तीन घंटे में होता है .....और तीन साढ़े तीन कुंटल लकडियाँ इस्तेमाल होती हैं .....जब तक शव का पूरा दाह नहीं हो गया ..हम सब वहीं शोकाकुल बैठे रहे ...शव दाह के उपरान्त जल कलश से कर्मकांड कर उसे पंकज ने पीछे की ओर गिरा कर फोड़ दिया ......दाह संस्कार पूरा हुआ ...

अब बारी थी गंगा स्नान की ..पंकज और कई और  लोगों ने  रात्रि के ११ डिग्री तापमान पर नंगे बदन वहीं बगल सिंधिया घाट पर स्नान किया .और हम जैसे विधर्मियों ने बस गंगा जल का छिडकाव कर अपना शुद्धिकरण किया ... कठिन कष्टप्रद कर्मकांड की प्रक्रिया पूरी करके सब लोग रात्रि ११ बजे जौनपुर रवाना  हो गए ..अभी तो अंतिम संस्कार के कई चरण पूरे होने हैं जिसका  तेरहवें दिन ब्रह्म भोज से,  जो पुरातनकाल में निश्चित ही ब्रह्म गोष्ठी रही होगी ....से समापन होगा ....मुझे पंकज को देखकर बार बार रुलायी आ जा रही थी जिस बिचारे पर अभी ही इतना बड़ा बोझ आ  पड़ा है  ...

 बर्निंग घाट मणिकर्णिका : यात्रा का आखिरी पड़ाव 
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कल से ही मन  खिन्न है .....वैराग्य भाव प्रबल हो उठा है ....अपनी भी  काशी में ही अंतिम  संस्कार की  नियति  तो सुनिश्चित है ...कब होगी नहीं पता मगर यहीं होगी देर सबेर ...वंश परम्परा अपना कर्तव्य निभाए  बिना तो  मानेगी. नहीं ..और मैं बेबस हूँ ..कुछ कर नहीं सकता ..इतनी चिरन्तन परम्परा से विद्रोह करना अपने बूते में नहीं ....



शुक्रवार, 26 नवंबर 2010

पूरब और पश्चिम के मिलन की एक यादगार घटना (..एक पारिवारिक पोस्ट )


 सुबहे बनारस 
नहीं ,सुबहे बनारस तो नहीं ,वह  तो एक रोजमर्रा सी सामान्य सी शाम थी  जब  सात समुद्र पार से प्रोफ़ेसर डॉ शिवेंद्र दत्त शुक्ल , मेरे बड़े श्याले (शब्द संदर्भ /सौजन्य :श्री प्रवीण पाण्डेय जी ) के फोन ने उसे घटनापूर्ण  बना दिया .उन्होंने सूचना दी कि उनकी एक पारिवारिक अमेरिकन मित्र एक विशेष मिशन पर भारत आ रही हैं और अपनी वापसी यात्रा में वे १ नवम्बर  से ४ नवम्बर ,१० तक वाराणसी दर्शन भी करेगीं .और हमें उन्हें अटेंड करना है .अब हमारे एक दशक के वाराणसी प्रवास ने हमें ऐसी स्थितियों के लिए काफी कुशल बना दिया है और इस जिम्मेदारी को हम बड़े संयम और समर्पण से पूरा कर लेते हैं ..क्योंकि हम यह मान   बैठे हैं  कि किसी को काशी दर्शन कराने के पुण्य का एक हिस्सा हमें भी स्वतः मिल जाता है .और इस तरह हमारे पुण्य की थैली (अगर ऐसी कोई संरचना होती हो )निरंतर भरती जा रही है ....यह मैं व्यंग में नहीं सच कह रहा हूँ !
 पूरब और पश्चिम के बीच सेतु बनी रेशम की (डोर) साड़ी :) 

मुझे जो आरंभिक जानकारी मिली उसी से ही लग गया था कि हेंडा  सल्मेरान एक जीवट की महिला हैं .वे एक ब्रेस्ट कैंसर सर्वाइवर हैं और अभी उनके आपरेशन के ज्यादा वक्त भी नहीं बीते कि वे हिमालय की १०० माईल दौड़ प्रतिस्पर्धा में भाग लेने भारत आ धमकी ..उनकी पूरी यात्रा दास्तान उनके ब्लॉग पर है.हिमालय स्पर्धा के बाद वे तयशुदा कार्यक्रम के मुताबिक़ पहली नवम्बर को ही वाराणसी आ गयीं  .मैं और बेटे कौस्तुभ उन्हें लेने के लिए एयरपोर्ट गए ...उन्होंने अमेरिकन लहजे और हमने पारम्परिक भारतीय हाव भाव सद्भाव से उनका स्वागत किया ...कहने को तो वे अपने च्वायस के एक होटल में  रुकीं मगर बस रात में वहां सोने के लिए ही ,बाकी तो उनके बनारस अवस्थान के चार दिन हमारे साथ ही पूरी तरह  से बीते ...सुबहे बनारस से लेकर दोपहर -शाम तक हमारे साथ यहाँ  की गलियों में घूमने ,शापिंग आदि में वे मगन रहीं .बनारसी साड़ी और भारतीय मसालों की तो पूरी दीवानी .. बनारसी साड़ी के प्रति उनकी जोरदार रुझान को देखते हुए उन्हें प्रियेषा और संध्या ने साड़ी पहनने की दीक्षा दी और ट्रेनिंग  की  साड़ी भी उन्हें उपहार में दे दी जिसे वे २४ घंटे पहने ही रह गयीं इस डर से कि अगर उतार दी तो फिर कैसे पहनेगी ..वे उसी में लिपटी सो गयीं और अल्लसुबह गंगा के किनारे उसे लपेटे  ही सूर्योदय देखने हमारे साथ चल पडीं ...भारतीय खानों में उन्हें पनीर के प्रेपरेशन काफी पसंद आये  जिसे वे चीज की एक किस्म समझती रहीं ..उन्हें परवल की कलौंजी भी पसंद आई ....रोटी का बनना भी वे विस्मय से देखतीं थीं ....
 मिलन सदाबहार पूरब  और रूपांतरित पश्चिम का 

मैंने एक बात गौर की ..संध्या और वे जल्दी ही बहुत घुल मिल गयीं जबकि भाषा का एक बड़ा अवरोध उनके बीच था ...दोनों एक दूसरे की भाषा में कुशल न होने के बावजूद भी लगा कि पुरानी मित्र हैं ..नारियों में जरूर संवेदना /संपर्क के ऐसे  तंतु होते होंगें  जो उन्हें भाषा का मुहताज नहीं बनने  देते ..यह मैंने साक्षात देखा ...कुछ चित्र जो मैंने उनके ब्लॉग   से ही उठायें हैं  पूर्व पश्चिम के इस यादगार मिलन की कथा खुद कह रहे हैं ......बनारस यात्रा के उनके संस्मरण  यहाँ है ,जिसे वे किश्तों में लिख रही हैं ! पहली किश्त को  उन्होंने बनारस के जाम (ट्रैफिक जाम ) और दूसरी को रेशम की साड़ी पर फोकस किया है .आगे का इंतज़ार है!


वे  उत्साह और ऊर्जा से लबरेज महिला हैं और उन जैसी सौम्यता और सहज व्यवहार मैंने बहुत कम महिलाओं में पाया है ...  बुद्धि चातुर्य में भी  उनकी कोई सानी नहीं ....भारतीयता के प्रति उनका समर्पण अचम्भित करने वाला था ..यहाँ अपने हाथों में मेहंदी लगवाकर वे बहुत प्रफुल्लित हो उठी थीं ....और मुझे दिखाने दोनों हाथ उठाये सरे बाजार तेजी से लपकती हुई मेरे पास आयीं तो अपने देशज भाई बन्धु भौचक से कभी उन्हें तो कभी हमें देख रहे थे.......हमने पूरे परिवार के साथ उन्हें रेड कारपेट वेलकम की ही तरह वेट आईज विदाई भी दी ....
प्रातः  दशाश्वमेध घाट, बनारस ,३ नवम्बर ,१० 

हेंडा सल्मेरान अब हमारे लिए बनारस की सुखद यादों का एक हिस्सा  बन गयी हैं ...

बुधवार, 17 नवंबर 2010

..और मैं बलि का बकरा बन गया ...... !

धार्मिक रीति रिवाजों के दौरान पशु पक्षियों की बर्बर ,नृशंस हत्या हमें अपने असभ्य और आदिम अतीत की याद दिलाती है .यह मुद्दा मुझे गहरे संवेदित करता रहा है .वैदिक काल में अश्वमेध यज्ञ के दौरान पशु बलि दी जाती थी ..आज भी आसाम के कामाख्या मंदिर या बनारस के सन्निकट विन्ध्याचल देवी के मंदिर में भैंसों और बकरों की बलि दी जाती है ..भारत में अन्य कई उत्सवों /त्योहारों में पशु बलि देने की परम्परा आज भी कायम है . नेपाल में हिन्दुओं द्वारा कुछ धार्मिक अवसरों पर पशुओं का सामूहिक कत्लेआम मानवता को शर्मसार कर जाता है .भारत में यद्यपि  हिन्दू त्योहारों पर अब वास्तविक बलि  के स्थान पर प्रतीकात्मक बलि देने का प्रचलन तेजी से बढ रहा है ....यहाँ तक कि अब अंतिम संस्कार से जुड़े एक अनिवार्य से रहे अनुष्ठान -वृषोत्सर्ग को लोग अब भूलते जा रहे हैं जिसमें वृषभ (बैल ) की बलि दी जाती है ...और कहीं अब यह अनुष्ठान दिखता भी है तो किसी बैल को दाग कर(बैंडिंग या मार्किंग )  छोड़ देने तक ही सीमित हो गया है .यह ट्रेंड  बता रहा है कि हम उत्तरोत्तर जीव जंतुओं के प्रति और सहिष्णु ,दयावान होते जा रहे हैं ..और मानवीय होते जा रहे हैं .

मैं अपने सभी मुस्लिम भाईयों और आपको आज बकरीद पर हार्दिक मुबारकबाद दे रहा हूँ मगर मेरी यह अपील है कि जानवरों को इतने बड़े पैमाने पर बलि देने और और बलि के तरीकों में बदलाव लाये जायं  .मुझे अभी एक दायित्व दिया गया था जिसके तहत मैंने उन जगहों का निरीक्षण किया जहाँ बड़े भैंसों और ऊँट की कुर्बानी दी जाती  है ...वहां के बारे में बताया गया कि ऊँट जैसे बड़े जानवर को बर्च्छे आदि धारदार औजारों से लोग तब तक मारते हैं जब तक वह निरंतर आर्तनाद करता हुआ मर नहीं जाता और उसके खून ,शरीर के अंगों को प्रसाद के रूप में ग्रहण किया जाता है -इस बर्बरता के खेल को  एक बहुत छोटी और बंद जगह में देखने  हजारों की संख्या में लोग आ जुटते हैं .प्रशासन की ओर से मजिस्ट्रेट और भारी पुलिस बंदोबस्त भी होता है ताकि अनियंत्रित भीड़ के कारण कोई हादसा न हो जाय .मुझे यह दृश्य कबीलाई जीवन के आदिम बर्बर मानवों की याद दिला देता है .मैं  उस जगह  बंधे भैंसों और एक बड़े ऊँट को देखकर डिप्रेस हो गया ....और जो बात मेरे मन में कौंधी वह यही थी कि क्या बलि के बकरों की कमी हो गयी थी जो मुझे भी वहां भेज कर बलि का बकरा बना दिया गया ...  उस दृश्य -संघात से मैं उबरने की कोशिश कर रहा हूँ .


आज जब वैज्ञानिक परीक्षणों में भी जीव हत्याओं पर पाबंदी और उनके जीवंत माडलों (सिमुलैटेड  माडल्स )  के विकल्प इस्तेमाल में लाये जा रहे हैं हमें धार्मिक रीति रिवाजों में भी पशु बलि को निरंतर हतोत्साहित करके अपने और भी सभ्य हो चुकने के प्रमाण देते रहने से चूकना नहीं चाहिए .माना कि मनुष्य की पाशविक विरासत है और यहाँ भी कभी जीवः जीवष्य भक्षणं की जंगल नीति थी मगर आज के मानव ने नैतिकता ,बुद्धि ,विवेक का जो स्तर छू लिया है उसके सामने ऐसे विवेकहीन और मानवता पर प्रश्न चिह्न लगाने वाले कृत्य शोभा नहीं देते .और अगर ये अनुष्ठान अपरिहार्य ही हो गए हैं तो हमें पशु बलि के प्रतीकात्मक तरीकों को आजमाने चाहिए .जैसा कि वैज्ञानिक प्रयोगशालों में अब प्रयोग के नाम पर एनीमल सैक्रिफायिस के स्थान पर माडल्स प्रयोग में आ  रहे हैं .

पूरी दुनिया में आदिम खेलों /मनोरंजन के नाम पर कहीं लोमड़ियों तो कहीं शार्कों और डाल्फिनों आदि की नृशंस समूह ह्त्या आज भी बदस्तूर जारी है .प्राणी सक्रियक इनके विरुद्ध गुहार लगा रहे हैं ,पेटा   जैसे संगठन हाय तोबा मचाये हुए हैं मगर उनकी आवाज अनसुनी सी ही है .रीति रिवाज के मामले बहुत संवेदनशील होते हैं मगर समुदाय के जाने माने पढ़े लिखे रहनुमाओं से तो यह अपील की ही जा सकती है कि वे इस दिशा में सोचें और एक बदलाव लाने की कोशिशें करें ...मानव सभ्यता आज जिस ठांव पहुँच रही है वहां पशु बलि का महिमा मंडन किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है ....

भारी संख्या में पशु बलि से उनके व्यर्थ अंग उपांगों के निस्तारण /साफ़ सफाई की भी एक बड़ी समस्या उठ खडी होती है .बहुत से लोगों को शायद  पता नहीं है कि पशु व्यर्थों के निपटान में नगरों महानगरों के सफाईकर्मियों के हाथ पाँव फूल जाते हैं और उनके लिए यह एक वार्षिक त्रासदी से कम नहीं होता .अगर साफ़ सफाई में चूक हुई तो संक्रामक बीमारियों की आशंका बलवती हो उठती है ...बकरीद से शुरू होकर क्म से कम तीन दिन तक गली कूंचों में पड़े पशुव्यर्थों का निस्तारण  उनके लिए एक बड़ी चुनौती लेकर आता है .बड़े पैमाने पर पशु बलि से जुडी इस हायजिन की समस्या से भी आंखे नहीं फेरी जा सकतीं .

जंगली जानवरों के शिकार को प्रतिबंधित करने के लिए बनाये गए कानूनों को आज जन समर्थन मिलने लगा है .भारत में १९७२ में बनाए गए वन्य जीव प्राणी अधिनियम  जंगलों में अवैध   शिकार को रोकने का एक सकारात्मक कदम रहा है और आज कई पशुओं को पकड़ने ,पालतू बनाने तक पर कड़े दंड का प्रावधान है .सलमान खान जैसे आईकन को इसी क़ानून ने तोबा बुलावा रखा है .आज बन्दूक की जगह तेजी से कैमरा लेता जा रहा  है ..भले ही शब्दावलियाँ और एक्शन समान हों हम आज बंदूकों को नहीं कैमरे को लोड करते हैं ,ट्रिगर दबाते और फायर / शूट करते हैं  ..आजादी के पहले  दूसरा ही परिदृश्य था ..राजा महराजे ,जागीरदार और छोटे मोटे रईस भी जंगलों में शिकार को चल देते थे-हांके  कराये जाते थे और डर कर भागते जानवरों पर निशाना साध कर बहादुरी की डींगे हॉकी जाती थी ..समय बदल गया है -अब ऐसे राजे रजवाड़ों के दिन भारत में तो कम से कम लद गए हैं -उनके साहबजादे कहीं कहीं चोरी छिपे अभी भी शिकार की घात लगाते हैं मगर क़ानून की जद में आ जाते हैं .आज जानवरों के शिकार पर कानून का भय है .मगर सामूहिक बलि के जानवरों को बचाने के लिए बिना एक व्यापक जान जागरण के कानून भी बनाना अभी शायद कारगर नहीं होगा .

वैदिकी हिंसा की प्रतिक्रया  में बौद्ध धर्म आ  संगठित हुआ था ...अहिंसा परमो धर्मः का निनाद फूट पडा था ....आज यज्ञों में आम तौर पर कहीं बलि नहीं दी जाती जबकि घर घर में यग्य अनुष्ठान होते ही रहते हैं -यह बौद्ध धर्म का ही प्रभाव है .जैन धर्म के अनुयायी मुंह में कपड़ा इसलिए बांधे रहते हैं ताकि मुंह में सूक्ष्म जीव कहीं न जाकर अपनी इह लीला समाप्त कर दें ....मगर दूसरी ओर जानवरों की आज भी सामूहिक बलि मन  को व्यथित कर जाती है ..

क्या इस बर्बरता को रोकने कोई और महामानव -एक नया बुद्ध जन्म लेगा ?






शुक्रवार, 12 नवंबर 2010

किसिम किसिम की पहेलियाँ!

जी हाँ, किसिम किसिम की पहेलियाँ!कालिदास  काल से लेकर अमीर खुसरो तक पहेलियों ने कई रूप रंग बदले हैं और अब अंतर्जाल युग की पहेलियाँ हमारे सामने हैं .पिछली पोस्ट पर अल्पना जी ने मार्के की  बात कही ,"अंतर्जाल पर हर तरह की पहेलियाँ उपलब्ध हैं..हिंदी ब्लॉग जगत में चित्र पहेली बहुत ही कॉमन हो गयी हैं .***लेकिन विवेक रस्तोगी जी की गणित की पहेलियाँ और रवि रतलामी जी की वर्ग पहेली ,सागर नाहर जी की संगीत पहेली[धुन आधारित ].... अपने आप में अलग हैं ***"
पहेलियाँ जिस भी काल की रही हों उनका उद्येश्य सदैव मानव मेधा को कुरेदना,ज्ञान के स्तर की जांच  ,प्रत्युत्पन मति(हाजिर जवाबी ) की परख  और वाक् चातुर्य के प्रदर्शन के साथ निसंदेह मनोरंजन भी था.

आज की इस  पोस्ट का मकसद पहेलियों की अपनी परम्परा के कुछ दृष्टान्तों को आपसे साझा करने की है.राजा विक्रमादित्य /भोज और कालिदास के काल की इन्गिति  करती कई पहेलियाँ संस्कृत साहित्य में  समस्या  पूर्ति के नाम से जानी जाती हैं .मतलब कोई एक वाक्य/पद्यांश  दे दिया जाता था और तुरत फुरत उसे पूरा करने को कहा जाता था .एक उदाहरण से बात स्पष्ट हो जायेगी .एक दिन राजा भोज ने दरबार में आते ही  सुना दिया ....
टटन टटन  टह टट टन टटन्टह 
सभी दरबारी भौचक ....आम तौर पर कालिदास  ही जवाब दे पाते थे . उन्होंने यह समस्या पूर्ति भी कर दी जैसे कि उन्हें कोई दिव्य ज्ञान सा हो ..जो दृश्य वे देखे तक नहीं रहते थे, कहते हैं वह उनके मन  मष्तिष्क में कौंध  जाता था ..उन्होंने जवाब दिया -
राज्याभिषेके जलमानन्त्या 
हस्ताच्युतो हेम घटो युवत्या 
सोपानमार्गे च करोति शब्दं 
टटन टटन  टह टट टन टटन्टह  

मतलब  राजा के अभिषेक के लिए सोने के घड़े में जल लाती युवती के हाथ से घड़े के गिरने से सीढ़ियों पर उसकी शब्द ध्वनि हुई -टटन टटन  टह टट टन टटन्टह! ऐसी समस्यापूर्ति के अनेक उदाहरण है जो किसी पहेली से कम नहीं लगते .ऐसे ही अनेक उदाहरण  हिन्दी में भी  हैं -जैसे कडी कडक गयी कड कड धप .... राजा भोज ने सोचा होगा कि नितांत वैयक्तिक और गोपनीय बात भला कैसे कोई बता पायेगा मगर कालिदास की दृष्टि तो त्रिकाल दर्शी और अन्तर्यामी थी ...जवाब दिया -
भोज प्रेम भर भयो भुजंग 
लिपटे लीलावति के अंग 
जब मद हुआ घोर गड गप्प 
कडी कडक गयी कड कड धप 

अब हिंडोले में प्रेम की  सघनता हिंडोले की कड़ियों को तोड़ दे तो इसमें क्या आश्चर्य  ..राजा भोज अवाक हुए और लज्जालु भी -विवरणों में ऐसा लिखा है .इन मनोरंजक समस्यापूर्ति/पहेलियों में मौलिक योगदान अमीर खुसरो ने किया ..उन्होंने अपनी विद्वताभरी मुकरियों के जरिये पहेलियों के साथ ही उनका उत्तर भी बड़े ही संवेदनापूर्ण और साहित्यिक लहजे में दिया ...दो घनिष्ठ सहेलियों की आपसी बतकही को उन्होंने इन पहेलियों का शिल्प आधार बनाया  -
रात समय वह मेरे आवे
भोर भये वह घर उठि जावे
यह अचरज है सबसे न्यारा
सखि साजन? ना सखि तारा

 नंगे पाँव फिरन नहिं देत
पाँव से मिट्टी लगन नहिं देत
पाँव का चूमा लेत निपूता
सखि साजन? ना सखि जूता
 
 अब इनमें एक सहेली की तो  बस साजन  उन्मुखता प्रबल है मगर दूसरी का बुद्धि चातुर्य देखिये वह साजन -निरपेक्ष रहकर बुद्धि चातुर्य से सखी को चिढ़ा सी भी रही है  .अमीर खुसरो ने कुछ पहेलियाँ ऐसी स्टाईल में पूछी जो आज के बच्चे किशोर-युवा जाने अनजाने इस्तेमाल में लाते हैं -जैसे 
जूता पहना नहीं
समोसा खाया नहीं
उत्तरतला था
 
रोटी जली क्यों? घोडा अडा क्यों? पान सडा क्यों ?
उत्तरफेरा था

और  कई यहाँ है मनोरंजन कर सकते हैं .और एक निन्यानवे पहेली का चक्कर यहाँ भी चला है.आगे भी बीरबल और अकबर की नोक झोक में कई पहेलियों का आनन्द मिलता रहा ...जिन पर शायद फिर  कभी चर्चा करुँ ..मेरा पहेली पोस्ट टाईम खत्म होता है अब .......  

गुरुवार, 11 नवंबर 2010

पहेलियाँ तो मेरे पिता जी बूझा करते थे और वह भी बिना गूगलिंग किये .....

कल से यहाँ एक पहेली जी का जंजाल बनी हुई है. मुझे लगता है कि वह जमाना जल्दी ही आ जायेगा जब बिना गूगलिंग किये किसी  भी माई के  लाल या लल्ली का पहेली बूझना संभव नहीं रहेगा ...तब के बच्चे शायद  शरद जोशी प्रेरित नए  टी वी सीरियल लापतागंज के एक पात्र की ही तरह जुमले उछालेंगें -पहेलियाँ तो मेरे पिता जी बूझा करते थे और वह भी बिना गूगलिंग किये .....पहेलियों के अंतर्जाल युग ने पहेलियों के चिर प्राचीन शगल को अब नए संस्कार दिए हैं -जहां आपके मौलिक अध्ययन और ज्ञान के बजाय इस बात की स्पर्धा हो रही है कि कौन गूगल या दूसरे किसी भी सर्च इंजिन पर ज्यादा तेजी और कुशलता के साथ पहेली का उत्तर ढूंढ पाता है ..मजे की बात तो यह है कि इस समय हिन्दी ब्लॉग जगत में ऐसे कई ब्लॉग है जहाँ पहेलियों की बहार दिखती है और सदाबहार पहेलीकर्ता और पहेली ज्ञानी केवल और केवल गूगल सर्च इंजिन पर निर्भर हैं -मतलब न तो पहेलीकर्ता अपनी पहेली की अंतर्वस्तु (कंटेंट )से खुद मुतमईन है और न बूझने वाला -मानव बौद्धिकता का यह क्षरण दुखी करता है ...यह हमें ही नहीं हमारी आने वाली पीढी की जुगुप्सा ,सहज जिज्ञासा और प्रतिभा के परीक्षण के लिए निश्चय ही एक शुभ लक्षण नहीं है ..

पहेलियों के मामले में तो होना  यह चाहिए कि पहेली बूझने वाले का खुद का अपना विपुल अध्ययन हो और वह पहेली में रूचि रखने वालों -प्रतिभागियों /प्रतिस्पर्धियों से प्रत्येक से यह घोषणा करवाए कि वे उत्तर अपने अद्यतन ज्ञान के आधार पर खुद देगें अन्यथा पास कर /कह देगें ....वे गूगल या अन्य किसी सर्च इंजिन का सहारा नहीं लेगें ....बौद्धिकता ,अध्ययनशीलता और ज्ञान की श्रेष्टता का तकाजा तो यही है ..या फिर पहेली पूछने  वाले ब्लॉग  अब पहले ही यह घोषणा करें कि वे किस तरह के पहेली बूझने वालों को आमंत्रित कर रहे हैं -मौलिक प्रतिभा वालों को या फिर गूगलिंग कर पहेली का उत्तर बताने वालो को  ...आशय यह कि पहेली पूछना या बूझना दोनों ही हंसी ठट्ठा न बन कर एक गंभीर और उत्तरदायित्वपूर्ण खेल /शौक का रूप ले ...यह व्यक्ति के निजी अध्ययन को बढ़ाने के लिए प्रेरणा दायक बने न कि उसे बात बात पर नक़ल करने को उकसाए -यह तो प्रतिभा का अवमूल्यन   ही हुआ न ! 

सामान्य ज्ञान दरअसल  असमान्य रूप से विपुल ज्ञान की अपेक्षा रखता है .मतलब एक तरह से कहें तो एनी थिंग अंडर द सन .....अब ऐसा न कहें कि ऐसे लोग संसार में है ही नहीं ..मुझे याद है बी बी सी की एक प्रतियोगिता टी वी पर आती थी उसमें ऐसे धुरंधर प्रतिभागी होते थे जो सेकेंड्स में किसी भी प्रश्न का उत्तर लिए हाजिर होते थे -ऐसे लोग दुनियां में आज से नहीं अरसे से हैं जिनके लिए हम चलते फिरते ज्ञानकोष की उपमा देते आये  हैं .जबकि हिन्दी ब्लॉग जगत की पहेलियाँ मनुष्य की इस विलक्षणता का निरंतर अपमान  कर रही हैं ....

ब्लॉग जगत में पहेलियों के आगाज का काम संभवतः ताऊ रामपुरिया  ने किया और फिर कई दीगर ब्लागों ने यह सिलसिला शुरू किया जिसमें तस्लीम भी अग्रणी रहा ..मैंने वहां पहेली परम्परा शुरू की और ज्यादातर पहेलियों की सामग्री  मैं गूगल के बजाय प्रकृति से खुद जुगाड़ता और  पाठकों के सामने प्रस्तुत करता ....केवल यह परखने के लिए कि देखें भला कि हमारा हिन्दी ब्लॉग जगत इनका उत्तर दे भी पाता है या नहीं ..मुझे आश्चर्यमिश्रित आनंद  होता था जब कोई न कोई सही उत्तर दे जाता था जबकि वे चित्र गूगल पर होते भी नहीं थे-उन आरंभिक पहेली बूझने वालों में निश्चय ही अल्पना वर्मा जी और सीमा गुप्ता जी का नाम अग्रणी हैं मगर लगता है अब उनका भी ज्ञान चुक सा गया है और अब वे भी गूगल महराज के ही रहमो करम पर ही हैं  :) लेकिन ऐसा है भी तो मैं उन्हें दोषी नहीं मानता क्योकि उन्हें ऐसा करने के लिए पहेली पूछने वालों में  गूगल की पीढी का तेजी से अवतरित होना है जो अपने चित्र प्रकृति या मौलिक नए स्रोतों से नहीं बल्कि गूगल से ही कट पेस्ट कर प्रस्तुत करते हैं .......

अपने ज़माने के एक हास्य-व्यंगकार जी पी श्रीवास्तव ने एक रोचक लोक चरित्र   लाल बुझक्कड़ को प्रचारित किया जो हर किसी पहेली को बूझने को लालायित रहते थे....उनके गाँव मे लोग औसत स्तर की बुद्धि से भी पैदल हुआ करते थे और इसलिए लाल बुझक्कड़ जी की बड़ी इज्जत ,मान  मर्यादा थी ....कहावत ही है कि निरस्त पादपे देशे एरंडो अपि द्रुमायते  मतलब जहाँ पेड़ न रूख वहां रेड़ ही महापुरुष मतलब अपने लाल बुझक्कड़ जी ....और जानते हैं वे पहेली कैसे हल करते थे-एक ठो  एक्जाम्पल देखिये -
उनके उस अद्भुत या अभिशप्त गाँव में से  एक रात हांथी गुजर गया -सुबह गाँव वालों में जमीन पर हाथी के पैरों के बड़े बड़े निशानों को देखकर खलबली मच गयी -अरे देखो देखो ये कैसे निशान हैं .....उन मूर्खों की समझ में तो आना था नहीं ..थक हार कर लाल बुझक्कड़ बुलाये गए ..वे बिना बुलाये आते नहीं थे  मगर बुलाये जाने के लिए  बेताब  रहते थे....   उन्होंने काफी देर तक जाँच परख की और अपने चेहरे पर एक बड़ी समस्या के हल करने के खुशी के इजहार का प्रोफेसनल भाव लाते हुए उद्घोषित किया -
लाल बुझक्कड़ बूझते और न बूझे कोय 
पैर में चक्की बाँध कर हिरन न कूदा होय 

गाँव वालों ने इस उत्तर का पहले की ही तरह हर्षोल्लास से स्वागत किया .....आज हिन्दी ब्लागजगत की हालत यह है कि यहाँ नित पहेली बुझाने वाले लाल बुझक्कड़ पैदा हो रहे हैं ..जिन्हें खुद ही पता नहीं कि वे पूछ क्या रहे हैं ....विगत दिनों मुझे रात ९ बजकर पचास मिनट पर एक पहुंचे हुए अंतर्जाली पहेली बूझक का मेल आया -दुहाई हो दुहाई हो मिश्रा जी जरा अमुक जगह  जाकर  पॉँच मिनट में यह बताईये प्लीज कि यह जानवर कौन है ? जहाँ  पहेली पूछने वाले ने ही गूगल से गलत चित्र लगा दिया था ....बहरहाल मित्र के लिए आखिर कौन  सी कुर्बानी न दी जाय  ..... एक  मिनट के अन्दर उन्हें मेल पर सही जवाब भेज दिया ..धन्यवाद आज तक प्रतीक्षित है ....गूगल पर इतना भरोसा भी ठीक नहीं है .
जारी है ......

सोमवार, 8 नवंबर 2010

बालक सुरेन्द्र गौड़ से मैं प्रभावित हुआ! इस नन्हे से बच्चे के हुनर की सराहना कीजिये!

अब तक के अपने २७ वर्षों के सुदीर्घ सेवाकाल में मैं दीवाली और होली अपने पैतृक आवास पर ही सपरिवार मनाता  आया हूँ ,इस अवसर पर अधिकारियों को मिलने वाले दस्तूरी गिफ्ट पैकेटों की परवाह किये बिना : ) ....मुझे गाँव में ऐसे अवसरों पर स्वजनों से मेल मिलाप का जो संतोष -धन मिलता है उसके सामने सचमुच ही अन्य प्रकार के सभी धन धूरि समान ही लगते हैं .घर पर गाँव के लोगों से भेट मुलाकात और अपने बचपन के साथियों से भूली बिसरी बातों का जिक्र लगता है जीवन में एक नई उर्जा ही समाविष्ट कर देता है ..बच्चों से तो मेरी खूब पटती है ,लगता है खुद मेरा बचपन ही लौट आया हो ..बच्चे मुझे घेरे रहते हैं और मैं बच्चों को ....मगर इस बार सब कुछ फीका रहा ..पड़ोसी श्रद्धेय बुजुर्ग के देहावसान के कारण शोकाकुल कुनबे ने इस बार दीवाली नहीं मनाई....मतलब आतिशबाजी का दौर भी नहीं हुआ ..दीवाली के दिन बच्चों का मायूस सा चेहरा मुझे कचोटता रहा ...अब उन्हें समझाएं भी तो क्या ..थोड़े बड़े बच्चे तब भी मौत का अर्थ समझ रहे  थे मगर ४-७  वर्ष वाले बार बार पिछली बार की आतिशबाजी छुड़ाने की  जिद पकडे रहे ..बहरहाल .....किसी तरह उन्हें बहलाया फुसलाया गया ...
 मिनिएचर खटिया 

इसी दौरान किसी बच्चे ने बताया कि भैया , सुरेन्द्र बहुत अच्छी खटिया  बनाता है ...और फिर  सकुचाते  शर्माते सुरेन्द्र की पेशी हुई. वे अपने चर्चित उत्पाद के साथ हाजिर हुए ...उन्होंने एक उस  ग्राम्य साज सामग्री का मिनिएचर बनाया है जिसे बनारस अंचल में  चारपाई ,बसहटा,खटिया आदि कहते हैं .(अरे वही खटिया जिसे लेकर एक मशहूर भोजपुरी गाना है न ..सरकाई लो खटिया जाड़ा लगे )  -भारत की ८० फीसदी ग्राम्य जनता अभी भी इसी खटिया नामक   शैया  पर रातें गुजारती है ..जो लोग गावों से उतने वाकिफ नहीं हैं उन्होंने इसे रोड साईड ढाबों पर देखा होगा जिन पर अक्सर ट्रक ड्राईवर बैठकर खाना खाते हैं ....और मैं सुरेन्द्र की बनायी हुई मिनिएचर खटिया देख , बुनाई की बारीकी देख कर दंग रह गया ....कितनी कलात्मकता से इस छोटे से बच्चे ने इस काम को अंजाम दिया था ..उसकी उम्र से बड़े बच्चे  जहाँ अपना समय खेलने कूदने में ज्यादा लगाते हैं -उसी समय में से ही कुछ क्षण यह अपने इस हुनर को आजमाने में लगाता है .
 भीड़ में अलग सुरेन्द्र गौड़ 
मेरे पूछने पर उसने बताया कि उसे यह रूचि स्वयमेव उत्पन्न हुई ..किसी ने सिखाया नहीं . उसने खुद  से ही ट्रायल एरर से सीखा है ...उसके हाथ की बनायी यह मिनिएचर खटिया अब डिमांड में है जो वाल हैंगिंग या डेकोरेशन पीस के रूप में इलाके में  लोकप्रिय हो रही है ..मैंने उससे पूछा कि क्या मेरे लिए भी तुम यह खटिया बनाओगे तो वह सहर्ष तैयार हो गया .....मैंने कहा एक नहीं चार ....तो उसके चेहरे पर चिंता के भाव आ गए .....मैंने पूछा कि क्या बनाने में ज्यादा समय लगेगा तो उसने बताया कि नहीं एक खटिया तो एक घन्टे में वह बना लेता है मगर उसके पास बस एक खटिया का ही ऊन  बचा है ..मैंने उसे कुछ पैसे दिए और अगले ही दिन उसने मुझे चार खूबसूरत सी मिनिएचर पलंगें   ला पकडाई  .
स्वनिर्मित मिनिएचर खाटों के साथ सौम्य सुरेन्द्र

मेरे बगल के जिले भदोही जिसे भारत का गलीचा शहर (कारपेट सिटी ) कहा जाता है ,में करीब एक दशक पहले एक बड़े आन्दोलन में बच्चों को कारपेट उद्योग से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया  था ...जबकि उनके हाथ से बुने गलीचों की गल्फ देशों में बड़ी डिमांड थी ..क्योकि उनकी बुनाई बड़ी महीन और काम साफ होता  था  ...मगर तब यह फितूरबाजी हुई थी कि खेलने खाने के  उम्र के बच्चों के श्रम का शोषण हो रहा है और अब तो बाल श्रम शोषण पर कड़े कानून भी हैं -मगर सुरेन्द्र की स्वतःस्फूर्त प्रतिभा ने मुझे यह सोचने पर विवश किया है कि क्या जन्मजात प्रतिभाओं को ,उनके तकनीकी रुझान या दक्षता को हमें प्रोत्साहित नहीं करना चाहिये ? मुझे तो सुरेन्द्र का हुनर उसके टेक्नोलोजी टेम्पर की झलक दिखा गया ....अब उसकी इस नैसर्गिक प्रतिभा को हम अगर बाल श्रम शोषण के बहाने विकसित होने से रोक दें तो क्या उसके साथ अन्याय नहीं होगा ?और हम कहते हैं कि हमारे देश में बेरोजगारी की भीषण समस्या है ..जो सच भी है ...अब आप ही बताईये कि सुरेन्द्र के साथ हमारा ,स्टेट का और समाज का क्या बर्ताव  होना चाहिए ? 

गुरुवार, 4 नवंबर 2010

बीन बैग्स पर बैठ कर बिग बास देखने का मजा ही कुछ और है!

अभी उसी ही दिन तो कौस्तुभ उर्फ़ मिकी  ने बिग बास में एक  विचित्र से कुशन नुमा मोढ़े पर बैठे हुए खली द महाबली की ओर इशारा करके कहा कि पापा यह बीन बैग खरीद लीजिये न -यह बैठने में बड़ा ही आरामदायक  होता है ... मैं उस विचित्र सी संरचना को लेकर जिज्ञासु हो उठा ....क्या कहते हैं इसे ...?
"बीन बैग" 
"यह कैसा नाम,इसे बीन बैग क्यों कहते हैं ?"
"इसमें बीन भरी होती है " 
"मतलब ,इसमें राजमा या सेम आदि के दाने भरे होते हैं ?"
"हाँ ..शायद ....पता नहीं .."
"धत ,क्या फ़ालतू बात करते हो -नेट पर सर्च करो .." फिर जो जवाब आया उसे मैं आपसे यहाँ भी बांटना चाहता हूँ ...
बीन बैग एक पोर्टेबल सोफा है जिसे आप अपनी सुविधानुसार किसी भी तरह का आकार प्रकार दे सकते हैं ,वजन में फूल की तरह हल्का ,बस विक्रम वैताल स्टाईल में कंधे पर टांग लीजिये और जहां भी चाहिए धर दीजिये और पसर जाईये ...इसमें जो कथित "बीन"  है वह दरअसल इसे ठोस आधार देने के लिए इसमें भरा जाने वाला कृत्रिम बीन-सेम या राजमा के बीज जैसी पी वी सी या पालीस्टिरीन पेलेट होती हैं जो बेहद हल्की होती हैं! वैसे  तो बीन बैग्स के बड़े उपयोग है मगर हम यहाँ इसके बैठने के कुर्सीनुमा ,सोफे के रूपों  की चर्चा कर रहे हैं .हो सकता है कि इस तरह के बैग नुमा मोढ़े के आदि स्वरुप में सचमुच सेम या अन्य बीन की फलियाँ ही स्थायित्व के लिए कभी  भरी गयी हों मगर अपने अपने हल्के फुल्के रूप ये पाली यूरीथीन फोम जैसे हल्के पदार्थ के बीन -बीज/दाने  नुमा संरचनाओं से भरी हुई १९६० -७० के दशक में अवतरित हुईं -मगर ज्यादा लोकप्रिय नहीं हुईं ...और लम्बे अरसे के बाद फिर १९९० के दशक और फिर अब जाकर तो इनका तेजी से क्रेज बढ़ा है .

हमने धनतेरस पर इस बार बीन बैग्स का एक जोड़ा लिया है ..आप अपने शहर में या फिर आन लाईन भी मंगा सकते हैं ...हमें तो यह स्पेंसर शो रूम में प्रमोशनल आईटम सेल्स के बतौर  १४०० रुपये में जोड़ा ही मिल गया है मगर इस साईज का केवल एक ही बैग १४००-१५०० का बाजारों में उपलब्ध है ...थोडा महंगा तो है मगर    सच्ची है बहुत ही आरामदायक ..मेरी पूरी सिफारिश है इसके लिए  -प्रोडक्ट संतुष्टि का पूरा वायदा है इसमें ...

कल बीन बैग्स आये नहीं कि माँ बेटी उसी पर विराजमान हो बिग बास देखने बैठ गयीं ....उनका कहना है कि बीन बैग्स पर बैठ कर बिग बास देखने का मजा ही कुछ और है! 

जीवन शैली और खानपान

मंगलवार, 2 नवंबर 2010

झूमने की भी कोई उम्र होती है क्या?

उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनाव संपन्न हो गए .पंचायती राज व्यवस्था में ग्राम्य सरकारों का जो स्वप्न कभी गांधी  जी ने देखा था ,कालांतर में संविधान के तिहत्तरवें संशोधन के जरिये  पूर्व- प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने उसे साकार कर दिया .आज ग्राम्य सरकारों के रूप में हमारे पास त्रिस्तरीय पंचायती व्यवस्था है -ग्राम पंचायत ,क्षेत्र पंचायत और जिला पंचायत जिस में  सीधे  जनता से चुने प्रतिनिधि विभिन्न पदों पर विराजमान होते हैं -सबसे महत्वपूर्ण उसमें है ग्राम प्रधान का पद जिसे आप पंचायती व्यवस्था का बादशाह या बेगम का पद कह सकते हैं -और सबसे ज्यादा सक्रियता ,तामझाम इसी पद के चुनाव के लिए हुआ -मात्र ग्राम प्रधान बनने के लिए लोगों ने लाख लाख रूपये मतदाताओं की सेवा सुश्रुषा में खर्च कर दिए ...खाने पीने  की दिव्य व्यवस्थायें की गयीं -कई जगह पी पीकर लोग झूमते नजर आये -मिलावटी शराब ने पूर्वांचल में कई मतदाताओं को वोट देने के पहले स्वर्ग का द्वार दिखा दिया तो कई प्रत्याशी लोकतंत्र की देहरी के बजाय जेल के लौह दरवाजों को पार कर गए ...इसी आपाधापी के बीच एक दिन एक गाँव में कुछ बच्चे झूमते हुए मिले -पाउच का प्रभाव  प्रत्यक्ष  था ....बच्चे जिनकी वैधानिक उम्र भी पीने की नहीं है ..ग्राम प्रधानी के चुनाव में प्रतिबंधित पेय का चस्का लेते पाए गए ....

तभी मन  में कौंधा था कि आखिर पीने की वैधानिक उम्र क्या होती है ..फिर एक दिन टाइम्स आफ इंडिया ने यही सवाल उठाया कि (शराब ) पीने की वैधानिक उम्र क्या है ? क्या आपको पता है पीने की वैधानिक उम्र ? क्या समीर और सतीश भाई इस जानकारी से रूबरू हैं ? सतीश सक्सेना जी ,दिल्ली में पीने की वैधानिक उम्र क्या है ? और समीर जी, कनाडा में ? उत्तर प्रदेश में लिक्कर की दुकाने इसे १८ वर्ष बताती हैं ....मगर दिल्ली में कहते हैं यह २५ वर्ष है! मगर उत्तर प्रदेश में आबकारी विभाग की अधिकृत सूचना है कि यह २१ वर्ष है ,यह तबसे २१ वर्ष है जब मतदाता की आयु २१ वर्ष मानी गयी थी .मगर बाद में मतदाता  की आयु १८ वर्ष हुई तो लोगों ने सहज तर्क से पीने की उम्र भी २१ वर्ष के बजाय १८ वर्ष मान  ली है ..नियम के मुताबिक़ उत्तर प्रदेश में कोई भी व्यक्ति जो २१ वर्ष के नीचे हो वह न तो शराब खरीद सकता है और न ही उसका सेवन कर सकता है ..दूसरा प्रतिबन्ध वर्दी मे कर्मचारियों के लिए है- वे भी शराब खरीद नहीं सकते या खरीदने जायं तो उन्हें नहीं दी जा सकती ...और सार्वजनिक स्थल पर तो मद्यपान किसी भी लोक सेवक के लिए निषिद्ध है!
मुझे इस विभाग  की बारीकियों की बरोबर जानकारी नहीं है -मेरे एक दो मित्र जो इस मोहकमें में हैं वे भी किसी काम के नहीं हैं -जैसे ब्रांड इत्यादि की जानकारी और उनके तुलनात्मक स्वाद आदि पर मेरे कौतूहलपूर्ण सवालों का जवाब देने के बजाय वे मौन साध जाते हैं ..मैं उलाहना देता हूँ कि यार इस मोहकमें में होने के बाद भी आप इसका स्वाद नहीं चखते तो कहते हैं यह हमारी सेवा शर्तों में एक अनिवार्य प्रावधान नहीं है ,,,और मुझे ही चुप रह जाना होता है .मेरी भी जानकारी इस नशीले सपनीले संसार के बारे में इससे अधिक नहीं है कि जिन नामक/ ब्रांड मद्य महिलाओं में प्रिय है ,रम ज्यादा तेज होती है और व्हिस्की ज्यादा अभिजात्य मद्य का प्रकार है तथा शैम्पेन आदि खुशी  के बड़े मौकों के लिए है ....जाहिर है मैं इस डोमेन के लिए पूरा लल्लू ही हूँ मगर मैं स्प्वायल्ट  स्पोर्ट नहीं हूँ ,प्यार से कोई टोस्ट आफर करता है तो समूह चेतना के नाम पर एकाध पैग ले लेता हूँ मगर अगर होस्ट मद्य पारखी नहीं हुआ तो बिना अंगूर की बेटी की तारीफ़ सुने मन  मसोसना भी पड़ जाता है ..मैं समझता हूँ ब्लॉग जगत में ऐसे अनाडी होस्ट नहीं होंगें या कमतर ही होंगे .

आखिर हालात ऐसे न हों तो फिर मजा काहे का ...कि साकी शराब दे कह दे शराब है! उम्मीद है कि आपकी उम्र २१ वर्ष से कम नहीं है ! 

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