शुक्रवार, 28 जनवरी 2011

मृतकों से कैसा संवाद!

सोते रहिये ब्लॉगर भाईयों -...हम सैकड़ो साल ऐसे ही गुलाम नहीं रहे ...राष्ट्रीय मुद्दों की आकस्मिकता के बजाय लोग अपने आमोद प्रमोद घर परिवार और प्रेम प्रणय मनुहारों में लगे रहते आये हैं तो अगर हमारे ब्लॉगर भाई भी अपने इस सनातन चरित्र का निर्वहन कर रहे हैं तो किम आश्चर्यम? आश्चर्य है लाल लाल चौक पर तिरंगे के मुद्दे ने कईयों को संवेदित नहीं किया -न तो खाए पिए अघाए लोगों को और  न ही शायद उचित ही  गमें  रोजगार,गमें मआश से मारे लोगों को ..कुछ तटस्थ  खड़े तमाशे देखते रहे और फिर अपने बाल बीबी बच्चों की फ़िक्र में लग गए तो कुछ अपने ही जयचंद अलग ढपली अलग राग बजाते रह गए ...एक और गुलामी करीब से दस्तक देकर  चली  गयी दुबारा आने और शायद रुकने के लिए भी ..तो क्या आप कहीं उस कटेगरी में तो नहीं जो अभी तक भी  कुछ नहीं समझे ?  - तो जाईये पूरी बहस को पढ़िए .आज तो बहस का समापन है -

लाल चौक पर तिरंगे को फहराए जाने का राज्य द्वारा विरोध अखंड भारत के  इतिहास का एक काला दिन बन गया है -मैंने जनपक्ष पर इस बहस का उपसंहार करते हुए लिखा है  -

लाल चौक पर तिरंगा! बहस का समापन
१-स्पष्ट है यहाँ विमर्श रत लोग अपने अपने निहितार्थों के चलते वैचारिक खेमे बना लिए हैं ....कुछ को तो जम्मू कश्मीर सरकार का ब्रैंड अम्बेसडर पद आसानी से हासिल हो जाएगा ..और उन्हें बिना देर आवेदन कर देना चहिये .......
२-कुछ भावना विहीन लोग लोगों की सहज भावनाओं का मजाक उड़ाते फिर रहे हैं -यह भूल गए की इसी झंडे के लिए कितनी जाने लोगों ने न्योच्छावर कर दी ....शहीद सैनिक का शव इसी तिरंगे में यूं ही नहीं सहेजा जाता  .... आधुनिक वृहन्नलाओं की पहचान ऐसे ही मौकों पर होती हैं...
३-यहाँ सायास अयोध्या का मुद्दा लाने की भी कोशिश हुयी है -मन का चोर सारे राज खोल रहा है -स्पष्ट है कुछ लोग गहरे ब्रेन वाश हो चुके हैं -निज समाज पहचान से कटे हुए भ्रमित लोग ..जिनसे सचमुच समाज राष्ट्र को कोई   अपेक्षा नहीं करनी चाहिए
४-अध्ययन ,वक्तृता का ऐसा पतन कहीं माँ सरस्वती को भी गहरा सदमा देता ही होगा -
..सर धुन गिरा लाग पछताना
अंततः
जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है वह नर नहीं है पशु निरा है , और मृतक समान है ! ...

और मृतकों से कैसा संवाद ?

 मित्रों संविधान के अपमान को ,अपने तिरंगे के अपमान को हम कैसे बर्दाश्त कर सकते हैं -झंडा संहिता भी तार तार हो गयी ..आज तो यह तात्कालिक प्रतिक्रिया है ..हम इस मुद्दे पर सिलसिलेवार जल्दी कुछ लेकर आ रहे हैं ..तनिक इंतज़ार करिए ....


मंगलवार, 25 जनवरी 2011

तिरंगे का अपमान हमारा खुद का अपमान है ....


जम्मू कश्मीर के दो झंडे हैं -एक राज्य का झंडा और दूसरा झंडा है अपना तिरंगा! अपने तिरंगे को वहां दोयम दर्जा मिला हुआ है. लाल चौक पर हमारे आन  बान शान   की निशानी तिरंगे को  फहराने को  लेकर गतिरोध  कायम है -मुल्ला उमर  कृत -संकल्पित हैं कि वे इसे फहराने नहीं देंगे और वह भी गणतंत्र दिवस के दिन ..यह एक दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है ....मतलब हम अपने ही देश में अपना तिरंगा नहीं फहरा सकते ...मुट्ठी भर अलगाववादियों के आगे वहां की सरकार ने घुटने टेक दिए हैं ....नए नए तर्क गढ़े जा रहे हैं ..नई पेशबंदियाँ और दुरभिसंधियाँ बन रही है ..सारा राष्ट्र इसे बेबसी और बेकसी से देख रहा है ..यह भारत की संप्रभुता पर फिर एक प्रहार है.

ब्लॉगर मित्रों ,ऐसे समय शुतुरमुर्गी व्यवहार के नहीं होते ..एक राष्ट्रवादी होने के नाते आप इसका विरोध नहीं करते तो  आप अपनी मातृभूमि और अपने जमीर के साथ धोखा करते हैं ...अन्यान्य विमर्श तनिक स्थगित कीजिये ..राष्ट्र के आह्वान पर कुछ तो बोलिए ..यह समय चुप रहने का नहीं है मुखर हो जाने का है ... अगर हम लाल चौक पर तिरंगा नहीं फहरा सके तो स्वतंत्र भारत का यह काला दिन होगा ....चाहे जो भी हो, अपने ही देश में  अपने स्वाभिमान के प्रतीक झंडे को सम्मान न दिला पाने के विरोध में दिए गए सारे तर्क भोथरे हैं ....

मुझे याद है १९९२ में मुरली मनोहर जोशी ने महज यह सन्देश देने के लिए कि कश्मीर भारत का ही एक अविभाज्य अंग है लाल चौक और फिर १९९३ में गणतंत्र दिवस पर कन्याकुमारी में  गांधी मंडप पर  तिरंगा फहराया था ..मेरा सौभाग्य था कि मैं उस समय कन्याकुमारी में मौजूद था ...सच मानिए मित्रों रोम रोम पुलकित हो गया था -यह अनुभूति ही कि कश्मीर से  कन्याकुमारी तक  भारत एक है मन  प्राण को एक उमंग और रोमांच से भर देता है ...यह यात्रा भारत की एकात्मता की प्रतीक यात्रा थी ...एक सन्देश कि कश्मीर से कन्याकुमारी तक हम एक हैं ...ऐसे क़दमों  के राजनीतिक निहितार्थ भले हों मगर इनका एक मकसद निश्चित ही अलगाव वादी ताकतों के सामने अपनी एक जुटता प्रदर्शित करने का है ..

न न मित्रों यहाँ कोई लफ्फाजी नहीं है बस आपसे एक अपील कि चुप न रहिये मुखर होईये और लाल चौक पर तिरंगा फहराने का विरोध करने वालों के विरुद्ध जनमत तैयार कीजिये -तिरंगे का अपमान हमारा खुद का अपमान है ....

रविवार, 23 जनवरी 2011

आम दर्शकों के लिए धोबीपाट है धोबीघाट !

भारतीय  क्लासिक कुश्ती -कला का एक मशहूर दांव है धोबीपाट जिसमें जब तक प्रतिद्वंद्वी को कुछ समझ आये वह  चारो खाने चित्त हो रहता  है और भकुआये घबराए यह देखता है कि आखिर हुआ क्या ? आमिर खान की नई फिल्म धोबीघाट दर्शकों को ऐसे ही चारो खाने चित्त करती है ...घोर कला फिल्म है , समान्तर सिनेमा की एक  एंटिक पीस /मिसाल(या  दर्शको पर लक्षित मिसाईल!) . यह निश्चय ही आम भारतीय  दर्शक समूह के लिए नहीं है और   इसलिए इस फिल्म का वर्ल्ड प्रीमियर टोरंटो इंटर नेशनल फिल्म फेस्टिवल  में पिछले वर्ष हो चुका है और अब पूरी तरह हिन्दी में डब किया गया वर्जन पिछले २१ तारीख ,२०११ को भारत में जारी किया गया है.धोबीघाट मुम्बई में विश्व का सबसे बड़ा कपडा धोने का धोबियों का समूह कार्य स्थल है जिसे देखने का शौक विदेशी सैलानियों को रहता है .

कहानी कुछ यूँ  है -एक भारतीय मूल की अमेरिकी लडकी शाई /शाय  (मोनिका डोगरा ) एक अध्ययन अवकाश/ टूर (sabbatical ) और परिवेश बदलाव की खातिर मुम्बई  आती है ..फोटोग्रैफी शौक है उसका ...वह  अमेरिका की भावना विहीन और  मशीनी होती जिन्दगी से  अलग कुछ नया अनुभव बटोरना चाहती है,मानवीय रिश्तों की मौलिकता /सहजता का अहसास चाहती है .और उसकी यह चाह इतनी गहन है कि इसके लिए वह स्वछन्द /अविवेकी(promiscuous) यौन सम्बन्धों की मौज मस्ती से भी परहेज नहीं रखती .अपनी बीबी को तलाक दे चुके पेंटर अरुण (आमिर खान ) से पहली मुलाकात में ही यौन सबंध बना लेने में वह नहीं हिचकती .अगली सुबह वह इसी रिश्ते को सहजता से आगे ले जाना चाहती है मगर तलाकशुदा ,एकांतवासी का जीवन जी रहे अरुण को यह  गवारा नहीं है -वह बीती रात के संसर्ग  को  नशे की भूल मानते हुए पश्चाताप के मूड में है .और फिर से अपने एकांतवास की  ओर लौट जाना चाहता है   ...जबकि शाय बीती रात की  घनिष्ठता को   एक सहज और स्वाभाविक बात ही मानती है   और यही दोनों ,शाय  और अरुण में न चाहते हुए भी एक संवादहीनता उभर आती है ...और अब शाय  की  मुलाक़ात मुन्ना (प्रतीक बब्बर )  से होती है जो अनेक सपने लिए बिहार से मुम्बई आया हुआ है और जीविकोपार्जन के लिए दिन में धोबीघाट पर कपडे धोता है और रात में मुम्बई मेट्रो की पटरियों पर चूहे मारता है .वह मुन्ना की  फ़िल्मी दुनिया की साध  पूरा करने के लिए उसकी प्रमोशनल फोटो उतारती है ,फोलियो बनाती है ..और उसके साथ भी घनिष्ठ होती जाती है..मगर उसका मन अरुण के लिए ही व्यग्र रहता है .

उधर एकांतवासी जीवन जी रहे अरुण को एक नए मकान में शिफ्ट करने पर पुराने किरायेदारों की भूल से छूटी कुछ वीडिओ लग जाती है जिसमें एक दुर्भाग्य की मारी लडकी (कीर्ति  मल्होत्रा )  की कहानी है जो वीडियो रिकार्डेड  संदेशों में अपने भाई को अपनी कहानी कहती है और इस रहस्योघाटन के साथ कि उसके  पति का सम्बन्ध किसी और से है  , खुदकुशी कर लेती है ....इस तरह अनेक पात्रों के समानांतर प्रेम ज्यामिती की जटिलताओं /जाल में उलझती  फिल्म आगे बढ़ती है ...मुन्ना की  ओर एक दूसरी  फ़्लैट की अधेड़ धनाढ्य महिला आकर्षित है  ... मगर मुन्ना तो शाय  के प्रेम में गिरफ्त है ....और शाय  उसके घनिष्ट सामीप्य के बाद भी मन से अरुण से अनुरक्त है ...अरुण को एक दूसरी महिला चाहती है जो उसके पेंटिंग्स की प्रमोशनल शोज विदेशों में कराने की जुगाड़ में है ...मतलब यहाँ प्रेम का पूरा गड़बड़झाला है!   या यूं कहिये फिल्म प्रेम का  पाईथागोरस प्रमेय बन गयी  है ....निर्देशिका ने प्रेम को ही इस यथार्थवादी फिल्म का थीम बनाया है और इस  विलक्षण मानवीय अनुभूति के बड़े ही सूक्ष्म पहलुओं को सेल्युलायिड पर उतारने की जी तोड़ कोशिश की है ...उसके मुताबिक़ प्रेम का अन्तस्थ भाव एक होते हुए भी समाज में उसका प्रगटीकरण व्यक्ति समाज और परिवेश जाति /वर्ग के सापेक्ष है -किन्तु महानगर की आपाधापी और दुनियावी भागदौड़ के बीच भी सहज प्रेम अभी भी स्पंदित है , जीवित है -मेरी समझ में फिल्म की यही निष्पत्ति है!

 धोबी घाट के किरदार 

फिल्म दरअसल दृश्यावलियों का एक खूबसूरत कोलाज बन पडी है - बरसात के दृश्य ,एकांतवासी अरुण के सिगरेट पीने के दृश्य इतने प्रभावी बन पड़े हैं   कि लगता है कि आडिटोरियम   में ही बरसात हो रही है और सिगरेट का धुंआ दर्शकों तक पहुँच रहा है .पार्श्व दृश्यों के साथ बेगम अख्तर /शोभा गुर्टू (?) की आवाजों में क्लासिकल गायकी  एक अजब सी मायूसी,अवसाद का सृजन करती हैं .इस तरह के कई समान्तर  दृश्यों   का समुच्चय फिल्म के अंतिम दृश्य में होता है जब मुन्ना , अरुण के प्रति शाय  के सच्चे प्रेम को देखकर  कर खुद  शाय  के प्रति सच्चे प्रेम की अनुभूति करता है  ...और अरुण के   निवास का सही पता शाय  को सौप देता है ...उसे अरुण का पता मालूम रहता है,वह उसका धोबी जो रहा है  ....

पूरी फिल्म प्रेमाभिव्यक्ति की बारीकियों में सराबोर  है ...मगर एक ख़ास संवेदनशीलता वाले आडियेंस के लिए ही है...दर्शक अपनी समझ का लिटमस टेस्ट अपने रिस्क पर कर सकते हैं :) .हाँ यह जनता जनार्दन के लिए तो बिकुल नहीं है -तासीर काफी गाढी है -हाल से बाहर निकलने पर फिल्म के दृश्य दर दृश्य सिर पर सवार होने लगते हैं.मोनिका डोगरा का पात्र और उनका अभिनय प्रभावित करता है -प्रतीक  बब्बर ने बहुत चुनौतीपूर्ण प्रशंसनीय भूमिका निभायी है ...आमिर के लिए कुछ ख़ास नहीं है फिल्म में -एक एकांतवासी की भूमिका का वे सहजता से निर्वाह कर ले गए हैं .फिल्म बेहद स्लो मोशन में है .हिम्मत करके देखी जा सकती है अगरचे आप की रूचि कला फिल्मों में हो तभी !फिल्म में इन्टरवल नहीं है शायद   निर्देशिका  को डर रहा हो कि इंटरवल (अंतराल) के बाद कहीं दर्शक पूर्वार्ध की कहानी ही न भूल जायं ...समीक्षा के लिए भी यह फिल्म किसी चुनौती से कम नहीं -इति सिद्धम...
* * *
बैनर : आमिर खान प्रोडक्शन्स
निर्माता : आमिर खान, किरण राव
निर्देशक : किरण राव
कलाकार : प्रतीक, मोनिका डोगरा, कृति मल्होत्रा, आमिर खान
सेंसर सर्टिफिकेट : ए * 1 घंटा 35 मिनट * 10 रील 
कतिपय  और  डिटेल्स  के  लिए यह समीक्षा भी पढ़ सकते हैं
चवन्नी चैप पर इस फिल्म की समीक्षा
पोस्ट स्क्रिप्ट!
फिल्म को देखते हुए मुझे भर्तृहरि विरचित यह  बहु उद्धृत श्लोक याद आ  गया -प्रेम आज भी दरअसल कहाँ विवेचित हो पाया है ,इसकी गति न्यारी है ..तभी तो इसे बार बार परिभाषित और व्याख्यायित करने की जरुरत रहती है -
यां चिन्तयामि सततं मयि सा विरक्ता।
साप्यन्यमिच्छति जनं स जनोऽन्यसक्तः।
अस्मत्कृते च परितुष्यति काचिदन्या।
                      धिक् तां च तं च मदनं च इमां च मां च।।
(भर्तृहरि कहते हैं कि मुझे जिससे प्रेम है उसे किसी और से प्रेम है और जिससे उसे प्रेम है  उसे भी किसी अन्यत्र से प्रेम है और फिर उस अन्यत्र को  मुझसे प्रेम है -इन सभी को, कामदेव को और मुझे भी धिक्कार है)पूरा भावार्थ यहाँ पढ़ सकते हैं , तनिक स्क्राल करना पड़ेगा ..तो फिर करिए न ..प्रेम के लिए कुछ भी ...!)


शनिवार, 22 जनवरी 2011

नजरिये हो गए छोटे हमारे ... बौने बड़े दिखने लगे हैं!

कविवर सोम ठाकुर से शायद बहुत लोग यहाँ अपरिचित नहीं  -आगरा निवासी यह मूर्धन्य कवि मेरा चहेता कवि रहा है.आज उनकी एक कविता पढ़िए ,सुनिए और फुरसत मिले तो गुनगुनाईये भी .यह कविता झांसी के एक कवि सम्मलेन में १९८९ में बुंदेलखंड विकास प्रदर्शनी के दौरान आयोजित बासन्ती काव्य संध्या में सुनायी गयी थी जिसके  संयोजन का सौभाग्य मुझे मिला था .मुझे  आश्चर्य है कि सोम जी की यह कविता अंतर्जाल पर नहीं है ,यहाँ तक कि कविता कोश में भी नहीं है .कौस्तुभ की फ़रियाद है कि इसे यहाँ मैं आपके समक्ष उनकी एकल आवाज में प्रस्तुत कर दूं ...हाँ पार्श्व स्वर इस नाचीज का है! आज का पिता संसार का एक सबसे लाचार प्राणी हो गया है ,उससे कई काम उसके न चाहते हुए भी बंधक बना कर करा लिए जाते हैं ....

पहले इंगित कविता लिखित फिर पठित रूप में प्रस्तुत है ..यह एक क्षोभ का गीत है और युग द्रष्टा कवि की तत्कालीन समाज की विसंगतियों पर एक करार व्यंग प्रहार भी है जो दुर्भाग्य से आज भी उतना ही सच है जितना आज से दो  दशक  पहले ...

नजरिये हो गए छोटे हमारे मगर बौने बड़े दिखने लगे हैं 
जिए हैं जो पसीने  के सहारे मुसीबत में पड़े  दिखने लगे हैं 
समय के पृष्ठ पर हमने लिखी थीं ,छबीले मोरपंखों से ऋचाएं 
सुनी थी इस दिशा से उस दिशा तक अंधेरों ने मशालों की कथाये 
हुए हैं बोल अब दो कौड़ियों के कलम हीरों  जड़े दिखने  लगे हैं
हुआ होगा कहीं ईमान महंगा यहाँ वह बिक रहा नीची दरों पर 
गिरा है मोल  सच्चे आदमी का जहर ऐसा चढ़ा सौदागरों पर 
पुराने दर्द में डूबी नजर को सुहाने आंकड़े दिखने लगे हैं 
हमारा घर अजायबघर बना है सपोंले आस्तीनों में पले हैं 
हमारा देश है खूनो नहाया यहाँ के लोग नाखूनों फले हैं 
कहीं वाचाल मुर्दे चल रहे हैं कहीं जिन्दा गड़े दिखने लगे हैं 
मुनादी द्वारिका ने ये सुना दी  कि खाली हाँथ लौटेगा सुदामा 
सुबह का सूर्य भी रथ से उतर कर सुनेगा जुगनुओं का हुक्मनामा 
चरण जिनके सितारों ने छुए वे कतारों में खड़े दिखने लगे हैं 
यहाँ पर मजहबी अंधे कुएं हैं यहाँ मेले लगे हैं भ्रांतियों के 
लगी है क्रूर ग्रह वाली दशा भी मुहूर्त क्या निकालें क्रांतियों के 
सगुन  कैसे विचारें मंजिलों के हमें खाली घड़े दिखने लगे हैं 
नजरिये हो गए .......

और अब सुनिए भी ....

बुधवार, 19 जनवरी 2011

ब्लॉग जगत गालीयुक्त हिंदी का बड़े पैमाने पर प्रयोग कर रहा है-मृणाल पांडे

इन दिनों गालियाँ भी खूब ग्लोरिफायिड हो  रही हैं .यहाँ ब्लॉग जगत में स्पंदन पर  शुरू हुई सुगबुगाहट फ़ुरसतिया तक पहुँचते पहुँचते एक बवंडर बन  गयी और अब मृणाल पाण्डेय जी के मानस को आलोड़ित कर रही हैं .उनका कहना है कि अपना ब्लॉग जगत गाली गलौज की फैक्ट्री बन गया है और इससे वे काफी संवेदित दिख रही हैं! उनका पूरा आलेख यहाँ पढ़ सकते हैं .उन्होंने गाली गलौज के बढ़ते लोकाचार को एक अप संस्कृति का आवेग माना है .आईये फिर से एक गाली विमर्श करते हैं अरे भाई गाली गलौज नहीं ...बस इसलिए कि मुझे भी कुछ कहना है ...

पहले तो गाली गलौज का मनोविज्ञान समझने की कोशिश करते हैं -लोक जीवन में गालियों का इतना सहज प्रयोग होता है कि बिना उनके शायद संवादों की प्रभावशीलता ही कुंद पड़ जाए -कितने ही मुहावरे और कहावतें ऐसी हैं जिनसे अगर गाली तत्व पृथक कर दिया जाय तो वे निष्प्रभावी हो जायं -गाली युक्त लोकोक्तियाँ गहरा मार करती हैं और बेहद सम्प्रेषणीय हैं  -कितनी ही लोकोक्तियाँ पुरुष नारी  के मूल स्थानों से जुड़ कर निशाने पर सटीक चोट करती हैं और साहित्य की लक्षणा और व्यंजना को समृद्ध करती हैं .. ....अनेक उदाहरण हैं -बाप **हि न जाने पुत्र शंख बजाये (मतलब बाप की दैन्यता और पुत्र की विलासिता ) .....जहाँ निज गा* वहां भगईए नाई (मतलब दिखावट बहुत  मगर हालत पतली )...आधी रहरी  लियें जायं बहन  बहन कहें जाय(प्रगट में तो सौजन्यता  मगर नीयत में खोट )   ...गा* पर दिया बारना (अति कर देना ) ....आदि आदि ..आशय यह कि अगर ये गालियाँ लोक जीवन और लोकाचार से निकाल दी जायं तो ग्राम्य संवाद का एक बड़ा क्षेत्र सूना पड़ जाय ..जाहिर है यहाँ ये गालियाँ अश्लीलता का पर्याय नहीं हैं ...हाँ हंसी मजाक के अवसर  जरुर हैं ..

लोकाचार  की ही बात करिए तो शादी बिआह के वक्त गालियाँ गाने की एक बहुत ही संवेदनायुक्त परम्परा/रस्म  हमारे यहाँ सदियों से रही है ...जरा शिव विवाह के समय की मानस की इन पंक्तियों पर गौर कीजिये -
नारिवृन्द सुर जेंवत  जानी .लगी देन  गारी मृदु बानी   और 
गारी मधुर स्वर देहिं सुन्दर बिंग्य बचन सुनावहीं
भोजन करहुं सुर अति विलम्बु बिनोद सुनि सचु पावहीं 
लीजिये जनाब यहाँ तो गाली की  एक अलग तासीर ही है ....यहाँ मधुर बचन में देवताओं तक को गालियाँ दी जा रही हैं और वे उन्हें सुन सुन कर इतना आनंदित हो रहे हैं कि खाने में विलम्ब कर रहे हैं ताकि सुनाने वालियों का जी भर जाय और उनकी संतृप्ति से वे भी यानि देवतागण भी संतुष्ट हो जायं. यह मानस  की कोई गयी बीती बात नहीं है . आज भी भारत के एक बड़े भौगोलिक और सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में विवाह आदि मांगलिक अवसरों पर गालियाँ खूब सुनी सुनायी जाती हैं ...कोई इनके मनोविज्ञान पर भी तो विचार विमर्श करे -ये यहाँ तो हमारे  एक मूल जैवीय (सु ) कृत्य के स्मरण उल्लेख मात्र से आपसी स्नेह सम्बन्धों में फेविकोल का काम कर रही हैं -यहाँ तो गाली एक मांगलिक और पुनीत उद्येश्य बन गयी है ...

आईये एक और पहलू लेते हैं ..मुझे लगता है यह बात तो सभी को स्वीकार्य होगी कि गालियाँ बोलने वाले के पक्ष में एक दबंगता का माहौल सृजित करती हैं -आक्रामकता प्रायः पुरुष के मूल अंग से संयुत गालियों के रूप में प्रगट हो उठती है ..प्रकारांतर से दब्बू ,कथित  भद्र या नागरी मिथ्याचरण के अभ्यस्त लोग अवाक से हो उठते हैं ..मुझे लगता है गलियों का यही परिप्रेक्ष्य भद्र जनों को बेंध रहा है .नो वन किल्ल्ड जेसिका की एक महिला पात्र जब अपने हवाई सफ़र में सहयात्री से सहसा ही गा* की  गाली देती है तो सहयात्री अवाक रह जाता है ....जाहिर है महिलायें अब अपनी ओढाई शील सौजन्यता के चोले को उतार दबंग दिखना चाहती हैं -प्रकारांतर से यह कहना चाहती हैं कि देख लुच्चे तुम्हारे साथ कंधे से कन्धा मिलाती मैं  कतई वल्नरेबल नहीं हूँ -तेरी तरह ही दबंग हूँ ...लेकिन डर यहीं है -हर जगह पुरुष की अनुकृति का उन्हें कोई बड़ी कीमत  भी चुकानी पड़ जाती है  ...क्योकि जो असली दबंग होगा और जो भी होगा अपना सिक्का चला लेगा ..यहाँ एक विषयांतर हो सकता है मगर मैं अभी उस विषयांतर को तरजीह नहीं देना चाहता -लोग आँखे  गड़ाए बैठे हैं! 

मुझे यह भी लगता है कि गलियाँ कभी कभार घोर हताशा ,दयनीयता और विकल्पहीनता के अवसर पर भी सूझती हैं -पीपली लाईव में रघुवीर यादव की मुंह से बुलवाई गयी गाली ..साले यहाँ गा* फट रही है और तुझे गवनई सूझ रही है उसकी वेदना को व्यक्त करती है ...एक असहाय और व्यवस्था के मारे आदमी के मुंह से गालियाँ अक्सर फूट पड़ती हैं जो उसके घोर निराशा और व्यवस्था के प्रति उभरे नैराश्यपूर्ण दृष्टिकोण को दर्शाती हैं ...जाहिर है हम सभी गालियों को एक ही पैमाने पर नहीं ले सकते ...देश काल परिस्थिति और परिप्रेक्ष्य के अनुसार इनके औचित्य पर विचार किया जाना चाहिए ...भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में झगडालू औरतों का एक बड़ा वजूद ही है जिनके आगे बड़े बड़े दबंग पानी मांग जायं! शायद आज की असेर्टिव शहरी नारियों के लिए वे एक बेहतर रोल माडल हों! 

गलियों का कोई भी विमर्श  अधूरा रह जाएगा अगर मानव जीवन के इस सुभाषितम पहलू के पीछे दमित यौन भावना या कुंठित यौनिकता का विवेचन नहीं किया जाता ..मुझे कभी कभी लगता है कि ज्यादातर ग्राम्यांचलों में  सामान्य जीवन पर लगे पहरों के चलते महिलाओं  की यौन कुंठायें इन्ही गालियों के जरिये शमित हो जाती होंगी  ..और मांगलिक  अवसरों पर उनका एक महिमंडित रूप भी नेपथ्य से  प्रगट होता है ....जो फंतासी प्रिय मानव मन को जागृत या स्वप्न में भी बहुविध आलोडित करता होगा....इस अध्ययन क्षेत्र का समाजविदों और मनोविज्ञानियों द्वारा  उत्खनन मानव ज्ञान की अभिवृद्धि के लिए होना चाहिए ...
और   हाँ ,  मृणाल पांडे जी जाहिर है  हिन्दी ब्लागों को ईमानदारी से नहीं पढ़तीं -और एक सहज बोध के तहत ही वह जुमला उछाल दिया! लगता है नए मीडिया के अवतरण से इन्द्रासन डगमगाने लग गया है ….वैसे भी ब्लॉग जगत को गाली गलौज से बस चंद लोग ही विभूषित कर रहे हैं और यह उनकी अभिव्यक्ति की समस्या हो सकती है-शायद हम उन्हें ध्यान से सुन नहीं पा रहे या फिर वे निरंतर हाशिये पर जाते हुए आर्तनाद से कर रहे हैं या फिर कहीं कोई चोट लगी है गहरी उन्हें .अब हैं तो वे हमारे ही भाई बन्धु  .  मुझे याद है मेरा एक मित्र दारोगा का बेटा था ,दिल से बहुत अच्छा था मगर ऐसी धाराप्रवाह गलियाँ देता था की कान बंद करने पड़ जाते थे-बचपन के अवचेतन में वे गालियाँ बाप से सीख ली थी जिन्हें हार्ड कोर क्रिमिनल पर नियन्त्रण करने के लिए इस्तेमाल में लाना जरुरी रहा होगा  -मगर उनके पुत्र गालियों को उनके अर्थ बोध के साथ प्रयोग नहीं करते थे..निश्चय ही उनके पिता का भी ऐसा बोध नहीं ही रहा होगा ...हमरा परिवेश भी गलियां ,अपशब्द सिखला देता है .

आशा है मृणाल  पाण्डेय जी को ब्लॉग जगत का यह गाली -आख्यान पसंद आएगा और वे एक बार फिर गाली  शास्त्र विधान पर पुनर्चिन्तन करेगीं!
विषय की अन्यत्र चर्चा -
डॉ  दिनेश राय द्विवेदी 
गालियों पर गिरिजेश


रविवार, 16 जनवरी 2011

बेनामियों की क़यामत का काउंटडाउन!


चिकित्सक के 'कम्पलीट बेड रेस्ट' की सलाह का मैं  आकांक्षी  रहता हूँ क्योकि यह मुझे कई मायनों में लाभान्वित करता है -यह किसी छुपे हुए वरदान से कम नहीं है ..आई मीन 'ब्लेसिंग इन  डिस्गायिस'....यह लोगों की संवेदनाओं को उकेर हलोर कर आपके पास लाता है .आप सहसा एक बहु वांछित से प्राणी बन जाते हैं ,अपने होने का ,अपने वजूद का,अपनी पहचान का भरपूर  अहसास कर पाते हैं - क्रूर बेदर्द होती  दुनिया की  एक अच्छी तस्वीर आपके सामने होती है और जीवन के प्रति आपका मोह बढ जाता है -दूसरे आपके पास फुरसत ही फुरसत होती है अपने तरीके से समय बिताने की ..स्वाध्याय की ..मन  मौज की ..इसलिए ही तो कवि कह गया है दिल चाहता है फुरसत के फिर वही चार दिन ....
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तो जनाब यह मौका जब मुझे अता फरमाया गया तो मैंने ब्लॉगजगत से इस अल्पकालिक दूरी को कुछ पढने गुनने में बिताया और अब अपने स्वभाव के अनुरूप आपसे वही साझा करने को मन  उतावला है. मार्क जुकरबर्ग का नाम तो आपने सुना ही होगा ..अरे  वही अपने फेसबुक के फाउंडर जुकरबर्ग ..विश्वप्रसिद्ध पत्रिका टाईम ने उन्हें वर्ष २०१० का 'परसन आफ ईयर' के ख़िताब से नवाजा है ...और उन पर एक भरापूरा आलेख अपने वर्ष २०११ के प्रवेशांक में छापा है ...जो एक व्यक्ति चित्र न होकर एक व्यक्ति ,एक नौजवान का पूरा जीवन दर्शन ही है .अब मानव मनीषा का क्या कहिये कि यह अरबपति शख्स जो अभी खुद अपने जीवन का महज २६ बसंत /पतझड़ देख पाया है एक पूरा जीवन दर्शन लेकर अंतर्जाल पर आ उपस्थित है ...उन्होंने फेसबुक की स्थापना ही मेल मिलाप ,जान  पहचान को बढावा देने के लिए की .अंतर्जाल के धुप अधेरों से लोगों को अपने चेहरे को उजाले में लाने  के लिए की ....उसका नारा ही है अन्धकार से उजाले की ओर ...अज्ञेयता से ज्ञेयता की ओर .अनजानेपन से जान  पहचान की ओर ....आज फेसबुक पर भारत और चीन के बाद की सबसे बड़ी दुनिया वजूद में है ...अकेले भारत से ही डेढ़ करोड़ लोग फेसबुक पर आ चुके हैं ....मानव सबंधों में यह किसी अभूतपूर्व घटना से कम नहीं है ....फेसबुक की कोशिश यह है कि लोग यहाँ अपने वास्तविक पहचान के साथ जुड़ें ...अपना बायोडाटा शेयर करें ....इसके व्यावसायिक निहितार्थ भले हों मगर यह पूरा उपक्रम अंतर्जाल को गुह्यता ,गोपनीयता और दुरभिसधियों से बाहर  निकाल लेने की एक जोरदार कवायद जरूर है ..

 
  मार्क जुकरबर्ग :सामाजिकता के दीवाने  
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 मुझे अपनी एक चिर पुरातन किन्तु चिर नवीन भारतीय सोच की सुधि हो आती है -असतो मा सदगमय....   तमसो मा ज्योतिर्गमय ....और अब उसी ही चिंतन परम्परा में फेसबुक की यह पहल अज्ञेयता से ज्ञेयता या फिर अनामता से संनामता की ओर सहसा ही आकर्षित करने वाली है -जूलियन असांजे भी प्रकारांतर से यही उद्घोष कर रहे हैं -गुह्यता और गोपनीयता से दूर पारदर्शिता की वकालत कर रहे हैं -युग सोच में एक क्रांतिकारी परिवर्तन है...पर शायद  भारतीय मनीषा के लिए नया नहीं  है  जहाँ संत कवि तुलसी पहले ही अलख जगा चुके हैं -इहाँ न गोपनीय कछु राखऊं वेद पुराण संत मत भाखऊ....... 
 जूलियन असान्जे :पारदर्शिता के परवाने 

जहां ओट है, वहां खोट है इसलिए अब पारदर्शिता में ही दूरदर्शिता है.मानव सभ्यता के आगामी चरणों के लिए लगता है अब यही मूलमंत्र है -सब कुछ साफ़ और झक्कास! तो अँधेरे से उजाले की ओर इस यात्रा में ब्लॉगर बन्धु भी शामिल हो लें -अनामता का युग अब बीत रहा, सनामता का/ पहचान का दामन थाम लें -माननीय न्यायाधीश हों ,शासन प्रशासन के ओहदेधारी हों या फिर खद्दरधारी,शिक्षाविद हों या वैज्ञानिक -गुमनाम बने रहने में क्या आनंद है? आपका चेहरा कोई वीभत्स तो नहीं या फिर आपका करतब भी कोई बुरा नहीं ..तो फिर मुंह छुपाये क्यूं बैठे हैं आखिर?

आखिर आपको किस बात का डर है? आईये अपना चेहरा अनावृत करें!ब्लागिंग को भी एक नए मानवीय संस्पर्श और रिश्ते की ऊष्मा दें!भगोड़े न बने! दुनिया को फेसबुक पर ही नहीं यहाँ भी फेस करें!
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शुक्रवार, 14 जनवरी 2011

मकर संक्रांति का पुण्य काल है ,आईये कुछ कथा वार्ता हो जाय!

मकर संक्रांति का पुण्य काल है ,आईये कुछ ज्ञान ध्यान की बात हो जाय -कुछ कथा वार्ता हो जाय.गोस्वामी तुलसीदास जी राम कथा के उदगम और उसके महात्म्य की बात करते हुए बालकाण्ड में जो लिखते हैं आईये आपको सुनाते हैं =जब तक मन  लगे सुनिए नहीं तो जो रुचे वही कीजिये ...मैं तो इन दिनों 'मानस' रस में ही सराबोर हो रहा हूँ .अल्पना जी की दी गयी टिप्स के अनुसार प्रवचन   यहाँ से डाउनलोड भी किया जा सकता है!

रविवार, 2 जनवरी 2011

तू नहीं और सही और नहीं और सही.........

उन्होंने कहा था कि मैं उनका म्यूज हूँ ,पत्र खालिस अंगरेजी में था.हिन्दी में उनकी कोई गति नहीं थी (अब थोड़ी है ) ...हालांकि वे हिन्दी की दुर्गति नहीं करती थीं -मगर उस सहजता के साथ नहीं लिख पाती थीं जैसी कि अंगरेजी ....मैंने उन्हें हिन्दी में लिखने को प्रेरित किया ..उन्होंने एक ब्लॉग बनाया भी ..मेरा प्रयास.....मगर  फिर अंतर्ध्यान(स्थ) हो गयीं ....वे निश्चय ही मेरे जीवन में  अद्यावधि आविर्भूत  नारियों  में एक कुशाग्र प्रज्ञावान विदुषी बाला रहीं  मगर हिन्दी (और प्रकारांतर से एक हिन्दी प्रेमी )उन्हें अपने मोहपाश में बांध नहीं सकी/सका  ...और वे फिर से अपने आंग्ल भाषा के सृजन कर्म में   प्रवृत्त हो गयीं ..शायद एक म्यूज के रूप में मेरी भूमिका समाप्त हुई ...

अरे अरे मैंने आपको यह तो बताया  ही नहीं कि भला ये म्यूज है क्या बला .....यूनानी  मिथकों में ये वे प्रकृति -देवियाँ हैं जो किसी में सृजन कर्म का स्फुरण देती हैं ....इनकी संख्या ९ तक बतायी गयी है .आधुनिक अर्थों में अंगरेजी भाषा का म्यूज शब्द प्रेरणा स्रोत से सम्बन्धित है -आप अपने सृजनात्मक/रचनात्मक  कर्मों की प्रेरणा/स्फुरण  जिस  पुरुष या स्त्री से पाते हैं वह आपका म्यूज हुआ !मान्यता यही है कि सृजनकर्मियों के अक्सर म्यूज होते ही हैं बिना उनकी मौजूदगी  के सृजन कर्म निखार नहीं पाता , नैरन्तर्य  नहीं पाता और शायद मुकाम भी नहीं पाता .....बहरहाल  वे सम्माननीय देवी मुझे अपना म्यूज मानती रहीं मगर मेरी म्यूज तो कोई और थीं ...दुर्भाग्यवश इन दोनों आईडल -म्यूजों का अब अवसान हो चुका है .न अब मैं किसी का म्यूज रहा और न अब कोई मेरा .....आप   चाहें तो इस अवसर पर वह फ़िल्मी गीत गा सकते हैं कोई हमदम न रहा .... मगर मेरा हठयोग तो देखिये फिर भी अपने टूटे फूटे सृजन कर्म के साथ आपके सम्मुख हूँ -अहर्निश रचना कर्म को उद्यत ..यह बेहयाई नहीं मित्र बल्कि  एक  जिजीविषा   है .....जीवन की असली परिभाषा समझ लेने की एक छटपटाहट है ....एक अंतर्नाद है .

अब म्यूज की बात चली है तो आईये इस पर कुछ बुद्धि  विलास/वैचारिक जुगाली (म्यूजिंग ) ही कर ली जाय  ....नए  वर्ष का मौका है मूड भी है और दस्तूर भी है ....कहते हैं कि महान चित्रकार पिकासों की 'प्रेरणाओं' की बड़ी त्रासद परिणति  होती थी ....अपने 'प्रेरणाओं' से सम्बन्ध को लेकर वे बड़े कुख्यात रहे ...उन्होंने अपनी अधिकाँश प्रेरणाओं का ह्रदय तोडा ....उनकी प्रेरणा- नायिकाएं बड़ी अभिशप्त रहीं क्योकि पिकासो एक समय के बाद उनसे बड़ी रुखाई से पेश आते और प्रेरणा -सम्बन्ध ही टूट जाता ...अपनी कला कृतियों के लिए वे फिर कोई नया म्यूज ढूंढ लेते .....जो उनके सृजन कर्म में एक बार फिर प्राण फूंक देता ....उनकी कलाकृतियाँ फिर जीवंत हो उठतीं ...शायद हिन्दी का जुमला तू नहीं और सही और नहीं और सही पिकासो की इसी  म्यूज लीला से ही प्रेरित रहा हो!
  अपोलो  से अठखेलियाँ करती हुईं यूनानी मिथकों की नौ प्रेरणा -देवियाँ (म्यूजेज ) 

यह म्यूज- लीला सृजन कर्मियों के जीवन का स्थाई और अन्तस्थ भाव लगता है - लगता है प्रतिशोध की देवी (नेमेसिस ) जो इन म्यूज देवियों की ही सखी सहेली होंगी ,ने रचनाकर्मियों को मानो श्राप दे रखा है कि जाओ तुम्हारा सृजन कर्म गाहे बगाहे म्यूज- विछोहों से संतप्त अभिशप्त होता रहेगा ...हिन्दी सिनेमा जगत तो ऐसे कई कारुणिक उदाहरणों से भरा पड़ा है ..देवानंद की म्यूज थीं जीनत अमान मगर उन्होंने दामन पकड़ लिया राजकपूर का -तनिक देवानंद बनकर सोचिये कैसा ह्रदय विदीर्ण हुआ होगा उनका .....निदेशक राजकुमार संतोषी की लेडी लव मीनाक्षी शेषाद्री भी उनके जीवन को उजाड़ कर फुर्र हो गयीं और अभी कुछ समय पहले तक शाहरुख खान फारहा  खान के पसंदीदा नंबर वन थे लेकिन अक्षय खन्ना बन गए तीस मार खान और फ्लाप भी हो गए  .. तो क्या अब फारहा  फिर अपना म्यूज बदल देगीं ? एम ऍफ़ हुसैन तो अपने लेडी  म्यूज को ही डिच कर देने में कुख्यात रहे हैं -माधुरी दीक्षित ,अमृता राव ,तब्बू , विद्या बालन और  अब  अनुष्का में वे अपनी प्रेरणा ढूंढ रहे हैं .....और बालन के बालों में कलात्मकता का तासीर उतरते ही फिर कहीं और चल पड़ेगें ....आखिर सृजनकर्मियों -लेखकों ,कवियों ,कलाकारों ,संगीतकारों ,ब्लागरों के जीवन की यह त्रासदी क्यूं ? 
                                                          मकबूल को अब अनुष्का कबूल 


 मगर मेरी अंतर्व्यथा तो शेष ही रही -अब कौन बनेगा मेरा म्यूज? नए वर्ष के  आगाज पर यह सवाल बार बार मेरे सामने आ उपस्थित हो रहा है? और अगर कोई म्यूज न हुआ तो फिर ब्लागीय रचना कर्म का नैरन्तर्य कैसे बना रहेगा? बिना म्यूज का कैसा रचना कर्म ..? बेजान और निष्प्राण सा ..या कोई मुझे बताये कि क्या बिना प्रेरणा देवी के रचना कर्म हो भी सकता है ..मेरा मानना है कि हाँ हो सकता है -यह जो आपके सामने है वह रचना कर्म ही तो है ..या फिर कूड़ा करकट ? 





 

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