शुक्रवार, 27 अप्रैल 2012

वक्ष सुदर्शनाएँ!

भारत के एक मशहूर मीडिया हाउस ने अपनी एक प्रमुख पत्रिका के अंगरेजी हिन्दी दोनों संस्करणों के ताजे अंक की कवर स्टोरी को नारी वक्षों में  उभार के प्रति आयी नयी चेतना को समर्पित  किया है और कवर पृष्ठ पर जाहिर है स्टोरी के अनुरूप एक नयनाभिराम चित्र भी लगाया है -अब चिल्ल पों शुरू हो गयी है ...और पत्रिका द्वारा सौन्दर्य सर्जरी पर प्रचुर सामग्री को दरकिनार कर पत्रिका ग्रुप के व्यावसायिक हथकंडों ,नीयत , शुचिता आदि पर सवाल खड़े किये जा रहे हैं -लानत मलामत किया जा रहा है .पता नहीं ये भारतीय जेंटलमैन कब परिपक्व होंगें?  ....और अपने तमाम पूर्वाग्रहों ,वर्जनाओं से मुक्त हो खुली हवा में सांसे ले पायेगें .
किसी ने सच कहा था कि एक आम भारतीय जीवन भर कई तरह के परस्पर विरोधी विचारों, आईडीओलोजी ,वर्जनाओं के द्वंद्व में जीवन काट देता है ...जितना एक आम भारतीय गलत- सही के भंवर में डूबता उतराता रहता है उतना शायद ही कोई अन्य देशवासी .उसे माडर्न बनने दिखने  की ललक भी होती  है तो वह अपने कितने अप्रासंगिक हो रहे रीति रिवाजों में  भी आसक्ति बनाए चलता है . लिहाजा उसका सारा जीवन ही एक तरह की उहा पोह और किंकर्तव्यविमूढ़ता में बीत जाता है .मुझे याद है मेरे एक परिजन केवल इसलिए नसबंदी नहीं करा पाए कि समाज के सामने सकुचाते रहे और अब कई लड़कियों की शादी में सब कुछ बेंच   बांच  भिखारी जीवन जी रहे हैं .....कई लोग अभी भी इसी तरह दूकान पर कंडोम मांगने में बला का संकोच करते हैं..किस युग में जी रहे हो भाई लोग :) 
बहरहाल मुद्दे की चर्चा की जाय ...दुनियां  में ब्रेस्ट सर्जरी इम्प्लांट की अर्धशती मनाई जा रही है ....१९६२ में टिमी जीन लिंडसे नामकी टेक्सास की महिला  ने अपने वक्षों को सुन्दर लुक देने के लिए सर्जरी के जरिये सिलिकन राड्स का इम्प्लांट कराया था ..और तबसे तो यह मानो नारी सौन्दर्य के अनेक जुगतों की फेहरिश्त का एक फैशनबल ट्रेंड ही बनता गया है .पश्चिमी दुनियाँ, हालीवुड की तो छोडिये अपने भारत में भी अब सौन्दर्य सर्जरी का व्यवसाय फलफूल रहा है .दक्षिणी अफ्रीका में तो हर वर्ष राष्ट्रीय क्लीवेज दिवस  विगत २००२ से मनाया जा रहा है ..जहां वक्ष सुदर्शना नारियों का जमघट लगता है! भला सुन्दर दिखने की चाह किसे नहीं होती ..नारी या पुरुष ...नारी जहां अब ज्यादा विवर जागृत (क्लीवेज कान्सस) हो गयी है मर्द अपनी छाती की  अनावश्यक चर्बी (मूब =मेल बूब =गायिन्कोमेस्टीया को हटाने के  लिए सर्जरी का  सहारा  ले रहे हैं . मेट्रो भारत में सौन्दर्य सर्जरी का धंधा फल फूल रहा है .सौन्दर्य सर्जनों के पास हीरोईनें ही नहीं ,साईज जीरो गर्ल्स ,भावी दुलहनों,महत्वाकांक्षी प्रोफेसनल ,समृद्ध चालीस प्लस युवतियों का ताँता लग रहा है .सभी को अन्यान्य कारणों से सुन्दर सहज दिखने की चाह है ..कैंसर जैसे महारोग से अभिशापित मरीज भी इसी सर्जरी के भरोसे हैं ... 
हलांकि ऐसी सर्जरी पूरी तरह निरापद नहीं हैं ,कहीं कहीं से सिलिकान राड/जेल के इम्प्लांट से कैंसर होने की भी रपट है मगर इन मामलों का अनुपात अभी भी बहुत कम है .सिल्कान इम्प्लांट से हमेशा दर्द बने रहने की शिकायत भी मिलती रहती है मगर सर्जरी में निरंतर सुधार होने से इन समस्याओं पर उत्तरोत्तर अंकुश लगता आया है . दिल्ली के गुडगाँव की  मेदान्ता मेडिसिटी में कास्मेटिक सर्जरी की यह सुविधा उपलब्ध है -हालांकि यहाँ चिकित्सक सौन्दर्य सर्जरी के इच्छुक लोग लुगायियों के कई भ्रमों का भी निवारण करते हैं...वक्षों की आयिडियल शेप साईज को लेकर भी कई तरह की दुर्निवार शंकाएं लोगों को रहती है -चिकत्सक कहते हैं कि 'आंसू सदृश ' आकार ही नारी वक्ष का सबसे नैसर्गिक शेप है . न ही एकदम गोलाकार और  न उन्नत जैसा कि प्रायः  लोगों के मन का फितूर होता है .
भारत में वक्ष सौन्दर्य सर्जरी की शुरुआत मुम्बई में १९७३ में शुरू हुयी थी जब एक मुंहढकी नाम छुपी महिला का ऐसा आपरेशन डॉ. नरेंद्र पांड्या ने आधीरात के सन्नाटे में किया था मगर अब तो उनके पास ऐसे आग्रहों की खुलेआम भीड़ लगी होती है ... प्लास्टिक सर्जन्स असोसिएशन की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ सौन्दर्य वक्ष सर्जरी के मामले पिछले पांच वर्ष में काफी बढ़ गए हैं .अकेले वर्ष २०१० -२०११ में ५१००० ब्रेस्ट इम्प्लांट सर्जरी हुई है जबकि पूरी दुनियाँ का यह आकंडा डेढ़ लाख तक जा पहुंचा . सौन्दर्य की इस चाहना में कोई बुराई तो नहीं दिखती ....राखी सावंत को भी नहीं दिखती जो इस सर्जरी के बाद  वक्ष गर्विता बनी कहर ढा रही है और इस सर्जरी की प्रशंसा करते नहीं अघातीं ....
इसी परिप्रेक्ष्य में, इस नए ट्रेंड को कवर करती  चर्चित पत्रिका के हिन्दी- अंगरेजी संस्करणों को लिया जाना चाहिए ....

बुधवार, 25 अप्रैल 2012

एक चड्ढी कथा

 ऐसे ही मित्र के साथ फिल्मों की चर्चा के दौरान आने वाली फिल्म फात्सो के प्रसंग में  चड्ढी की चर्चा शुरू हो गयी .दरअसल इस फिल्म का नायक चड्ढी नहीं पहनता .फिर तो चड्ढी को लेकर मित्र ने चटखारे लेकर और भी बातें करनी शुरू की ...याद है एक ब्लागर ने किस तरह ब्लागजगत में यह कह कर धमाका कर दिया था कि वे इस इह लोक में महज पति की चड्ढी धोने के लिए ही नहीं अवतरित हुईं है ...हाँ हाँ भला उन्हें कौन भुला सकता है, आज वे बिना चड्ढी धोये जीवन को सार्थकता के नए आयाम दे रही हैं ...फिर तो एक वृहद् चड्ढी चर्चा ही शुरू हो गयी .आस पास के जो लोग इधर ही कान लगाये थे थोडा और पास खिसक आये  ...

...गुलजार के चड्ढी लगाव पर चर्चा हुयी ..क्या गाना था वो भी  ..चड्ढी पहन के फूल खिला है ..बच्चों के साथ बड़े भी लहालोट हो जाते थे यह गीत सुन कर ..तब भी यही लगता था कि चड्ढी निश्चय ही फूल जैसे बच्चों की ही ड्रेस हो सकती है . इन्नोसेंट प्यारे बच्चे चड्ढी में और भी कितने प्यारे लगने लगते हैं ..मगर नाश हो इन नासपीटों होजरी उद्योग वालों का जिन्होंने विज्ञापन के चलते चड्ढी को युवाओं का भी ड्रेस -अन्तःवस्त्र बना दिया और उसके साथ कुछ रोमांटिसिज्म भी जोड़ दी -नए प्रतीक भी गढ़ लिए गए ...मुओ ने इस बचपने को यौनाकर्षण से भी जोड़ दिया ...अगर तुम वह वाली चड्ढी पहनोगे तो वह तुम्हारे पास खिंची चली आयेगी -हुंह ऐसा भी होता है भला? मगर चड्ढी उद्योग परवान चढ़ता गया ..नारियों ने अपने लिए गुलाबी रंग चुन कर इस रंग को भी एक फुरफुरी झुर्झुरीनुमा संवेदना से जोड़ दिया -पिछले दिनों एक चड्ढी अभियान दरअसल इसी संवेदना  की एक निगेटिव पब्लिसिटी ही तो थी:) किसी राम सेना को इस चड्ढी अभियान में पूरी तरह गुलाबी बना दिया गया था ....

हमारे यहाँ गाँव गिराव में तो बच्चे ही चड्ढी पहनते आये हैं ..बड़े हुए तो लंगोट ढाल ली ..कहते हैं लंगोट और ब्रह्मचर्य में एक घनिष्ठ रिश्ता है ...अगर बात इधर मुडी तो तगड़ा विषयांतर हो जायेगा ...इसलिए अभी यह चड्ढी चर्चा पूरी हो जाने दीजिये, लंगोट महात्म्य फिर कभी ..मैंने तो कभी पहनी नहीं किसी लंगोटधारी से पूंछ पछोर कर ही कुछ बता पाऊंगा ...वैसे भी लंगोट मुझे हमेशा सांप की प्रतीति कराती है ...जाहिर है लंगोट से डर लगता है ....तो हाँ ..चड्ढी .....गाँव में अभी भी बहुत से लोग चड्ढी नहीं पहनते ....यह नागर सभ्यता की देन है. हाँ नेकर गावों में जरुर पहना जाता है जिसे जन्घियाँ भी कहते हैं ...मगर वह एक बहिर्वस्त्र है अंतरवस्त्र नहीं -हाँ कुछ उजबक किस्म के लोग जन्घियाँ के ऊपर पायजामा ,पैंट पहन कर अपनी समृद्धता का बेजा प्रदर्शन भी करते हैं -ऐसे लोग मुझे अच्छे नहीं लगते (याद दिला दूं चल रही चड्ढी चर्चा में ज्यादा हिस्सेदारी मेरे मित्र की है इसलिए जिस भी वक्तव्य के बारे में तनिक भी शंका हो उसे मेरे मित्र का माना जाय) गाँव की गोरियाँ भी अमूमन अन्तःवस्त्र नहीं पहनती ...एक ग्राम्य पंचायत में अभी खुलासा हुआ कि एक ग्राम्या को उसका शहरी हसबैंड जबरदस्ती चड्ढी पहनने को कहता है ...पञ्च लोग गरजे ..अबे कलुआ ऐसा काहें करता है बे ....उसने बहुत झेंप झांप के बताया कि यह फार्मूला अपनाने से उसे जोर का कुछ कुछ होता है ...मगर उस ग्राम्या को यही ऐतराज था ..मामला तलाक पर जा पहुंचा था -मुझे लगता है ग्राम्या होशियार थी ..उसे भी रोज रोज चड्ढी साफ़ करने की मुसीबत से छुटकारा चाहिए था ..... 

जाहिर है यह चड्ढी संस्कृति बहुत गहरे घुस गयी है हमारे जीवन में ...एक मित्र दंपत्ति को जब शादी के कई साल बाद भी संतान की प्राप्ति नहीं हुयी तो .ओझाई सोखाई शुरू हुयी ...कहाँ कहाँ  नहीं गए बिचारे, कौन कौन सा नेम व्रत नहीं किया ..किसकी मिन्नतें नहीं हुईं, देवी औलिया दरगाह सब जगहं शीश नवाया ..मगर संतान नहीं हुयी ..एक काबिल डाक्टर ने जांच परख की तो मित्र से कहा कि अब से चड्ढी पहनना छोडो ..बच्चा हो जाएगा ...आश्चर्यों का आश्चर्य दम्पत्ति को अगले वर्ष ही बच्चा नसीब हो गया ....मगर कैसे? डाक्टर ने बताया कि लगातार चड्ढी पहनने से स्पर्म काउंट घट गया था - यह भी कि पुरुष जननांग के पास एक ख़ास स्थिर तापक्रम शुक्राणुओं को सक्रिय समर्थ रहने के लिए आवश्यक है ....मेरे मित्र ने तबसे चड्ढी ऐसी उतार फेंकी कि फिर आज तक नहीं पहनी .कई होनहार बच्चों के गर्वित पिता हैं ..और चड्ढी न पहनने की कई सहूलियतों का भी वर्णन करते नहीं अघाते ...

अभी तो विराम मगर फिर कभी शेष चड्ढी कथा .....


सोमवार, 23 अप्रैल 2012

हेट स्टोरी -एक "पर्दाफाश" फिल्म!

हेट स्टोरी एक 'पर्दाफाश फिल्म' है- जिस्म फरोशी ही नहीं यह दिल्ली 'सल्तनत' की परदे के पीछे की कई  कारगुजारियों का भी पर्दाफ़ाश करती है..केवल एक इरोटिका फिल्म के रूप में इसे देखना फिल्म का अवमूल्यन है . मैंने यह फिल्म कल ही यानी तब देखी जब एक सेक्स वीडिओ की धूम फेसबुक पर मची हुयी है जिसमें  एक ऊंचे ओहदे पर नियुक्ति की सिफारिश लेने के लिए शरीर के सौदे का बारह मिनट का पूरा एक्सपोजर है . इस पृष्ठभूमि में अचानक ही मुझे यह फिल्म जंच गयी -यह वह सब कुछ एक्सपोज करती है - सत्ता ,पावर, सेक्स,औद्योगिक घरानों और भ्रष्ट राजनीतिज्ञों की मिली भगत,दलाली, भारी भ्रष्टाचार ,सरकारी इमदाद की लूट ,विदेशी मदद की भारी भरकम राशि की बंदरबांट ...सब कुछ! अब एक ही फिल्म में रोचक स्टोरी ,मनोरंजन ,चुटीले संवादों के साथ यह सब भी परोस उठे तो दर्शकों के जायके में इजाफा तो होगा ही ...महज कामोद्दीपन के लिए भी इस फिल्म का एक दर्शक वर्ग है मगर फिर उस दर्शक वर्ग के लिए इस फ़िल्म से कुछ ज्यादा चाहिए होता है और उसके अनेक जुगाड़ भी हैं ...ऐसा दर्शक वर्ग इस फिल्म से संतुष्ट नहीं होगा ..इस फिल्म में बोल्ड सीन कहानी की तारतम्यता के मुताबिक़ हैं ,मांग हैं -हो सकता है कहीं कहीं ज्यादा बोल्ड  हो गए हों मगर फिल्म का हेतु वह नहीं है .

कहानी शुरू होती है एक जुनूनी युवा महिला पत्रकार काव्या कृष्णा  के द्वारा एक औद्योगिक डील  में जज को घूस देने के मामले के पर्दाफ़ाश से ..औद्योगिक घराने के उस कम्पनी का  युवा सी ई ओ सिद्धार्थ पत्रकार की इस 'हरकत' को बर्दाश्त नहीं कर पाता और उसे सबक सिखाने के लिए एक न ठुकराए जा पाने वाला आफर उसके सामने रखता है ..अपनी सीमेंट कंपनी में उसे तीन गुने अधिक के वेतन पर नौकरी ....काव्या अपने दोस्त पत्रकार की अनिच्छा के बावजूद इतने आकर्षक प्रस्ताव को ठुकरा नहीं पाती ...सिद्धार्थ उसे एक सपनीली दुनियाँ में ले चल पड़ता है -महंगी घड़ी,हीरे की अंगूठी आलीशान होटल में मौज मस्ती,एक जान  छिडकने वाले मैको इमेज  बिजनेस टायकून का साथ   -फिल्म यहाँ ज्यादातर लड़कियों द्वारा  ऐसी सपनीली दुनियाँ की चाहत को इंगित करती है -ऐसे माहौल में काव्या अपने पत्रकार दोस्त जो वास्तव में उसे प्रेम करता है को भूलकर सिद्धार्थ के प्रेम पाश में बधती है और हमबिस्तर हो जाती है ..और तुरत बाद ही सिद्धार्थ उसे नौकरी से बाहर का रास्ता दिखाता है -उसका फेवरिट जुमला है -"आई फक द पीपल हू फक वि मी .." असहाय स्तब्ध काव्या फिर अपनी पुरानी फुटपाथ की जिन्दगी पर लौटती है मगर अब तो उसके पास नौकरी भी नहीं है ...मगर एक संकल्प उसके मन में कौंधता है और वह प्रतिशोध की राह पर चल पड़ती है ....

फिल्म अब सिद्धार्थ और काव्या के एक दूसरे को बर्बाद कर देने के मंसूबों ,कारगुजारियों की लुकाछिपी फोकस करती है जिसमें दिल्ली दरबार के परदे के पीछे का सारा अनर्गल परत दर परत दर्शकों के सामने खुलता जाता है -औद्योगिक डील के एवज में अरबों रुपये डकारते हमारे सफेदपोश रहनुमा,नारी तन को रौंदते यौन बुभुक्षी नेता -मंत्री,हुक्मरान  लोग और बदले में बड़े पदों पर होती नियुक्ति की सिफारिशें ...ताज्जुब होता है फ़िल्में कहाँ कहाँ से ला देती हैं अन्दर की कहानी ...काव्या अपने पेट में सिद्धार्थ के ही पलते भ्रूण की बिना पर उसके बिजनेस में आधा हक़ मांगती है तो उसे अपने भ्रूण ही नहीं गर्भाशय तक से हाथ धोना पड़ता है -उसका ममत्व  छीन लिया जाता है ..वह और हिंस्र हो उठती है -शहर की सबसे बड़ी रंडी बनने की ट्रेनिंग लेती है -टाप काल गर्ल बन जाती है-एलान करती है कि 'अगर औरत खुद  अपनी इज्ज़त बेचने पर उतारू हो जाय तो किसी भी आदमी को खरीद सकती है ' ...आखिर सिद्धार्थ को गबन और धोखाधड़ी के आरोप में जेल भिजवा कर ही वह दम लेती है -भले ही दिल्ली की सबसे बड़ी प्रास्टीच्यूट का तमगा उसे मिल उठता है ... 

फिल्म का आख़िरी सीन कहानी की सहूलियत के हिसाब से है -नाटकीय है ..काव्या का मर्डर ..अंत ....एक जुझारू युवा पत्रकार का अंत ...उसका एक गलत कदम ,एक गलत निर्णय उसके सारे सपनों पर भारी पड़ा ..फ़िल्म आज के युवा वर्ग को एक गहरा सन्देश दे जाती है ......बाकी विवरण यहाँ देख सकते हैं .... एक ट्रेलर भी जो कहानी के सीक्वेंस की एक झलक  देगा ..बाकी आप देखें  या न  देखें निर्णय आपका -खासी एडल्ट फिल्म है -अब तक की बालीवुड की सबसे एडल्ट और बोल्ड .....



शनिवार, 21 अप्रैल 2012

माया युद्ध -पुराणकार की अद्भुत सोच!


भारत ने अंतर महाद्वीपीय मिसाइल अग्नि-5  के प्रक्षेपण के साथ ही सैन्य क्षमता के लिहाज से पूरी दुनिया में एक गौरवभरा मुकाम हासिल कर लिया है. विशेषज्ञों का कहना है कि यह एक एंटी मिसाइल की भी मारक क्षमता लिए हुए है - यानी दुश्मन की मिसाइल को लक्ष्य पर पहुंचने के पहले ही उसे  मार्ग में ही नष्ट करने की क्षमता...एक ऐसे युद्ध में पारंगत होने की क्षमता जिसका रोमांचपूर्ण विवरण हमें महाभारत और रामायण की युद्ध कथाओं में देखने को मिलता है. आज जब टेक्नोलॉजी का विकास हो गया है तो हम अपने पुराणकारों द्वारा कल्पित के कितने ही युद्ध तकनीकों को साकार कर रहे हैं. दैत्यों द्वारा संधान किये कितने ही आयुध, अस्त्र शस्त्र वायुमार्ग में ही देवताओं द्वारा विनष्ट कर दिए जाते थे...आज की गाईडेड  मिसाइल्स और एंटी बैलिस्टिक मिसाइल्स हमारी उसी पौराणिक सोच का साक्षात नमूना है .

हमारे पुराण युद्ध के अनेक कला कौशलों, अनेक तरह के आयुध-अस्त्र शस्त्र के रोमांचपूर्ण विवरणों से भरे पड़े हैं. आज के सैन्य सुरक्षा वैज्ञानिक उनसे कई सूझें ले सकते हैं. कृष्ण का सुदर्शन चक्र गाइडेड मिसाइल की ही तरह तो काम करता है - दुश्मन का काम तमाम किया फिर वापस अपने स्वामी के पास. भगवान राम के बाण दुश्मन का बाल बांका करके वापस अपने तरकश में आ जाते थे. यह अस्त्र शस्त्रों के उपयोग-प्रबंध की कितनी उपयुक्त सूझ है। कम खर्च बाला नशी...मतलब कम ही अस्त्र में किला फतह। अम्बार लगाने की जरुरत नहीं। कम ही अस्त्र हों पर अचूक और कारगर हों!कितने दूर की कौड़ी ले आये थे पुराणकार...आज जब हमारे पास प्रौद्योगिकी है तो हम उन विचारों को मूर्त रूप दे रहे हैं. मगर अभी भी हम पुराणों में वर्णित अनेक युद्ध कौशल और अस्त्र शस्त्रों को अमली जामा नहीं पहना पाए हैं।यद्यपि आज हमारे पास ब्रह्मास्त्र या नारायणास्त्र के आधुनिक स्वरुप- नाभकीय बम मौजूद हैं, जिनके इस्तेमाल से कुछ उसी तरह का दृश्य साकार हो उठता है जैसा पुराणों में दर्शित है -भीषण चमक ,आवाज ,भूकंप और पल भर में सब कुछ स्वाहा .मगर एसे भीषण और दुर्धर्ष आयुधों के आम इस्तेमाल पर तब भी प्रतिबन्ध थे -उनका महज मन मौज के रूप में इस्तेमाल वर्जित था - बस बेहद अपरिहार्य दशा में वे चलाए जा सकते थे...एक बड़ी रोचक कथा इस बारे में महाभारत में मौजूद है -आइए, संक्षेप में फिर उसकी स्मृति ताजा कर लें...

महाभारत के सौप्तिक पर्व में अश्वत्थामा के एक क्रूर कर्म का उल्लेख है कि किस तरह उसने द्रौपदी के पुत्रों की नृशंस हत्या कर दी थी। दुर्योधन की अंतिम इच्छा को पूरा करने के चक्कर में उसने भ्रम वश पांचों पांडवों का सर काटने के बजाय मुंह ढंक कर सोये उनके बच्चों का सर काट लिया था। और यह दुष्कृत्य करके वह गंगा के किनारे एक निर्जन स्थल पर छुपा था। मर्माहत और क्रोध की ज्वाला से भरे पांडवों ने उसके वध का निश्चय किया। मगर यह इतना आसान नहीं था। उसके पास ब्रह्मास्त्र था. जो डर था वही हुआ। अस्त्र शस्त्र से लैस ललकारते हुए पांडवों को अपनी ओर आते देख मृत्युभय से उसने ब्रह्मास्त्र चला ही तो दिया। पांडवों के तारणहार श्री कृष्ण ने तत्काल ब्रह्मास्त्र की काट की युक्ति सुझाई, "ब्रह्मास्त्र के कोप से बचने के लिए सब आत्म समर्पण की मुद्रा में आ जाएं। रथों से उतर पड़ें और अर्जुन तुम ब्रह्मास्त्र की काट के लिए ब्रह्मास्त्र का ही संधान करो।" अर्जुन ने भी ब्रह्मास्त्र चला दिया। प्रलयंकारी दृश्य उपस्थित हो गया। अग्नि की विशाल ज्वालाएं निकलने लगीं, आसमान से उल्कापात आरम्भ हो गया। प्रचंड वायु चल पड़ी...धरती डोलने लगी...हाहाकार मच गया...पर्वत गिरने लगे...नदियां बाहर उमड़ पडीं...यह भीषण दृश्य देख महर्षि व्यास और नारद तत्क्षण वहां उपस्थित हुए और जवाबदेही चाही कि, " प्राणी मात्र के अस्तित्व को नष्ट करने की क्षमता वाले इन महान अनिष्टकारी अस्त्रों का प्रयोग क्यों किया गया?" अर्जुन विनम्र हुए और अपने ब्रह्मास्त्र को वापस बुलाने का यत्न इस आशंका के साथ किया कि तब तो अश्वत्थामा का ब्रह्मास्त्र हमें ख़त्म कर देगा।" उन्होंने कहा कि उन्हें अपने बचाव में ब्रह्मास्त्र का संधान करना पड़ा क्योकि अश्वत्थामा ने इसे पहले ही चला दिया था...अन्ततोगत्वा अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र का प्रभाव उत्तरा के गर्भ पर पड़ा। मगर कृष्ण की महिमा से उत्तरा के गर्भ की रक्षा हुई और राजा परीक्षित जन्मे।यह दृष्टांत भयंकर अनिष्टकारी आयुधों के जवाब में प्रति संहारक आयुध के इस्तेमाल की अपरिहार्यता का संकेत करता है। राहत की बात है कि अब भारत भी ऐसे प्रति संहारक अस्त्रों की क्षमता से युक्त है।
माया युद्ध?

हमारे पुराणों में वर्णित अभी कई युद्ध कला कौशल हमारे  लिए प्रेरणा के स्रोत ही हैं, जैसे मय दानव और मेघनाथ के द्वारा संचालित माया युद्ध जिसमें भीषण की युद्ध की प्रतीति भर थी और डर कर दुश्मन आत्म समर्पण के लिए मजबूर हो जाता था। कैसी युद्ध रणनीति थी वह जहां कोई वास्तविक हानि नहीं थी...बस ऐसे भयावह दृश्य होते थे कि प्रतिपक्षी दहशत में आ जाता था - मेघनाथ ने जब माया का विस्तार किया तो राम की सेना ने एक नहीं अनेक मेघनाथ देखे। राम और लक्ष्मण को मृत देखा। यह आभासी युद्ध तब ही ख़त्म हुआ जब राम ने अपने मायारोधी बाणों से उनका प्रभाव ख़त्म कर दिया। ऐसे माया-मायावी युद्ध की तकनीक क्या कभी विकसित हो सकेगी। यह टेक्नॉलजी और सैन्य आयुध विशेषज्ञों के लिए एक चुनौती है।

गुरुवार, 19 अप्रैल 2012

गंगा की गुहार


आज गंगा को लेकर जन मानस जितना आंदोलित है शायद पहले कभी नहीं था। साधु संत ही नहीं आम जन भी अब गंगा की दारुण दशा को देख सड़कों पर आ गए हैं। लोग आमरण अनशन पर आमादा हैं। मगर गंगा के मुद्दे पर आज भावुकता के बजाय व्यावहारिक और गंभीर विमर्श की जरुरत है। आज गंगा की जो दुर्दशा है क्या उसे दूर कर एक बार फिर पतित पावनी कही जाने वाली इस नदी को पहले की स्थिति में लाया जा सकता है? 

गोमुख से निकलने के बाद जो गंगा का सबसे बड़ा कैदखाना है वह टिहरी जलाशय है। पुराण कहते हैं कि गंगा के धरती पर अवतरण के पहले उन्हें शिव की जटाओं में लुप्त हो जाना पड़ा था और वहां से बिना राजा भागीरथ के प्रयास के गंगा मुक्त नहीं हो सकीं थीं। संभवतः पुराणकार ने हिमशैलों की भूलभुलैयों को शिव की जटाओं की उपमा दी थी और उनसे गंगा को मैदानी भाग में लाने का काम निश्चय ही बड़ा दुष्कर था जिसे अदम्य जिजीविषा और संकल्प के धनी तत्कालीन राजा भागीरथ ने साकार किया। गंगा मैदानों में प्रवाहित हो गईं। आज टिहरी बांध के 75 किलोमीटर के विशाल विस्तार में हमने गंगा को एक बार फिर कैद कर लिया है।...यह बांध 265 मीटर ऊंचा है। इसके बन जाने से पुराना टिहरी शहर भी डूब क्षेत्र में आ गया। यह विकास और विनाश के बीच के द्वंद्व का एक अजब मंजर है।

पंडित नेहरू ने कहा था कि नदियों पर बनने वाले बांध आधुनिक भारत के मंदिर होंगें। मगर आज ऐसे ही एक मंदिर ने गंगा के अस्तित्व को ही मानो लील लिया है। टेहरी जलाशय से दिल्ली तक पानी और बिजली की आपूर्ति होती है। यह भारत के बड़े पनबिजली परियोजनाओं में से एक है। मगर इसकी कीमत क्या हम गंगा के विलुप्तिकरण से चुकाएंगे? आज पर्यावरण विद ऐसे सवाल अगर पूछ रहे हैं तो यह बिल्कुल लाजिमी है।

यहीं बात आती है छोटे बांध बनाम दैत्याकार बांधों के प्राथमिकता की जो हम आज तक तय नहीं कर पाए हैं। गंगा को अगर बचाना है तो क्या हमें टिहरी बांध को तोड़ना होगा? फिर दिल्ली के हर व्यक्ति की 250 लीटर प्रति व्यक्ति की पानी की खपत कहां से पूरी होगी? बिजली की जरुरत कहां से पूरी होगी? आज हमारे  पास क्या विकल्प है? यमुना पहले से ही दिल्ली में मृतप्राय हो चुकी हैं।

टिहरी बाँध: फिर से कैद हुईं गंगा 

कानपुर में आकर गंगा का प्रवाह और पानी काफी घटा रहता है और उसमें भी कुछ प्रमुख नहरें सिचाई के लिए निकाली गई हैं जिससे पानी और कम हो रहता है। फिर कानपुर का विश्वप्रसिद्ध चमड़ा उद्योग पूरी तरह से गंगा के ही भरोसे है। वहां से पानी लेने के बाद भारी धात्विक तत्वों- क्रोमियम युक्त उत्प्रवाह यानी गन्दा पानी गंगा में ही गिरता है। यहां की 400 से भी ऊपर टैनेरी यानि चर्म शोधक संयंत्र लगभग तीन करोड़ लीटर उत्प्रवाहित गंदा जल रोज गंगा में उड़ेल रही है। और आज भी गंदे जल का प्रबंध यहां समुचित तरीके से नहीं हो पा रहा है।

इलाहाबाद तक आते आते गंगा मृतप्राय हो रहती हैं। हां यहां यमुना जो कि अपने चम्बल सरीखी सहायक  नदियों से कुछ जीवंत हुई रहती हैं, गंगा में नया प्राण फूंकती हैं। मगर वहां की सीवर- मल जल  प्रणाली के दुरुस्त न होने और फिर बनारस में भी सीवर व्यवस्था के ठीक काम न करने से गंगा मल जल में तब्दील होती हैं। कभी यहां के पानी में बैक्टेरियोफेज यानि रोगाणुओं के भक्षक बड़े जीवाणु मिलते थे मगर प्रदूषण के स्तर के बढ़ जाने से वे भी अब लगभग नदारद हैं।बात साफ़ है गंगा को अब बिना टिहरी का विकल्प ढूंढें। कानपुर के चमड़ा उद्योग के विस्थापन, इलाहाबाद-वाराणसी के मल जल शोधन की कारगर व्यवस्था और अन्य शहरों में भी गंगा-आश्रित उद्योगों में कमी लाए पुनर्जीवित करना मात्र दिवा स्वप्न देखना है। एक आशा नदियों को जोड़कर जलागम को और बढ़ाना है, मगर उसके असार भी निकट भविष्य में नहीं दिख रहे हैं।

फिर कैसे गंगा का उद्धार हो सकेगा? कोटि कोटि जनों की तारणहार गंगा आज खुद अपने त्राण का मार्ग देख रही है।

मंगलवार, 17 अप्रैल 2012

बचपन से ही पड़ती है यौन कुंठाओं की नींव (प्रौढ़ों को है यौन शिक्षा की ज्यादा जरुरत-२)



लड़के  या लडकी दोनों  किशोरावस्था के पहले से ही यौनिक अहसासों से गुजरने लगते हैं.यह बहुत कुछ मनुष्य की जिज्ञासु प्रवृत्ति के चलते ही है .भारत जैसे गरम देश में यौन लक्षणों का प्रगटन भी जल्दी ही -१० वर्षों से ही आरंभ होकर १४-१५ वर्ष तक आते आते बिल्कुल स्पष्ट हो रहता है -यद्यपि बाह्य और आंतरिक  यौनांग अभी भी विकास की अवस्था में होते हैं ,मगर यौनिक अनुभूति  अब मुखर होने लगती है -यौन रसायनों का ऐसा प्रभाव होता है कि लड़के और लडकियां दोनों का विपरीत सेक्स की ओर झुकाव तीव्रतर होने लगता है ...ऐसे ही समय लड़के प्रायः परिवार के भी विपरीत लिंगी लोगों -माता पिता या समतुल्य व्यक्तियों का अधिक स्नेह सामीप्य चाहते हैं.यह सहज और स्वाभाविक है.ऐसे वक्त उनके जैवीय विकास और मनोविज्ञान की समझ अभिभावकों के लिए जरुरी है.ऐसे वक्त एक बेटे का माँ द्वारा अनदेखा किया जाना या उपेक्षित करना भावी जीवन में विपरीत लैंगिक आकर्षण के बजाय विकर्षण उत्पन्न कर सकता है. कई समलैंगिकों ने अपनी जीवनी में माँ या किन्ही मदर फिगर द्वारा बचपन के तिरस्कार को भी अपनी समलैंगिकता एक कारण बताया है और मनोविज्ञानियों ने इसकी पुष्टि की है. इसी तरह बेटियों का पिता के भी प्रति आकर्षण बहुत सहज और निर्मल भाव लिए होता है -वह पिता से प्यार दुलार ,अपनत्व की अपेक्षा रखती है -यहाँ केवल एक आकर्षण ,आईडल वरशिप का भाव होता हैजो  सहज है,वह भी पिता या किसी फादर फिगर  का स्नेह सामीप्य पाना चाहती है ..मगर कई बार इसे माँ बाप या अभिभावकों द्वारा सही ढंग से समझा  नहीं जाता और ऐसे सहज नैसर्गिक झुकाओं के प्रति बहुत ही रोषपूर्ण तिरस्कार का भाव दिखाया जाता है.ऐसे "अनुपयुक्त'' से  व्यवहार को ठीक से समझ  पाने के कारण माता  पिता प्रायः बच्चों को  तिरस्कृत करते है ,उपेक्षा करते हैं और यहीं से उसके अवचेतन में विपरीत लिंग के प्रति एक तरह का दुराग्रह जन्म ले लेता है ..यही वक्त है जब बच्चों को अधिक केयर ,स्नेह दुलार चाहिए ....
 किशोरावस्था के ठीक पूर्व के एक दो वर्षों और किशोरावस्था के  अनुभव किसी भी के भावी यौन व्यवहार को नियमित करने ,प्रभावित करने की माद्दा रखते हैं .चाहे वह समलैंगिकता हो या फिर विपरीत लैंगिक अरुचि .....एक शिक्षक  ने ११ वर्षीय  कक्षा  के छात्र को अपने साथ की लड़कियों से घुलमिल कर बात करते देख उसे बुलाया और बहुत डांटा..कहा कि लड़कियों से इस तरह बात करना अच्छे घरों के बच्चों को शोभा नहीं देता -बहुत खराब माना माना जाता है .बच्चे के कोमल मन पर इसका इतना दुष्प्रभाव हुआ कि वह लड़कियों की उपस्थिति मात्र से असहज होने लगा,उनसे दूर रहने लगा   -उसने बाद में स्वीकार किया कि एक उस घटना से ही उसका भावी यौन  जीवन  एबनार्मल होता  गया ..वह कुछ सालों तक समलैंगिकता की ओर मुड़ा और विवाह के उपरान्त ही  कुछ हद तक उसका यौन जीवन सहज हुआ मगर आज अपनी प्रौढावस्था में भी वह लड़कियों ,युवतियों के संपर्क -सम्बन्ध में असहजता का अनुभव करता है ....उसका व्यवहार सामान्य नहीं रह पाता... वह उन्हें मात्र सेक्स आब्जेक्ट  के ही रूप में देखता है .आकर्षित विकर्षित होता रहता है. एक शिक्षक के अविवेकपूर्ण निर्णय से कैसे किसी का पूरा जीवन प्रभावित हो सकता है यह मात्र एक उदाहरण है मगर ऐसे अनेक उदाहरण भारतीय समाज में मिल जायेगें .अब  इन विषयों पर चर्चा 'सभ्य ' समाज में प्रत्यक्षतः ठीक नहीं मानी जाती और यहाँ असहज यौन व्यवहार पर  परामर्श का उतना चलन नहीं है इसलिए समाज की इन यौन ग्रंथियों का अमूमन कोई निवारण भी नहीं है ..

किशोरावस्था के दौरान के ही पहले यौन अनुभव जीवन के स्थाई भाव बनते हैं -एक 'सब्जेक्टने कहा कि उसे पहले स्खलन का अनुभव नर्तकी के कामुक नृत्य और उसके उन्नत वक्षों की गति को  देखकर हुआ था सो वह ताउम्र नारी वक्षों से ही  विशेष रूप से उद्वेलित होता रहा .किशोरावस्था या आरम्भिक युवावस्था के अप्रिय और अनचाहे यौन संसर्ग से भावी जीवन के सहज सेक्स के प्रति भी तीव्र विकर्षण ,दहशत की प्रतिक्रिया का एक स्थायी भाव मन में घर कर जाता है ....और अन्यथा पूरी तरह सामान्य जीवन जीने के बावजूद भी ऐसे लोगों की सेक्स लाईफ सामान्य नहीं रह पाती ....जोड़े के  एक पार्टनर के लिए सहचर /सहचरी का अनपेक्षित व्यवहार एक अबूझ पहली बन जाता है ....कई बार इनसे घर के टूटने और तलाक तक की नौबत आ जाती है .
अभी जारी है ....


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