मंगलवार, 26 फ़रवरी 2013

एक अजूबा यह भी-दास्तान एक विषखोर पक्षी की .....सोनभद्र एक पुनरान्वेषण (3)

कुदरत के करिश्में भी गजब होते हैं -अभी परसों के दैनिक जागरण अखबार के सोनभद्र संस्करण में एक रोचक खबर पढी . धनेश पक्षियों द्वारा कुचिला के बीज खाये जाने की तो चौक उठा -कारण कुचिला वृक्ष का फल/बीज बहुत विषैला होता है। कुचिला वृक्ष लोगेनियेसी (Loganiaceae) कुल का है और जिसे स्ट्रिक्नोस नक्स-बोमिका (Strychnos nux vomica) कहते हैं।कुचिला बहुत विषैला होता है। क्योंकि इसमें स्ट्रिक्नीन और ब्रूसीन दो तीव्र जहरीले ऐल्कालायड रहते हैं। अगर कोई बड़ा जानवर भी इसे खा ले तो वह निश्चित मर ही जायेगा . मगर धनेश इसे चाव से खाते हैं और उन पर इनका कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता . धनेश पक्षी इसके बीज को बिना कवच तोड़े समूचा निगल लेते हैं। यही कारण है कि कुचिला के विषैलेपन का प्रभाव इन पर नहीं पड़ता।
 कुचिला  फल और फूल 

सोनभद्र के पुनरान्वेषण श्रृंखला की  एक पोस्ट में मैंने लोकनायक लोरिक की गाथा के दौरान स्थानीय अगोरी किले और कुचिला  का जिक्र किया था जहाँ आज बसरा देवी का मंदिर भी है . वहां कुचिला के वृक्षों में फूल और फल लग गए हैं जिन्हें धनेश पक्षियों द्वारा चाव से खाए जाने की खबर है . यह एक अद्भुत सहजीवी सम्बन्ध है -कुचिला के फल धनेश पक्षियों को तनिक भी नुकसान नहीं पहुंचाता और बदले में इसे धनेश पक्षी के नियंत्रित पाचन क्षमता से यह उपहार मिलता है कि इसके बीज का कवच नरम पड जाता है जिससे इनके अंकुरण में सहजता हो जाती है . मतलब इन दोनों प्राणियों -एक जंतु दूसरी वनस्पति के बीच एक अद्भुत सहजीवी सम्बन्ध है। अब सोचिये अगर धनेश पक्षी लुप्त हो जाएँ और जो वे तेजी से हो रहे हैं तो क्या होगा? एक दिन कुचिला की प्रजाति लुप्त हो जायेगी। पारिस्थतिकी सम्बन्ध ऐसे ही होते हैं . सारे जीव जंतु ऐसे ही ज्ञात अज्ञात रिश्तों के अदृश्य धांगों से बंधे हैं -यह पारिस्थितिकी विवेक मनुष्यों में जागृत हो रहा है और इस दिशा में आम लोगों की पहल के शुभ संकेत पिछले दशकों से मिलने लगे हैं -चाहें वे पहाड़ के चिपको आन्दोलन हों या फिर केरल की घाटी का अप्पिको आन्दोलन या फिर विश्नोई समाज का हिरनों -मृगों के प्रति अनन्य प्रेम ..

 मुझे खुशी हुयी कि अगोरी के आस पास के लोगों में धनेश पक्षी को न मारने देने की मुहिम यहाँ के निवासी श्री शिवनन्दन खरवार जी ने ग्राम सभा द्वारा एक आम सहमति के प्रस्ताव के जरिये चला रखी है जिसमें धनेश पक्षी को मारने पर पांच सौ का जुर्माना भी है . धनेश पक्षियों का बड़े पैमाने पर शिकार इसकी चर्बी से निकलने वाले कथित औषधीय गुणों के कारण होता रहा है . अगर इनकी रक्षा नहीं हुयी तो अगोरी किले के समीप के अब मात्र पचास की संख्या में बचे कुचिला के वृक्षों का  आगे फैलाव रुक जाएगा।इन विषय पर पर्यावरण प्रेमियों का ध्यान आकर्षित करना भी  इस पोस्ट का उद्येश्य है -ख़ास तौर पर वन विभाग का भी जो धनेश पक्षी की वंश संरक्षा के कड़े उपाय कर सकता  हैं।
मुझे है पता है कि कैसे मारिशस के विशालकाय डोडो पक्षियों के विलुप्त हो जाने से कैवेलेरिया पादप प्रजाति का समूल नाश हो गया . इस प्रजाति के वृक्षों के बीज का कठोर कवच भी इन्ही डोडो पक्षियों की जठराग्नि में नरम पड़ता था और अंकुरण सहज हो जाता था -डोडो गए फिर यह पादप प्रजाति भी धरा से लुप्त हो गयी .यही कहानी ब्राजील और कुछ अन्य देशों की है जहाँ कतिपय पक्षी प्रजातियों के  ख़त्म कर देने से कई फलदार वृक्ष भी कालान्तर में लुप्त हो गए। दुर्भाग्य से यह दुखद गाथा अभी भी विश्व के अनेक भागों में दुहराई जा रही है -भारत भी उनमें एक है। 
मुझे हाथियों और कपित्थ (कैंत= Elephant apple) फल -वृक्षों के रोचक अंतर्सबंध की भी जानकारी  है . हाथी को कपित्थ बहुत पसंद है .गणेश जी की प्रार्थना में वो संस्कृत का श्लोक है न "कपित्थ जम्बू फल चारु भक्षणं" . हाथी कपित्थ के कठोर कवच वाले फलों को समूचा निगल जाते हैं -मगर बिना फल को पचाए अपने व्यर्थ के साथ बाहर कर देते हैं . निश्चय ही इससे कपित्थ के फलों के अन्दर बीज को अंकुरित होने में सहजता होती होगी .इधर कपित्थ के पेड़ भी तेजी से कम हो रहे हैं . क्या इसका कारण हाथियों की तेजी से घटती संख्या तो नहीं है -मुझे इस विषय पर किसी भी शोध की जानकारी नहीं है .आपमें किसीको हो तो जरुर बताईयेगा। यह पर्यावरणीय शोध का एक अच्छा विषय हो सकता है .
कोई आगे आएगा ?


शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2013

बीमार का हाल अच्छा है!

दो तीन दिनों से तबीयत थोड़ी नासाज है .अब उर्दू जुबान और शिष्टाचार में कहें तो "मेरे दुश्मनों की तबीयत नासाज हुई है".. अब इसकी व्याख्या अपनी अपनी समझ से आप करते रहें मैं तो कहूँगा कि कितनी मीठी जुबान है उर्दू कि किसी जान पहचान के लोगों की तबीयत ख़राब होने की बात यहाँ जुबान पर नहीं आ सकती ....मरें भी तो आपके दुश्मन .....आप हर वक्त हर लम्हा सलामत रहें .मैंने फेसबुक पर लिखा "डाउन विथ एल बी पी" मतलब लोअर बैक पेन ...और मित्रों की शुभकामनाएं और चुहलबाजियाँ भी चालू हो गयीं .शेर वेर भी कहे गए .एक युवा मित्र ने चुटकी ली -सर आप तो बूढ़े हो गए -मैंने उसे छूटते ही जवाब पकड़ा दिया -वही जो अमिताभ बच्चन ने अपनी एक हालिया फिल्म में दिया था .अब यहाँ दुहराना नहीं चाहता .समझ लीजिये .

यह लोअर बैक पेन मुझे छ्ठे छमासे परेशान कर देता है।मुझे अच्छी तरह याद है इलाहाबाद में जब पहला ब्लॉगर सम्मलेन हुआ था तो भी मैं इसी नामुराद दर्द की वजह से दुहरा हो रहा था . जाना असंभव सा था मगर स्नेही सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी जी का ऐसा आग्रह हुआ कि मेरा इन्कार कर पाना संभव नहीं हो पाया -खीझा,चिल्लाया मगर गया और कमर में तीव्र दर्द के बावजूद भी अनूप शुक्ल जी से अंकवार भर मिला और यकीन कीजिये दर्द छू मन्तर हो गया -रहा सहा दर्द कविता वाचकनवी जी के विद्वता भरे व्याख्यान से दूर हो गया -सत्संग की और वह भी प्रयाग के सत्संग की महिमा तो वेद पुराणों तक ने गया है . अनूप जी अब दूर हैं नहीं तो जड़ तोड़ इलाज के लिए फिर फिर स्पर्श टोटका आजमाता -वो गाँव गिरांव में जब रीढ़ की हड्डी में हूक उठती है तो उस महिला के पैर से दर्द की जगहं का बार बार स्पर्श कराते हैं जिसका जन्म उलटी ओर से हुआ रहता है .
अब घर में ही लेटे बैठे कई पापी और विरिजिन विचार दिमाग में उमड़ घुमड़ रहे हैं . कई लोगों ने फेसबुक से लगाय फोन तक लगा के हाल चाल पूछा -तो वे भी हैं जो कभी दिन रात चौबीसों प्रहर समय असमय कुशल क्षेम पूछते थे अब बिल्कुल ही बेगाने हैं -दुनिया ऐसयिच ही है! कभी कभी टेम्पररी बीमारियों का कारण सायिकोलाजिकल भी हो सकता है-जैसे घनिष्ठता का अभाव या रिक्तता -कोई हालचाल तो पूछे? कोई अहसास तो दिलाये कि बीमार का भी वजूद है इस दुनिया में .......और जब यह भाव बड़ा प्रबल हो उठता है तो लोग बाग़ झट खटिया पकड़ लेते हैं -चाहने वालों से मिजाजपुरसी हुई नहीं कि ज़नाब फिर चंगे -व्यवहारविद कहते हैं कि बीमारियों का यह व्यवहार शास्त्र बीमारियों की जर्म थियरी से अलहदा है ........बेगम अख्तर ने एक वो बड़ी मशहूर ग़ज़ल गाई है न -
उल्टी पड़ गईं सब तदवीरें कुछ ना दवा ने काम किया
आखिर इस बीमारिए दिल ने मेरा काम तमाम किया :-).
......और वो मशहूर कौवाली के बोल तो याद होगें न आपको?
...जो दवा के नाम पे जहर दे उस चारागार की तलाश है :-)
और यह भी -
उन्हें देख के आ जाती है चेहरे पे रौनक
वे समझते हैं बीमार का हाल अच्छा है।।

मित्रों ने फेसबुक पर और भी बहुत कुछ शेयर किया किया है - एक बानगी देखिये -
हम मरे जाते हैं हाल उन का पूछने को, वो हैं कि न पूछते हैं न बताते हैं।
तुम मेरे पास होते हो ,(गोया )जब कोई दूसरा नहीं होता .
ऐ दिल-ए-नादां, तुझे हुआ क्या है !!!
आख़िर इस मर्ज की दवा क्या है???


बहरहाल दर्द अब कुछ कम है :-)

सोमवार, 18 फ़रवरी 2013

परिणय बसंत बत्तीसी!

 न न यह कोई कविता नहीं है .. बस आज विवाह के सकुशल बत्तीस साल पूरे हो गए हैं तो यह बसन्त बत्तीसी  उसी के उपलक्ष्य में है .  बत्तीसी सही सलामत है ,दन्त नख क्षत क्षमता भी  उसी परम शक्ति की कृपा से दुरुस्त है :-) -रात से ही कितने छुट्टा विचार दिमाग में उछल कूद कर रहे हैं -सोचा इस बासंती अवसर पर आपसे साझा कर लूं।बात बत्तीसी से शुरू हुई है तो जाहिर है कथा भी शुरू होगी जीवन के उदन्त काल से जब हम उदन्त मार्तंड हुआ करते थे। छुट्टा जीवन था...वे दिन भी क्या दिन थे -दूध के दांत वाली सहज मुस्कान के दिन! फिर हम बंधन में बध गए माह फरवरी 18 ,वर्ष 1981..इलाहाबादी दिन पूरे होने को आये थे......स्वच्छन्दता के दुधिया दांतों पर बन आयी . हम बाण भट्ट बनते बनते रह गए -बस छुट्टापन के नाम पर केवल छुट्टा विचार ही रह गए कितनी ही कसक फसक लिए ....मनुष्य का मानो यह स्वभाव ही है जब वह स्वछन्द होता है तो कहीं बंधना चाहता है और जब बंधा होता है तो छूटना ...अब मेरी इस बात का कम से कम आज तो कोई निहितार्थ न निकाला जाय! कल की बात और है :-) 


हम तो  जनम जनम के  स्वच्छन्दतावादी है , छुट्टा ख़याल, छुट्टा जीवन के हिमायती -मगर मेरे युवा और चिर युवा मित्र उलाहना देते हैं कि खुद तो गुड खाए और हमें मना कर रहे हैं .अब हम उन्हें कैसे समझाएं कि भैया अनुभव की बात बिना गुड खाए कैसे की जा सकती है -अरे मुझे मुझ जैसा कोई गुरु समय से मिला गया होता तो हम उसके अनुभव से लाभान्वित न हो गए होते? ..सभी तो यही चाहते भये  जब हम फंसे तो ये बच्चू कैसे छूट जाएँ . अरे युवा मित्रों, छुट्टा जीवन के आह्लाद का आनंद देखना हो तो छुट्टे गाय बैलों को तनिक देखो -कितने हृष्ट पुष्ट नज़र आते हैं उनकी तनिक मरियल से दिखने वाले बैलों और गायों से तुलना करो! दूर नहीं जाना यहीं फेसबुक पर ही देखो! अरे बुद्धू अब भी नहीं समझे तो निरे वो ही हो ...बाकी बातें हम आगे भी कर सकते हैं आज तो गाँठ का दिन है -आज तो बंधने का पर्व है -स्वाधीनता की बाक़ी बातें कल कर लेगें .और मित्रगण चाहेगें तो टिप्पणियों में खुला विमर्श भी!

बहरहाल हम अपनी और इनकी बात कर रहे थे ....शुक्रगुजार हैं  इनके कि  इनके ही बस कि  बात है  बिना शरद के आत़प को सहे बत्तीस परिणय बसंत आज  पूरे हुए ....अब तो आभार ब्लॉगवुड कि अक्ल की दाढ़ें भी निकल आईं पिछले पाँच वर्षों में ही  -अब आगे के जीवन के बारे में आपकी शुभेच्छाओं की कामना है! कई मित्र मित्राणियों के चेहरे याद आ रहे हैं आज -उम्मीद है उनकी शुभकामनाओं का संबल आगे के जीवन के लिए जरुर मिलेगा .......

रविवार, 17 फ़रवरी 2013

मीडिया मुगलों के बीच एक दिन.........



विगत 15-17 फरवरी को महामना मदन मोहन मालवीय हिन्दी पत्रकारिता संस्थान,महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के संयुक्त तत्वावधान में एक तीन दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी,
"प्रिंट एवं सोशल मीडिया:चुनौतियां एवं संभावनाएं " के उद्घाटन सत्र एवं पहले दिन के दो अकादमीय सत्रों में उपस्थित रहने का गौरव मिला . भोजन पश्चात के दूसरे सत्र में मुझे बीज वक्तव्य देना था -यानि कि  
की नोट एड्रेस -अब बीज वक्तव्य को तो पहले होना चाहिए था मगर उसे छात्रों के शोध पत्रों के पढ़ने के बाद रखा गया था . और मेरे बीज वक्तव्य के बाद सत्राध्यक्ष महोदय को अपना अध्यक्षीय संबोधन भी देना था -भोजन के बाद का सहज आलस्य लोगों पर तारी भारी था और सत्र का सञ्चालन एक बहुत ही उदारमना के हाथों था तो उन्होंने शोध पत्रों के पढ़ने के लिए समय देने में जो दरियादिली दिखाई कि शाम हो आयी और सभागार से लोग उठकर जाने लगे -ऐसे में बीज वक्तव्य?
 संगोष्ठी के पहले...........

मुझे बीज वक्तव्य के लिए जो विषय मिला था वह था -"सोशल मीडिया: प्रासंगिकता एवं भविष्य" -इस सत्र में कुल दस शोध चिह्नित हुए थे मगर पढ़े गए आधा दर्जन। कुछ की क्वालिटी तो सचमुच बहुत अच्छी थी .सबसे अधिक इस्तेमाल में आने वाली सोशल नेट्वर्किंग साईट फेसबुक के चर्चे रहे। इसके राजनैतिक इस्तेमालों और दुरुपयोग की चर्चाएँ भी हुईं। एक शोध पत्र  ने तो लगभग यह साबित कर ही दिखाया था कि ये सोशल नेट्वर्किंग साईटे अपसंस्कृति फैला रही हैं -अब इसमें बिचारी साईट का क्या दोष? श्रेष्ठ संस्कृति या अपसंस्कृति फैलाने वाले कोई हैं तो वे तो हमी लोगों में से हैं . इलाज तो इनके दिमाग का होना चाहिए .

बहरहाल मेरे साथ संयोगात सोनभद्र के ही राष्ट्रपति पदक प्राप्त शिक्षक श्री ओमप्रकाश त्रिपाठी जी अध्यक्ष पद का गौरव बढ़ा रहे थे . मैंने मात्र दो मिनट जिसमें एक मिनट तो औपचारिक संबोधन में चला गया अपनी बात रख दी -श्रोताओं ने बख्श दिए जाने की खुशी में जोरदार ताली बजायी . मुझे इस संगोष्ठी में बतौर ब्लॉगर एवं विज्ञान संचारक की हैसियत से बुलाया गया था और मुद्रित सामग्रियों में यही अंकित था . मुझे खुशी हुयी कि अब धुर और धुरंधर मास/ मेनस्ट्रीम मीडिया के कार्यक्रमों में ब्लागरों को भी धर पकड़ बुलाया जा रहा है .वैसे इस कार्यक्रम के सर्वे सर्वा आदरणीय राम मोहन पाठक जी एक बड़े ही समादृत भारतीय मीडिया मुग़ल हैं और यह उन्ही की कृपा  रही कि मैं इस संगोष्ठी में शिरकत कर सका .हाँ जाने की शर्तें मेरी थीं और यह पाठक जी की विनम्रता ही है कि मुंहफट होने की मेरी उद्दंडता का  उन्होंने तनिक भी ध्यान नहीं दिया .

संगोष्ठी का जीवंत कार्यक्रम जाहिरा तौर पर उद्घाटन सत्र में ही निपट चुका था . हिन्दुस्तान अखबार समूह के मुखिया और एक फायर ब्राण्ड वक्ता शशि शेखर जी ने बला का भाषण दिया . उन्होंने बड़ी अच्छी अच्छी बातें बतायीं -फ्रेंच क्रान्ति के सबक पढाये -एक बड़ी अच्छी बात उन्होंने कही कि नये मीडिया पर अंकुश न लगायें जाय वह अपने आप खुद को संभाल लेगी-इंसानियत एक बार फिर अपना रास्ता तलाश रही है उसे वक्त मिलना ही चाहिए . पहले भी ऐसी कई संक्रातियों में मनुष्यता ने अपनी राह बनाई है।हाँ उनकी सबसे अधिक आलोचना हुई जब उनसे पेड न्यूज,सरोगेट न्यूज आदि पर सवाल किये गए -उन्होंने इनका स्पष्ट विरोध तो किया मगर कहा कि आखिर समाज में जब चारो ओर गिरावट है तो मीडिया से ही इतनी अपेक्षा क्यों ,फिर मीडिया के लोग 'प्रोफेसनल ट्रुथ टेलर " हैं . अब सबका सत्य अलग अलग हो सकता है . उनकी इस बात पर मुझे तत्क्षण याद आया था,भई सत्य तो हमेशा एक है -ऋग्वेद ने कहा - एकम सत विप्राः बहुधा वदन्ति!
मैं पहले दिन ही गोष्ठी से निजी कारणों से लौट आया -बाकी लोग अब लौट रहे हैं! एक अच्छा अनुभव रहा -आयोजकों, मुझे बुलाने के लिए बहुत आभार!

सोमवार, 11 फ़रवरी 2013

खड़ी शादी बनाम पट शादी! :-)

मतलब नहीं समझे होंगे आप . खड़ी शादी बोले तो दिन में निपट जाने वाली शादी और पट शादी मतलब रात वाली शादी जब लोग आराम से पट लेते हैं -सो जाते हैं . खड़ी शादी का नामकरण पिछले वर्षों से अपने पूर्वांचल में चर्चा में आया है , मैंने भी जब पहली  इसे सुना  तो  चौका था- लोगों ने बताया कि अब दिन में भी लोग शादियाँ निपटा रहे हैं यानी खड़े खड़े -आगत स्वागत सब निपट जाता है और बराती  घराती (रिश्तेदार)   लोग दिन रहते ही अपने अपने घर की राह लेते हैं और वर वधू की भी विदाई दिन को ही हो जाती है -सब की राहत और रात में चैन की नींद . मुझे याद है मैंने सन 1993 में ही मुम्बई (तब बाम्बे) में अपनी पुरवईया के ही एक भाई के यहाँ दिन की यानी खड़ी शादी अटेंड की थी ..मुझे तभी यह आईडिया भा गया था . और अब तो यह प्रचलन पूर्वांचल के गाँव गिराव तक आ गया  तो यह इस बात का द्योतक है कि लोगों की सोच प्रोग्रेसिव हो रही है . मैंने बहुत बार यह सोचा है कि आखिर शादियाँ प्रायः रात को ही क्यों होती है? अपने विचार आपसे साझा कर रहा हूँ।
 पुराने जमाने में आवागमन के साधन तो थे नहीं -लोग बाग़ पैदल ही बारात लेकर चलते थे -दूल्हा भले ही कहारों के कंधे की 'असवारी' में होता था मगर कहांर भी चलते तो पैदल ही थे। बारात निकलते निकलते और वधू के द्वार तक पहुंचते शाम हो जाती थी . तो फिर रात की शादी के अलावा कोई विकल्प ही नहीं बचता  था . मगर तब भी पूरी कोशिश होती थी कि हर हाल में बारात गोधूलि बेला यानी कुछ रोशनी रहने तक जरुर वधू के द्वार पर पहुँच जाय और द्वारचार हो जाय -पहले रोशनी आदि के भी पर्याप्त इंतजाम तो होते नहीं थे तो लोग दिन की रोशनी में कम से कम अपने प्रमुख भावी रिश्तेदारों और दूल्हे की शिनाख्त करके मुतमईन हो जाना चाहते थे -कहीं दूल्हा ही न बदल  दिया गया हो -ऐसी घटनाएं होती भी थीं कि देखुआरी (वर को देखने की रस्म) के समय तो किसी और को दिखाया गया और विवाह के समय कोई और दूल्हा बन आ गया -इन मामलों में सतर्कता जरुरी थी ....जीवन भरके निर्वाह का मामला जो था -यहीं नहीं रात होते ही बारातें भटक भी जाया  करती थी -मुझे बताया गया कि इक्के दुक्के मामले तो ऐसे हो गए थे कि कहीं की बारात कहीं पहुँच गयी और आगवानी ,आवाभगत भी हो गयी -द्वारचार बीतते बीतते पता लगा कि बारात ही बदल गयी -यहाँ की वहां चली गयी -बड़ी फजीहत हो जाती थी - मारपीट तक की नौबत आ  जाती थी . ऐसे मामलों से बचने के लिए पंडितों के जरिये यह सख्त हिदायत रहती थी कि कितनी भी देर हो मगर शाम होते होते द्वारचार जरुर हो जाय।
मगर आज तो यातायत के बेहतर साधन हैं तो दिन दिन ही शादियाँ क्यों निपटा नहीं ली जातीं -बस उसी रूढ़ परम्परा को ढ़ोया जा रहा है कि शाम को बारात पहुंचे और फिर देर रात तक शादी हो -और ये रात की शादियाँ अब कितनी खर्चीली हो चली हैं -रोशनी ,आतिशबाजी आदि आदि फिजूल के खर्चे ऊपर से और रात्रि जागरण का दुस्वप्न सरीखा अनुभव अलग से -पोंगे पंडित कहते हैं कि दिन में तो साईत  ही नहीं है जबकि भारतीय ज्योतिष में ज्यादातर शुभ ग्रह संयोग के लिए  उदया तिथि का विचार करते हैं मतलब एक दिन के सूर्योदय के बाद के अगले दिन तक के सूरज के उगने तक प्रायः एक ही शुभ ग्रह संयोग होता है -तो फिर दिन की शादियाँ क्यों नहीं? आज सोच के बदलाव की बड़ी जरुरत है -लोग दिन की खडी शादी का आयोजन कर बहुत से फिजूल खर्चों से बच  सकते हैं और आराम से अपने  वापस जाकर स्व-गृह ऊष्मा भोग सकते हैं . मुझे बड़ी कोफ़्त होती है उन अक्ल पर पत्थर  पड़े लोगों से जो बस इतनी सी बात नहीं समझ पाते और पोंगा पंडितों के चक्कर में खुद तो परेशान होते ही हैं -अपने रिश्तेदारों ,बारातियों सभी को हलकान करते हैं -रात्रि जागरण को मजबूर करते हैं - वधू पक्ष  पर अनाप शनाप खर्चे थोपते हैं .
आईये खड़ी शादियों को प्रोत्साहित करें! और पट शादियों का बहिष्कार! ! मैं तो बस आगे की एक अंतिम पट शादी के बाद किसी भी पट शादी में न जाने की घोषणा करता हूँ! लोग सुन लें और आईंदा से मुझे बख्श दें प्लीज!

रविवार, 3 फ़रवरी 2013

लोग दस वर्ष की उम्र कैद तक झेल जाते हैं। संदर्भ: मिड लाईफ क्राईसिस!

पिछले दिनों मैंने फेसबुक पर अपडेट किया -"कभी कभी मन बहुत अवसाद ,जड़ता और नकारात्मकता से भर उठता है -चिकित्सक इसे पुरुष रजोनिवृत्ति (मेल मीनोपाज ) भी कहते हैं! क्या सचमुच मेल मीनोपाज एक हकीकत है या फिर चिकित्सकीय भ्रम? मेरे समवयी मित्रों आप कभी इस मनोभाव से गुजरते हैं ? आप इसे दूर करने का क्या उपाय करते हैं?"जैसा कि अपेक्षित था मित्रों की सदभावनाएँ बरसनी शुरू हो गई। मित्रों ने मजाक भी किया " हर शाम रेड वाईन के दो बड़े पेग लें ठीक रहेंगे" -   मैंने कहा   मैं तो असुर हूँ भाई इसे तो न ले सकूंगा! हाँ कोई प्यारा सा साथ  मिले तो यह कुफ्र भी कबूल है, बहुत हो गया मुसलमा बने हुए :-) किसी मित्र ने नियमित व्यायाम सुझाया तो किसी ने ग़ज़ल सुनने -सुनाने की सलाह और किसी ने रचनात्मक लेखन (जैसे यह विधा कभी आजमाई ही न हो मैंने :-) ) डाक्टर से मिलने की भी सलाह दी गयी। एक मित्रा(णी) ने यहाँ तक सलाह दे ड़ाला कि इधर उधर की ताका झांकी और राग विराग के बजाय ईश्वर में मन लगाईये -योग कीजिये -ध्यानावस्थित रहिये! रसिक मित्र वीरेन्द्र कुमार शर्मा जी ने तो एक पूरा वृत्तान्त ही पुरुष रजोनिवृत्ति पर चेंप दिया। एक संक्षिप्त सी प्रतिक्रिया आयी कि "सर्च मिडलाईफ क्राइसिस" ..मैंने ढूँढा तो विकीपीडिया ने स्वागत किया .जैसा कि मेरी रचना प्रक्रिया का यह हिस्सा है नयी जानकारी मैं मित्रों से साझा करता हूँ-यह विवरण यहाँ संक्षेप में प्रस्तुत है -विस्तार से विकीपीडिया पर पढ़ ही सकते हैं।
मैंने बात पुरुष रजोनिवृत्ति से शुरू की थी। महिलाओं में रजस्राव बंद होने के बाद की उम्र बहुत से हार्मोनल असंतुलन और 'मूड स्विंग' की होती है .इसी के समतुल्य कुछ भावनात्मक असंतुलन की स्थिति जो पुरुषों में 45 वर्ष के बाद शुरू होती है को नाम मिल गया "पुरुष रजोनिवृत्ति" -जो एक 'मिसनामर ' भले ही है मगर कतिपय लक्षणों की उपस्थिति के चलते यह नामकरण प्रचलन में है . मिड लाईफ क्राईसिस भी पुरुष या स्त्री के 40-60 वर्ष के बीच की अवस्था में आने वाला एक समय है जब कई ऐसे भावनात्मक उद्वेग पैदा होते हैं जो विचलित करने वाले हैं -मगर यह पुरुषों को ज्यादा प्रभावित करता है। यह समय काल ऐसा है कि  वह जीवन के उस पड़ाव पर होता है जब उसके शेष जीवन की अवधि कम हो रहती है और वह अपना मूल्यांकन शुरू करता है -क्या खोया क्या पाया? कितना सफल हुआ वह समवयी मित्रों/लोगों में, जीवन में सफलता या असफलता के परिप्रेक्ष्य में तथा नौकरी की संतुष्टि/असंतुष्टि,विवाह और रोमांटिक सम्बन्धों की स्थति, और खुद का आकर्षक -अनाकर्षक दिखना,यौनिक संतुष्टि -असंतुष्टि ,यौन परफार्मेंस में गिरावट आदि आदि भी महत्वपूर्ण कारक पाए गए हैं .मुझे लगता है इसमें कुछ कारण अवश्य महत्पूर्ण है।
इस त्रासदी से बचने के   लिए लोगबाग़ कई अधीर और हास्यास्पद प्रयास भी करते हैं -खुद को सजाने संवारने , प्रदर्शन के कई और जुगाड़ -नयी गाड़ियां या वैभव के दिखावे वाले सामानों को खरीदना,अपनी वैवाहिक संगिनी से इतर नए सम्बन्ध ढूंढना . और जीनवादियों (जेनेटिसिस्ट) की माने तो अनुर्वरक (नान रिप्रोडकटिव) हो चुकी पत्नी के उम्र की तुलना में उर्वरकतायुक्त(रिप्रोडकटिव) घानिष्टता की साध आदि आदि .
अब इस मिडलाईफ क्राइसिस से बचने के उपाय आखिर हैं क्या? कई सुझाव हैं -मनो चिकित्सक से संपर्क के अलावा जीवन शैली के बदलाव की सिफारिश है .मगर मुझे लगता है इसके अलावा मनुष्य को अपनी निजी स्वार्थपरता को त्याग कर समाजोपयोगी कार्य कलापों में रूचि लेना भी आत्मसंतुष्टि का संबल बन सकता है -और भारतीय आध्यात्म चिंतन में अभिरुचि -जीवन की निस्सारता की अवधारणा, मनुष्य के निमित्त मात्र होने का बोध आदि ऐसे समय बहुत लाभदायी हो सकते हैं . जीवन में तरह तरह की अपेक्षाएं पाल कर लोग दुखी होते हैं और अवसाद में भी चले जाते हैं . यही वह अवसर है जब बुद्धं शरणम गच्छ का आह्वान अर्थपूर्ण हो उठता है . 
अतिशय भौतिकता मनुष्य को अंततः पलायन की और ले जाती हैं -कृष्ण ने ऐसे ही उहापोह के समय अर्जुन से कहा -सर्व धर्मं परितज्य मामेकं शरणं ब्रज ..मतलब किसी एक परम सत्ता को समर्पण .....सम्पूर्ण भक्ति! मगर आप कदाचित अनीश्वरवादी हैं तो भी यह तो समझ ही सकते हैं कि मनुष्य के हाथ में सब कुछ नहीं है -पुरुष समग्र जीवन के परिप्रेक्ष्य में परिस्थितियों का भी दास होता ही है। वैसे भी मिड लाईफ क्राईसिस महिलाओं में मात्र 3-4 वर्ष और पुरुषों में दसेक वर्ष की पायी गयी है -अब इतना भी झेल लेना कौन सी बड़ी बात है -लोग दस वर्ष की उम्र कैद तक झेल जाते हैं।

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