सोमवार, 26 अगस्त 2013

गोरे रंग पर ना गुमान कर.…

इन दिनों एक अभियान गोरे रंग के बजाय सावलें रंग की महत्ता साबित करने को परवान पर है और इसे प्रचारित कर रही हैं अभिनेत्री नंदिता दास ... और यह अभियान आम भारतीयों की उस मानसिकता को लक्ष्य करके शुरू हुआ है जिसके चलते काली त्वचा को गोरा रंग देने के दावा करने वाली क्रीम का उद्योग यहाँ फल फूल रहा है .शाहरुख खान भी टी वी पर एक ऐसी ही  क्रीम का प्रचार करते दिखते हैं . श्याम रंग सुन्दर है ( डार्क इज ब्यूटीफुल ) नाम का यह अभियान 2009 में शुरू हुआ था।   इस अभियान को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी पहचान मिली है . नंदिता दस कटाक्ष करती हैं कि  भारत में सावलें लोगों को गोरे लोगों से कमतर समझने की प्रवृत्ति आखिर क्यों है।
मुझे इस अभियान ने सौन्दर्यानुभूति की कुछ प्राचीन भारतीय मान्यताओं/उपमाओं की ओर ध्यान दिलाया . यहाँ 'श्यामा' षोडशी नायिका की बड़ी चर्चा हुयी है-श्यामा सानन्दं न करोति किमि। मुझे तो लगता है यहाँ भी श्यामा में सांवला रंग ही अर्थ लिए है . मगर विद्वानों में इसे लेकर बहुत मतभेद रहा है . कई यह भी मानते है यहाँ श्यामा का अर्थ बस सुन्दर युवती है . यह श्यामा शब्द सौन्दर्य के चतुर चितेरे महाकवि कालिदास के इस प्रसिद्ध श्लोक से साहित्य में चर्चा में आया जो 'मेघदूत' में वर्णित है -
तन्वी श्यामा शिखरि दशना पक्व बिम्बाधरोष्ठी
मध्ये क्षामा चकित हरिणी प्रेक्षणा निम्ननाभि।
श्रोणीभारादलसगमना स्तोकनम्रा स्तनाभ्यां
या तत्रा स्याद्युवतिविषये सृष्टिराद्येव धातुः।
मुझे इस श्लोक का पूरा अर्थ खुद ठीक से समझने के लिए और पाठकों की सुविधा के लिए ब्लॉग जगत के संस्कृत के विद्वानों /विदुषियों के मदद की दरकार है . (अर्थ जानने को उत्सुक यहाँ जाएँ यद्यपि यहाँ श्यामा शब्द अनुवादक गोल कर कर गए हैं!)  जहाँ तक सहज बुद्धि की बात है यहाँ भी श्यामा का अर्थ पतली/छरहरी सावलीं सलोनी से है, मगर विद्वान असहमत हैं .जाने माने व्यंगकार और निबंधकार रवीन्द्रनाथ त्यागी ने अपनी एक कृति 'भाद्रपद की सांझ' में जो कुछ लिखा है आप खुद पढ़ लीजिये . ." मुझे मेघदूत की याद फिर सताने लगी जिसमें  रूप का वर्णन कालिदास ने ‘‘तन्वी, श्यामा, शिखरदशना, पक्वबिम्बाधरोष्ठी’’ कहकर शुरू किया। इस पंक्ति में जो ‘श्यामा’ शब्द है उसका सही अर्थ जानने में मेरी आधी उम्र निकल गई। ‘श्यामा’ का प्रत्यक्ष अर्थ ‘साँवली’ या ‘कृष्णवर्णा, हो सकता था पर कालिदास जैसा रससिद्ध कवि अपनी प्रिय नायिका को उस रूप में देख सकता था? उसे क्या गौरवर्णा रमणियों की कोई कमी थी? मैंने राजा लक्ष्मणसिंह से लेकर बाबू श्यामसुंदर दास (बी.ए.) तक जितने भी बड़े-बड़े विद्वानों के अनुवाद हैं, वे सब देखे। सबमें से ‘श्यामा’ शब्द का सही अर्थ कोई भी पंडित नहीं जानता था। कुछ ने तो ‘श्यामा’ का अनुवाद ‘श्यामा’ ही किया है और कुछ मतिमान् लोगों ने अपने अनुवाद में श्यामा’ का जिक्र ही नहीं किया है। बहुत दिनों बाद मैत्रेयी देवी की टैगोर बाई फ़ायरसाइड नामक श्रेष्ठ पोथी पढ़ने को प्राप्त हुई और उसमें रवींद्रनाथ ठाकुर की वाणी पढ़ने को मिली जिसमें यह बताया गया है कि संस्कृत में ‘श्यामा का अर्थ उस स्त्री से है जिसका कि रंग उस, स्वर्ण की भाँति दमकता है ..."
लीजिये फिर बात उसी गौर वर्ण पर आकर रुक गई . भारत में गोरे काले का विवाद बहुत पुराना है . बावजूद इसके कि हमारे कितने ही आराध्य सावलें/काले हैं -राम और कृष्ण को ही देख लीजिये ... दोनों अच्छे खासे काले हैं . आर्यों का रंग गोरा है . मगर यह चर्चा हम फिलहाल मुल्तवी करते हैं क्योकि यह विषय स्वयं में एक अलग विशद चर्चा की मांग करता है. मगर आपतो बतायें आपको सौन्दर्य का कौन सा रंग पसंद है?

मंगलवार, 20 अगस्त 2013

ब्लागिंग का 'गर्भकाल' और फुरसतिया को बधाई!

आज फ़ुरसतिया यानि अपने अनूप शुक्ल महराज को ब्लागिंग करते नौ साल बीत गए . उन्होंने नौ शब्दों से अपनी पारी शुरू की  थी और आज नौ साल पूरे हुए तो वे थोडा संजीदे और अतीतरागी बन उठे हैं -और यह सहज ही है. मेरे मन में यह देख एक उपमा उपजी है -नौ वर्ष के ब्लागिंग के गर्भकाल की . मनुष्य का गर्भकाल भी नौ माह का है और आज फ़ुरसतिया के भी जब ब्लागिंग के नौ साल हुए तो यह अवसर ऐसे ही हाथ से जाने देने का तो नहीं है . हम इस अवसर को ब्लागिंग के इतिहास में अमर बना देना चाहते हैं . क्यों न अनूप जी के महनीय ब्लागिंग अवदान को देखते हुए इस अवसर पर उनके ही इस नौ साला मानक को एक सार्थक,सकारात्मक रूप दे दिया जाय . आखिर ब्लागिंग के नौ साल को ऐसे ही हंसी ठिठोली करते काट देना कोई मामूली बात तो नहीं है . तो यह मानक ब्लागिंग का गर्भकाल माना जायेगा और इतने समय जो यहाँ  टिका रह जाय समझिये वही धाकड़ ब्लागर है . वही  पहचान और प्रतिष्ठा के काबिल है - बाकी तो अजन्में शिशु से हैं . अनूप जी की किलकारियां आज यहाँ ध्वनित हैं -कोई तो सोहर आदि का आयोजन करो न भाईयों, लुगाईयों .
                                                       पूरा हुआ ब्लागिंग का गर्भकाल: बधाई 
फुरसतिया जी सचमुच जीवट के ब्लॉगर निकले .एक एक फन्ने खां और लौह संकल्पनाएँ आयीं और चली गयीं .अनेक झंझावात आये,चिल्ल पों मची ,निकल बाहर देख लेगें के उदघोष तक गूंजें मगर फ़ुरसतिया अपने  व्यंग बाणों  का समर्पित और और अनवरत संधान करते ही रहे -भले ही कभी कभार थोडा शिथिल हुयें हों मगर इनकी तुरीण  व्यंग -बाणों से कभी खाली नहीं हुई . एक समय था जब ब्लागिंग के त्रिदेव में इनके साथ दो और देव थे मगर अब ये  हैं अकेले हैं . और अकेले ही काफी हैं . मैंने भी कई बार इनके आघात प्रघात झेले हैं और खुद को धन्य मानता हूँ कि अपना  भी गर्भकाल निकट आ रहा है . मगर इसके लिए मुझे कई शास्त्रोक्त कर्मकांड आदि कराने पड़े हैं . :-) अन्यथा इनके तिक्त बाणों के सामने टिक पाना आसान नहीं है .
आखिर ऐसा क्या है फ़ुरसतिया में? कुछ तो है यह उनके धुर विरोधी भी मानते हैं -लेखन की एक मौलिकता है,स्टाईल है और सबसे बढ़कर ब्लागिंग के प्रति  समर्पण है और छपास की उत्कट अभिलाषा भी जो इन दिनों  मुद्रण माध्यमों में उनके दनादन लेख भेजने से प्रमाणित हो रही है -जबकि वे ऐसी भयंकर भूल क्यों कर रहे हैं यह समझ में नहीं आ रहा है -क्या पूत के पाँव ऐसे ही दिखने थे? फुरसतिया जनाब एक वक्त खुद मुद्रण माध्यम से बिदकते थे और उन  ब्लागरों की खिंचाई किया करते थे जो अंतर्जाल से मुद्रण माध्यम की  ओर लपकते थे… मगर आज वे उसी  पर मार्ग पर खुद चल पड़े हैं . मैं दंग हूँ ! बात मानिए फ़ुरसतिया जी यह  उलटा दांव लगा बैठे हैं आप! छि छि  ब्लॉग जगत  में जन्मने के बाद फिर उसी बासी ,बिकाऊ, सड़ी गली गिरवी पत्र पत्रिकाओं के गलीज में लौटना? संपादकों से रिरियाना? रचना छपवाने के लिए मनुहार और टकटकी लगाकर छपने का इंतज़ार? फिर काहें को ब्लॉगर हुए आप? मुद्रण जगत से ब्लॉग जगत में आना तो समझ  में आता है मगर यहाँ से उल्टा फिर उसी घुटन भरे माहौल में लौटना? यह कैसा पौरुष? आप भी अब यहाँ से चल निकलने के फिराक में हैं?
आखिर हमारा कोई  मूल्य ,सिद्धांत वैगेरह है भी? ब्लागरों के अगुओं में आप रहे हैं मगर अब आप को भी कागजी ग्लेज भाने  लगा है ? न न यह आपके लिए कतई शोभनीय नहीं है . मुझे पता है कुछ ब्लॉगर थोड़े से पारिश्रमिक की मोह में अखबारों से आस लगा बैठे हैं। मगर आपके साथ तो ऐसा भी नहीं है -हर  माह के लखपती वैसे ही हैं आप! या फिर यह समझा जाय कि लद चुके  ब्लागिंग के दिन और अब पलायन के दिन है .....चल उड़ जा रे पंछी यह देश .........
सुबह ही फ़ुरसतिया जी की पोस्ट पढी थी तो ये सारे विचार मन में घुमड़ रहे थे . एक  ब्लॉगर उद्विग्न था यह सब सुनाने  को ....सहज उदगार ,बेलौस बात ,और झटपट पोस्ट ही ब्लॉगर पहचान है. और यह पहचान कम से कम मैं तो खोने वाला नहीं . लोग अब ठकुर सुहाती को छोड़ यहाँ और कुछ नहीं चाहते -कोई मुद्दा भी हो तो भी बगल से सटक लेते हैं . ये ब्लागिंग  के लिए और ब्लॉगर के लिए भी शुभ लक्षण नहीं है . अब तो लोग लड़ते झगड़ते भी नहीं ..माहौल कितना कब्रिस्तानी सा हो गया है न? वो जीवन्तता और वह मनसायनपन कहाँ गया? फ़ुरसतिया जी यहाँ की जिम्मेदारी ऐसे ही न छोड़ जाईये -आप अब ब्लॉग - दशक पुरुष बनने की राह  पर हैं। शुभकामनाएं और बधाई! 
 

रविवार, 18 अगस्त 2013

हिन्दी ब्लॉगर अपना विरोध अवश्य दर्ज करें!


इन्डिब्लागर से मेलबाक्स में प्रायः आने वाले मेल का मजमून एक दिन अलग सा था -इन्डिब्लागर पुरस्कारों के लिए ब्लॉग आमंत्रण की घोषणा की गयी थी .वैसे मैं खुद को पुरस्कार सम्मान के लिए कभी नामांकित नहीं करता और इसका कारण कोई दंभ इत्यादि नहीं बल्कि काम करते जाने को ज्यादा महत्वपूर्ण मानता आया हूँ.  मगर उस दिन कुछ तो जरुर मन में विचलन सा हुआ और मैंने सीधे साईंस से जुड़े वर्गों को ढूंढ कर अपने एक ब्लॉग साईब्लाग को नामांकित कर दिया और फिर भूल गया -कोई प्रमोशन वगैरह भी नहीं किया .वैसे भी मेरे इस ब्लॉग का इंडीरैंक 58 पर आ पहुंचा है जबकि क्वचिदन्यतोपि का 82 है . बुद्धिमानी तो यह थी कि मैं  क्वचिदन्यतोपि को नामंकित करता मगर मन में चूंकि हमेशा विज्ञान संचार का भूत सवार रहता है अतः साईब्लाग का नामांकन करके  मन को संतुष्ट कर लिया . बीच बीच में एकाध मित्रों के अनुरोध आये तो जाकर उनकी सिफारिश भी कर दी  -निःस्वार्थ और निरपेक्ष।   एक मित्राणी ब्लॉगर ने तो यह भी फिकरा कसा कि जहाँ आप और अनुराग शर्मा जी जैसे धुरंधर नामित हों वहां और किसकी दाल गलेगी? -मैंने निर्विकार भाव से यह ताना भी सुन लिया -बाद में देखा कि देवि ने अपना भी ब्लॉग नामंकित कर दिया है :-) हाँ यह नहीं देखा कि  अनुराग जी   ने अपना कोई ब्लॉग नामांकित किया है या नहीं . वैसे तब मन में यह बात भी आयी थी चलो अनुराग जी ने अगर कोई ब्लॉग नामांकित किया है तो मेरा भी औचित्य सिद्ध हो गया और मन में कहीं छिपा एक अपराध बोध सा भी कम हो गया। बाद में तो कई अन्य सम्मानित ब्लागरों के नामांकन से अपराध बोध बिलकुल ही उड़न छू हो गया। इन्डिब्लॉगर वालों के प्रति एक सम्मान का भाव भी जगा और अब भी है कि ये ब्लागिंग को बढ़ाने के लिए कितना श्रमशील हैं।  बहरहाल बात आयी गयी हो गईं.
अभी उस दिन जब पुरस्कार परिणाम आये  तो बड़ी मजेदार बात  हुई -खुशदीप जी जिन्हें सम्मान शब्द से ही घोषित घृणा रही है इन्डिब्लागर से सम्मानित/पुरस्कृत हो गए थे . अब उन्होंने अपना नामांकन तो किया ही होगा न? परिकल्पना सम्मान को तमाम धरहरिया (Persuasion) और चिरौरी के बाद भी ठुकरा देने वाले और अभी अभी ताऊ टी वी पर सम्मान शब्द से चिढ होने का उद्घोष करने वाले अपने खुशदीप भाई अब सम्मान की वरमाला पहन चुके थे! खुशदीप भाई मुझ पर नाराज होने के बजाय उन कारणों को जरुर बताने  का कष्ट करेगें जिसने उन्हें  इस सम्मान को सम्मानित करने का फैसला लेने को प्रेरित किया था. या फिर मेरी ही तरह यह एक क्षण के मन विचलन से हुआ यह उनका भी एक प्यारा सा गुनाह था :-)  यह बात कोई और ब्लॉग जगत  में उनसे  पूछे या न  पूछे मगर मैं इसकी धृष्टता जरुर कर रहा हूँ । क्षमायाचना के साथ यह भी कहना चाहता हूँ कि उनके  बारे में लोगों के मन में कोई दुराव न रहे इसलिए यह अप्रिय निर्णय लेना पड़ा ।
 हिन्दी को रीजनल लैंग्वेज तक ही दिखाने की मानसिकता?
 बहरहाल यह पोस्ट इस मुद्दे पर लिखी नहीं जा रही। मामला तो दूसरा है जो बहुत गंभीर है। खुशदीप जी के साथ एक शाम मेरे नाम वाले मनीष जी का ब्लॉग है जो पुरस्कृत हुआ  है। देशनामा के साथ यह भी मेरी पसंद का ब्लॉग है, मैंने इन दोनों ब्लागरों को तुरंत बधाई दी मगर सहसा एक बात मुझे खटक गयी।  मनीष जी ने अपना ब्लॉग एक ऐसी कटेगरी में नामित किया था जो मेरी नज़र में आया ही नहीं था।  यह कटेगरी इन्डिब्लॉगर वालों के एक अजीव सी सोच का परिणाम है जो आज भी जानबूझ कर हिन्दी को निचले स्तर पर रखने को उद्यत रहती है -रीजनल लैंग्वेज कटेगरी  में हिन्दी को रखा गया था ।  मनीष जी ने अपना ब्लॉग इसी कटेगरी में नामांकित कर दिया।  हालांकि  हिन्दी कई प्रान्तों की आंचलिक राजभाषा भी है किन्तु उसका असली या मुख्य स्टेटस पूरे भारत संघ की राजभाषा का है. यह भारत में सबसे अधिक बोली जाने वाले भाषा (लिंगुआ फ्रैन्का) तो है ही यह विश्व में  सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषाओं में छठवें नंबर पर है. मैं सभी भाषाओं का सम्मान करता हूँ -अंग्रेजी विश्व की खूबसूरत भाषाओं में से एक है। और भारत में संवैधानिक रूप से भी हिन्दी और अंग्रेजी को समान दर्जा दिया गया है और पूरे भारतीय यूनियन की दोनों ही  राजभाषायें है।  मगर खामी हमारी गुलामी की सोच उस अंग्रेजियत की है जो हिन्दी को अंग्रेजी के सामने अपमानित करती आयी है निरंतर पददलित करती रही है।  यह आपत्तिजनक है. हमें निरंतर इस प्रवृत्ति का विरोध करना चाहिए।  खुशदीप जी और मनीष जी का आह्वान करूँगा कि हिन्दी के अपमान की इस प्रवृत्ति के विरोध में वे सम्मान सहित इस पुरस्कार को लौटा  दें -खुशदीप भाई, कोई सम्मान लेने से छोटा नहीं हो जाता बल्कि बड़े सम्मान को लौटा कर और भी बड़ा बन जाता  है।और इन्डिब्लागर का यह सम्मान कोई इतना बड़ा भी नहीं है यह आप स्वयं यहाँ   कह रहे हैं(अरविंद जी फिक्र मत कीजिए इस अवार्ड मे मिलना-विलना कुछ नहीं है)  तो लौटाईये इसे और उन्हें एक सन्देश दीजिये। 
टुच्ची राजनीति  और हमारे नेताओं की कमजोर इच्छाशक्ति  के चलते हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा नहीं बन पाई.राष्ट्रभाषा सम्पूर्ण राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करती है।किसी भी देश की  विभिन्न भाषाओं में से कोई एक  अपने गुण-गौरव, साहित्यिक अभिवृद्धि, जन-सामान्य में अधिक प्रचलन / लोकप्रियता आदि के आधार पर राजकार्य के लिए भी चुन ली जाती है और उसे राजभाषा के रूप में या राष्ट्रभाषा घोषित कर दिया जाता है।  वह अधिकाधिक लोगों द्वारा बोली और समझी जाने वाली भाषा होती है। प्राय: राष्ट्रभाषा ही किसी देश की राजभाषा होती है जो यहाँ हिन्दी है ।यह जन जन की भाषा है -इसका अपमान कोई भी सच्चा राष्ट्रवादी कैसे सहन कर सकता है। आगे भी पुरस्कार दाता भामाशाहों से गुजारिश होगी कि वे पहले हिन्दी को अपनी घोषित श्रेणियों में सम्मानजनक स्थान दें जिसकी वह हकदार है। हाँ बंगला या कन्नड़, तेलगू  आदि भाषाओं को भी पृथक श्रेणी देने में कोई गुरेज नहीं क्योंकि की ये भी हमारी प्यारी और समृद्ध भषाएँ हैं मगर हिंदी को मात्र एक प्रांतीय भाषा के रूप में ही प्रदर्शित करने की सोच स्वीकार्य नहीं है। संविधान की आठवीं अनुसूची का तर्क कब तक चलता रहेगा -यह पूरे देश की राजभाषा है यह तथ्य पीलियाग्रस्त आँखों को नहीं दिखता? आह्वान है हिन्दी ब्लॉगर अपना विरोध अवश्य दर्ज करें और आगे से ऐसे कुचक्रों से सावधान रहें।  

शुक्रवार, 16 अगस्त 2013

अभिलाषा (कविता)

ब्लॉग जगत में देखा देखी कभी कभार मुझे भी कविताई का शौक चर्राता है :-) वैसे बार बार कहता रहा हूँ कवि कर्म बहुत ही दुष्कर और दुस्तर है।  आशा है इस नईं कविता को आप झेल लेंगें! :-) :-)
अभिलाषा 
क्या हुआ जो प्रौढ़ता ने
पलक पावड़ें आ बिछाए
विगत की जीवन्तता है
आज भी मन को रमाये
कामनाएं जीवन क्षितिज पर
 आज  भी  दिप दिप दमकती
 स्वर्णरेखी इच्छाएं हैं अनगिन
रात दिन अब भी मचलती
चित तो अब भी है चंचल
किन्तु हुआ है तन अचंचल
 इनके समंजन का आ बने
अब कोई तो नवीन संबल
 कितनी साधें और साधनाएँ
क्या रहेगीं  चिर अधूरी
पल छिन घट रही है
 जब  जीवन डोर की दूरी
काल का पहिया थमे
रुक जाए यह द्रुतगामी समय
कर सकूं संकल्प पूरे
जो कभी लिए मैंने अभय
आह्वान है यह समूची संसृति
और सृष्टि से निरंतर
कुछ मंद हो यह जगत गति
 और समय जाए ठहर
रस भाव और वर्ण मात्रा की त्रुटियों की और  पारंगत जन ध्यान दिलाकर ठीक करायेगें यह अनुरोध भी है. 

मंगलवार, 13 अगस्त 2013

कहीं आप तो पत्नी के साथ ऐसा बर्ताव नहीं कर रहे हैं ?

यह पोस्ट उन जोड़ों (पति पत्नी) के लिए हैं जिन्हें कई कारणों से,मुख्यतः आर्थिक परिस्थितियों के चलते जीवन में एकाधिक बार एक दूसरे से अलग थलग जीवन यापन के लिए मजबूर होना पड़ता है।  कभी गमन फिल्म का एक गीत(ठुमरी) मुझे बहुत संवेदित कर जाता था -आ जा साँवरिया तोहे गरवा लगा लूँ, स के भरे तोरे नैन.…। जिस पार्श्वभूमि यह ठुमरी दर्शायी गयी है उसमें जीवनयापन की विभीषिका से जूझते मुंबई पहुंचे  एक ग्राम्य युवा का सामने से ट्रेनों का अपने 'मुल्क' ' की ओर विवश सा गुज़रते देखना और अपनी सद्य परिणीता पत्नी की याद का मार्मिक चित्रण है. यह ठुमरी मेरे लिए इसलिए भी यादगार बन गयी है क्योंकि मैं उन दिनों दो वर्षीय विभागीय ट्रेनिंग पर था और परिवार पैतृक निवास जौनपुर में था।मैं चाहकर भी दो वर्षों के लिए परिवार मुम्बई न ले जा सका था। भोजपुरी के कितने ही लोकगीत गीत, विरहा,कजरी  आदि ऐसे ही वियोग -विछोह से ही उपजे हैं -वियोग और विरह तमाम गीतों के मूल स्थायी भाव है।  
भारत की एक बड़ी त्रासदी आर्थिक संकट की भी है जिससे आधी से अधिक आबादी आज भी जूझ रही है।  लोगों को इस आर्थिक संकट से उबरने के लिए रोजी  रोटी की तलाश में दूर दूर तक निकलना पड़ता है इसके बावजूद कि उनका व्याह हो चुका होता है और अर्धांगिनी को छोड़ उन्हें कमाई के लिए घर से बाहर निकलना पड़ता है। उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल की तो यह एक  आम राम कहानी है।  पहले जमीदारों के कहर से भी नव विवाहित युवा गाँव से पलायन करता था और पत्नी को भगवान के भरोसे छोड़ जाता था।  ऐसे तमाम कथानकों पर फ़िल्में भी बन चुकी हैं। युद्ध के लिए सैनिकों को भी यह अमानवीय विछोह की स्थिति झेलनी पड़ती है।  समूचे विश्व में सीमा पर तैनात सैनिकों को यह दारुण व्यथा उठानी पड़ती है।  
मुझे यह बड़ा कारुणिक लगता है। मैं इस स्पष्ट मत का हूँ कि पति पत्नी को लम्बे विछोह में नहीं रहना चाहिए।  इस पहलू को हर नियोक्ता, वेलफेयर राज्य को अवश्य सोचना चाहिए। हाँ कुछ सेवाओं में यह व्यवस्था दी गयी है कि नौकरी शुदा जोड़ों को यथा संभव साथ साथ रहने दिया जाय। मगर जिनकी पत्नियां नौकरी नहीं करतीं उन्हें  क्या अनिवार्यतः दूर दूर होने को अभिशप्त होना चाहिए? इस पर सरकारी व्यवस्थायें  मौन है. जर्मनी में  शादी करते ही वेतन  परिलब्धियां बढ़ जाती हैं।  पारिवारिक भत्ता स्वीकृत कर दिया जाता है।  मगर यहाँ राज्य या केंद्र सरकारों में अभी भी इस व्यवस्था की दरकार है कि पत्नी/बिना नौकरी कर रही गृहिणी  को साथ रखने पर अतिरिक्त/पारिवारिक भत्ता दिया जाय.  यह शायद कभी विचारणीय भी नहीं रहा है . आखिर वेलफेयर स्टेट की  यह कोई प्राथमिकता नहीं होने चाहिए है? बल्कि यह तो अनिवार्य होना चाहिए कि पति पत्नी साथ साथ रहें।  मैंने अपने सेवाकाल में देखा है कि अनेक कर्मी बिना पत्नी को साथ रखे पूरी नौकरी काट देते हैं -बड़ा आश्चर्य भी होता है उन पर! क्या परिस्थितियाँ सचमुच ऐसी अमानवीय स्थिति को जन्म देती हैं ? फिर जीवन संगिनी का तमगा आखिर क्यों ? 
यहाँ भी राम का आदर्श है-चौदह वर्ष के वनवास में वे पत्नी को साथ ले गए।  जबकि परिस्थितियाँ बहुत विपरीत थीं -राजा  दशरथ मरणासन्न थे.…… सीता को उनकी सास माओं से उस समय अलग कर अपने साथ ले जाना राम का सचमुच एक बड़ा ही दृढ़ निर्णय था। मगर उन्होंने लिया। राम के इस निर्णय का मेरे मन में बहुत सम्मान है. पत्नी को दूसरों के सहारे, भले ही वे अपने परिवारी जन ही क्यों न हों छोड़ जाना बहुत ही अमानवीय है। हर वो शख्स  जो परिणय सूत्र में  बंधा हो यथासम्भव पत्नी को अपने साथ रखना चाहिए।  मेरे युवा मित्रों, सुन रहे हैं न आप? बहुत से लोग ऐसे भी हो सकते हैं जो कई अन्य अप्रत्यक्ष कारणों से पत्नी को सेवाकाल में कहीं और छोड़े रहते हैं। अपने सेवाकाल में मैंने ऐसे कई लोगों को देखा है और उनसे जिरह भी की है और अधिकाँश मामलों में पाया है कि पत्नी को दूर रखने के उनके आधार संतुष्ट करने वाले नहीं थे। पति पत्नी को साथ साथ रहने का एक अन्य  पहलू भी है मगर उसकी चर्चा शायद इस पोस्ट की गंभीरता को कम कर देगी।  
कहीं आप तो पत्नी के साथ ऐसा बर्ताव नहीं कर रहे हैं ? 

शुक्रवार, 9 अगस्त 2013

आप चल रहे हैं न वर्धा?

वर्धा में महात्मा गांधी हिन्दी विश्वविद्यालय के तत्वावधान में ब्लागिंग पर एक और सेमीनार ( 2 0 -2 1 सितम्बर, 2013) का बिगुल बज चुका है। ब्लागरों से मौलिक और अभिनव विषयों के प्रस्ताव मांगे गए हैं जिन्हें एक कमेटी के सामने रखा जायेगा और उसी आधार पर प्रतिभागियों का चयन होगा . ऐसा इसलिए किया गया है क्योकि प्रतिभागियों के चयन को लेकर प्रायः हो हल्ला मचता रहा है। मुझे कोई आश्चर्य नहीं कि अब प्रतिभागियों की संख्या में बड़ी गिरावट आ जायेगी . लोग ऐसे मामलों में यहाँ प्रायः गंभीर नहीं है -सब चाहते हैं उन्हें बस ससम्मान आमंत्रित कर लिया जाय और किसी सत्र में कुर्सी आफर कर दी जाय . किसी भी सेमीनार आयोजन के नियम कायदे होते हैं . यहीं नहीं, पूरी दुनिया में ऐसा है -मगर हिन्दी के ब्लागर ऐसे किसी अनुशासन को नहीं मानते हैं . जाहिर है अभी भी इस सेमीनार के संयोजक सिद्धार्थ जी के पास ठोस प्रस्तावों की कमी होगी .

मुझे लगता है ऐसे आयोजनों में हम जैसे पुरायटों और गुरु घंटालों के बजाय नई पीढी के प्रतिभावान ब्लागरों को भाग लेने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए . उन्हें सीखने की जरुरत ज्यादा है -उनमें विचार परिवर्तन , दृष्टिकोण शैथिल्य की गुंजायश भी ज्यादा है . उनके पूर्वाग्रहों को उपयुक्त परिवेश से दूर करने की संभावनाएं और इस तरह दृष्टिकोण को व्यापक फलक देने के अवसर अधिक हैं . मेरी यह पोस्ट उन्ही के लिए है . अनुरोध सभी से है कि कृपया इस पोस्ट की चर्चा अपने संपर्क के नए ब्लागरों से जरुर करें . और अगर आपके यहाँ पांच वर्ष से अधिक का समय हो चुका है तो खुद के  बजाय किसी नए संभावनाशील ब्लॉगर को सेमीनार में जाने को ज्यादा प्रोत्साहित करें . मैंने कुछ नए ब्लागरों से बात की है . मगर यह इतना आसान भी नहीं है . नए ब्लागरों का भी अपना एक एट्टीच्यूड होता है और पुरानी पीढी के प्रति उनकी कई वाजिब शंकाएं और अविश्वास होते हैं . और उन्हें मदद भी चाहिए . गाईडेंस भी चाहिए .
नए ब्लागरों तक अगर मेरी बात पहुँच जाए यो सबसे पहले वे इसकी परवाह किये कि उनका प्रस्ताव सेमीनार के लिए स्वीकृत हो पायेगा या नहीं अपना स्लीपर श्रेणी का रिजर्वेशन तो  करा ही लें -क्योंकि अब समय बहुत कम बचा है . अगर उनका प्रस्ताव सम्मिलित हो भी गया तो बहुत संभव है उन्हें जाने का टिकट ही न मिल पाए . और न हुआ तो स्लीपर क्लास के टिकट कैंसिल कराने में कोई ज्यादा आर्थिक नुक्सान नहीं है . अगर उनके पास कनफर्म्ड टिकट है तो प्रस्ताव स्वीकृत होने पर बल्ले बल्ले. कभी भी किसी सेमीनार में जाने का मकसद कुछ सीखना होना चाहिए न कि विचार आरोपण . यह संकल्प लेकर ही जाना चाहिए .

अब सवाल है कि विषय प्रस्ताव क्या हो? बहुत से विषय हैं . मगर आपको तो कुछ मौलिक सोचना है .हिन्दी ब्लागिंग की यात्रा कथा दशक पुरानी हो चुकी है . हम पुरायटों को लगता है कि जो उत्साह शुरू में था अब उसकी तुलना में ब्लागिंग में आधा उत्साह भी नहीं रहा . तो क्या हिन्दी ब्लागिंग चुक चुकी है? साहित्य के लोग पहले ही इस विधा का उपहास उड़ा रहे थे! क्या उनकी फब्तियां सच हो रही हैं? क्या सचमुच ब्लागिंग दोयम दर्जे का साहित्य है या यह साहित्य है ही नहीं? या यह कोई विधा ही नहीं है बस एक माध्यम भर है? क्या पारम्परिक साहित्य की विधाओं के लिए ब्लागिंग में कोई स्कोप नहीं है? मगर लगता तो ऐसा नहीं है -कवितायें तो यहाँ खूब फल फूल रही हैं . मैंने पिछले दिनों बहुत अच्छी कवितायें पढी हैं . मगर ज्यादातर कूड़ा करकट ही हैं यह बात भी सही है . मगर ऐसे आकलन का नजरिया भी सापेक्ष / विषयनिष्ठता लिए हो सकता है. .
तकनीक की ब्लागिंग/ब्लागिंग की तकनीक और अन्यान्य विषयों पर कंटेंट आधारित पोस्ट में आपकी अभिरुचि क्या है? आपको ब्लागिंग में क्या समस्यायें दिखती हैं? क्या ब्लागिंग सचमुच अभिव्यक्ति का एक खुला माध्यम है? इस पर नियंत्रण होना चाहिए क्या ? अगर हाँ तो उस नियंत्रण की सीमाए क्या होनी चाहिए? क्या आप इसे एक सशक्त वैकल्पिक मीडिया के रूप में उभरता देख रहे हैं या फिर यह हाशिये पर ही रह जाएगी? वैयक्तिक अभिव्यक्ति बनाम सामूहिक अभिव्यक्ति में आप इसे किस रूप में अधिक समाजोपयोगी पाते हैं -ब्लागिंग के सामजिक सरोकार क्या हो सकते हैं? यह किस तरह समाज के किन किन पहलुओं को लाभान्वित कर सकता है . यह क्या पारम्परिक मीडिया की कभी बराबरी कर पायेगा ? उनके सामने सीना ठोक खड़ा  हो सकेगा? क्या यह नागरिक पत्रकारिता के रूप में सशक्त बन पायेगा? ब्लागिंग को कैसे करियर के रूप में विकसित किया जा सकता है?युवाओं के सामने करियर  एक बड़ा प्रश्न है? क्या इस रचनात्मक विधा को अर्थोपाजन से जोड़ कर देखा भी जाना चाहिए?
क्या कहा आपको इनमें से कोई सवाल रुचिकर नहीं लग रहा है? तो अपना कोई अभिनव प्रस्ताव दीजिये न? हाँ ऊपर तो एक झलक भर है -वस्तुतः ब्लागिंग का फलक अभी भी बहुत कुछ अनदेखा /वर्जिन ही है!बहुत संभावनाएं हैं! कोई भी पहलू आपको प्रेरित कर सकता है और आप अपना प्रस्ताव भेज सकते हैं। बाकी विवरण यहाँ  और यहाँ देख ही सकते हैं! अगर अभी भी आपको कोई विषय समझ में नहीं आया तो शायद आप अभी ऐसे किसी सेमिनार में प्रतिभाग के योग्य नहीं हुए! और यह पोस्ट आपको कुछ भी प्रोत्साहित कर गयी है तो स्वागत है आपका ! आपसे वर्धा में मुलाक़ात होगी अगर चयन समिति ने मेरे भेजे विषय को अनुमोदित कर दिया . मैंने अपना विषय प्रस्ताव पहले ही भेज दिया है - ब्लागिंग: माध्यम बनाम विधा और साईंस ब्लागिंग पर भी एक दो दिन में एक प्रस्ताव भेजने वाला हूँ ! मतलब जाने की सम्भावना को अपनी ओर से दुगुनी कर चुका हूँ! बाकी आयोजकों की मर्जी!

सोमवार, 5 अगस्त 2013

चन्द्रकान्ता के लोक में -एक सैर विजयगढ़ दुर्ग की .....(सोनभद्र एक पुनरान्वेषण - 7)


बाबू देवकी नंदन खत्री की अमर तिलिस्मी कृति चन्द्रकान्ता के प्रेरणा स्रोत रहे एक अद्भुत फंतासी की दुनिया के मौजूदा ध्वंसावशेष और आज भी रहस्यमयी विजयगढ़ दुर्ग पर कल हमने ट्रेकिंग कर ही लिया -किला फतह हुआ एक बार फिर कुछ साधारण से मनुष्यों द्वारा . देवकी नंदन खत्री के चन्द्रकान्ता उपन्यास की नायिका बेहद सुन्दरी राजकुमारी चंद्रकांता यहीं विजयगढ़ की थीं -इस कृति को दूरदर्शन ने काफी ख्याति दिलाई और कुछ और भी कल्पनाशीलता का  सहारा लिया . जिन्होंने यह धारावाहिक देखा होगा उन्हें याद होगा कि विजयगढ़ के पास के ही नौगढ़ ( जो आज चंदौली जनपद में है ) के राजकुमार वीरेंद्र सिंह की प्रेम कथा में विजयगढ़ दरबार का  ही क्रूर सिंह विलेन बना और अपने मकसद में सफल न होने पर समीपवर्ती चुनारगढ़ (अब मिर्जापुर ) के राजा शिवदत्त को विजयगढ़ पर आक्रमण के लिए उकसाया .खैर यह सब तो फ़साना है मगर हकीकत भी कुछ कम रोमांचकारी और रहस्यभरा नहीं है .

 अभी तो आधा रास्ता भी नहीं हुआ 
यहाँ सोनभद्र में आने के बाद देखे जाने वाली जगहों की सूची में विजयगढ़ का दुर्ग भी था मगर मुश्किल यह थी की यह चार सौ फीट ऊंचाई पर एक पहाड़ पर स्थित  है . और काफी चढ़ाई है . एक तरफ से तो करीब पांच किमी ट्रेकिंग करनी पड़ती है जो किले के मुख्य दरवाजे से प्रवेश दिलाता है मगर एक वाहन का रास्ता भी कालान्तर में वजूद में आ गया जो किले की एक खिड़की (गवाक्ष ) के नीचे तक जा पहुंचाता है. मगर यहाँ से सीधी चढ़ाई है और कोई व्यवस्थित मार्ग भी नहीं है -बस पत्थरों पर पैर रखते हुए सीधे खिड़की तक पहुँच जाईये - मैं इसी से घबरा रहा था -शरीर और उम्र का तकाजा ........मगर इस किले के रहस्य ने उत्साह भरा और चन्द्रकान्ता का नाम ले हम भी आखिर दुर्ग में प्रवेश कर ही लिए.भारतीय लिहाज से यह एक एडवेंचर यात्रा रही।
 जन श्रुतियों का साक्षात रामसागर 
राबर्ट्सगंज के नगवां ब्लाक में मुख्यालय से करीब तीस किमी पर  मऊकलां गाँव में यह दुर्ग सबसे ऊंचे पहाड़ पर है।  मऊकलां गाँव में बुद्ध से जुड़े अवशेष , गुफा चित्र भी  हैं और अब यहाँ एक संग्रहालय भी है जिसे हम अगली बार देखने के लिए छोड़ कर आगे बढे। वाहन वाले रास्ते को चुना और खूबसूरत प्राकृतिक दृश्यों को  देखते हुए किले के पीछे की खिड़की के ठीक नीचे जा  पहुंचे। सिर उठा कर ऊंचाई देखी तो एक बार गहरी निराशा हो आयी।किले ऐसे ही सुरक्षित बनते थे ताकि दुश्मन की फौजे कहीं से भी आसानी से चढ़ न पायें।  प्रियेषा सबसे पहले आगे बढीं मगर जोर से चिल्ला कर आगाह किया कि पापा आप चढ़ नहीं  पायेगें। आज के युवा  अपने बुजुर्ग पीढी को ऐसे ही अंडरइस्टीमेट करते हैं.हुंह! मैंने तत्क्षण चढ़ने का फैसला कर लिया।कुछ मत पूछिए, साँसे धौकनी हुई और  एक  दो जगहं  बैठ गए तो बैठ गए। मैं, पत्नी और डेजी बुजुर्ग थे और डेजी तो  मनुष्य की उम्र के हिसाब से एक सौ  चालीस साल यानि चौदह साल की। प्रियेषा ने डेजी को गोंद में  ले लिया और अब उसके लिए भी चढ़ाई मुश्किल हो गयी थी। आखिरकार हम खिड़की तक पहुँच गए और चौखट डांकते ही एक विशाल मैदान सामने था -थोड़ी देर तो भ्रम सा हो आया कि हम पहाड़  पर वाकई थे -यह इस इलाके का सबसे ऊंचा पहाड़ था।
 चढ़े तो हम पिछवाड़े की खिड़की से मगर मुख्य दरवाजे तक आ पहुंचे 
यद्यपि किले की प्राचीनता के बारे में बहुत प्रामाणिक जानकारी नहीं मिलती मगर कहते हैं कि इसका निर्माण पांचवी शती में कोल राजाओं ने कराया था।  इतिहासकारों का दावा है कि इसका निर्माण पंद्रह सौ  वर्ष पूर्व में ही भट्ट शासकों द्वारा हो चुका था।  कालांतर में अन्य राजाओं ने इस पर अधिपत्य किया। काशी के राज चेत सिंह  अंग्रेजों के समय तक इस पर काबिज थे. चंदेलों द्वारा भी यहाँ से राज काज संभालने का उल्लेख  है. यहाँ के सप्त सरोवर आज भी दर्शनीय हैं - इतने ऊपर होने के बाद भी इनमें पानी कहाँ से आता है और कैसे दो सरोवरों में आज भी पानी सूखता नहीं विस्मित करता है।  इनमें से एक राम सागर को लेकर तो कई दन्त कथायें प्रचलित हैं।  कहते हैं कभी इसमें हाथ डालने पर  बर्तन  मिल जाते थे और लोग उसी में खाना  बनाते थे।  ये इतने गहरे हैं कि इनकी गहराई आज तक  पता न लग पाने की  बात कही जाती है.
रानी बुर्ज -एकमात्र यही संरचना कुछ ठीक है
आज दुर्ग बहुत खराब स्थिति में है।  यहाँ पता नहीं कब एक मजार बन गयी और पास में ही एक कमरे का  शिव मंदिर और एक तालाब हिन्दू का हो गया और एक मुस्लिम का। और एक ओर  सालाना उर्स तो दूसरी ओर सावन में कांवरियों का मेला -आज बस दुर्ग की यही पहचान रह गयी है।  कुछ और स्थापत्य के नमूने - बुर्ज रनिवास ,कचहरी ,शिला लेख आदि भी हैं। जनश्रुति यह भी है कि यह किला महज एक तिलस्मी भूल भुलावा है -एक दूसरा किला  इस किले में  छुपा  है। काश मल्हार वाले सुब्रमन्यन साहब या राहुल सिंह जी भी साथ होते।
 हिल टाप पर बसा है किला - एक लांग शाट 
हम पहाड़  की चोटी पर चहलकदमी करते हुए किले के मुख्य दरवाजे पर जा पहुंचे। यहाँ से विशाल नयनाभिराम धन्धरौल जलाशय और चुर्क की कई किमी दूर की सीमेंट फैक्ट्री भी दिखती है. किले के मुख्य द्वार पर झाड झंखाड़ उगे हैं -एक काला नाग हमारे सामने  से सरसराता गुज़र गया।  प्रियेषा  ने फोटो तो ली मगर  उसका आधा हिस्सा गायब हो चुका था।  मुख्य द्वार के समीप की  प्राचीन कचहरी में उर्स के भंडारे की इंतजामिया कमेटी का  कब्ज़ा है. बगल में हजरत मीर शाह बाबा की मजार है और उससे लगा प्राचीन तालाब मीर सागर। यहाँ प्रत्येक वर्ष अप्रैल माह में उर्स का भारी मेला लगता है। अब तक हम काफी थक चुके थे अतः वापस चल  पड़े।  किले से उतरना भी कम दुष्कर नहीं है -सीधी चढ़ाई के बजाय सीधी उतरन में ज्यादा सावधानी की जरुरत रहती है।
फिर आयेगें विजयगढ़ !
 यह पूरा क्षेत्र - मऊ कलां गाँव पुरातात्विक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है।भारत सरकार का पुरातत्व विभाग इधर ध्यान दे यह अपेक्षा है! प्राचीन इतिहास के छात्रों के लिए यह एक महत्वपूर्ण भ्रमण स्थल है।  हमें मुक्खा फाल भी  देखना था जो विपरीत दिशा में करीब अस्सी किमी दूर था इसलिए हम डेढ़ बजे दोपहर के बाद किले से आगे चल पड़े ! 


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