रविवार, 1 फ़रवरी 2015

डेजी का सोलहवां साल

हैपी बर्थडे टू यू डेजी! आज (२ फरवरी,2015) तुम्हारा पन्द्रहवां साल पूरा हुआ। पंद्रह मोमबत्तियों की सलामी स्वीकार करो।बच्चों ने आफत की इस गुड़िया को सन 2000 में माह अप्रैल में वाराणसी के मैदागिन स्थित डाक्टर यादव के डॉग क्लीनिक से लिया था तो हेल्थ कार्ड पर नाम डेजी और जन्म 2 फरवरी 2000 अंकित था। मतलब आज पन्द्रहवां साल पूरा हुआ और चिर यौवना डेजी का सोलहवां साल शुरू हो रहा है। बेटे बेटी कौस्तुभ और प्रियेषा समय के साथ दूरस्थ हो गए मगर डेजी हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा बन गयी। तीन तीन ट्रांसफर इसने भी झेला। दो बार मरणासन्न हुईं फिर आश्चर्यजनक तरीके से संभल गयीं जैसे पुनर्जन्म हो गया हो। कहते हैं मनुष्य का दस वर्ष और श्वानवर्ग का एक वर्ष बराबर होता है। इस तरह से आज तो डेजी जीवन के एक सौ इकसठवें वर्ष में प्रवेश कर रही हैं -स्टैंडिंग ओवेशन!

मैंने डेजी को चिर यौवना इसलिए कहा कि आज भी इनकी ऊर्जा में कोई बदलाव नहीं है। अपने नर समवयियों पर ये आज भी तेजी से झपटती हैं। कानों से सुनना भले कम  हो गया हो मगर आँखें तेज हो चली हैं। कौस्तुभ कहते हैं कि पापा इसे मोतियाबिंद हो गया है पर मुझे तो नहीं लगता , ऑफिस से मेरे घर आने पर आज भी इनका तेजी से गोल गोल घूमना और छलांग लगा लगा कर मुंह चूमने का उपक्रम बदस्तूर कायम है. मगर हैं ये दुलारी अपनी मालकिन की ही -मतलब मालिक मालकिन सब कुछ श्रीमती जी को ही मानती हैं -कहें तो फिक्जेटेड हैं पूरी तरह उन्ही पर। उनके बिना एक पल भी रहना इन्हे गंवारा नहीं। इसलिए अब ये एक बड़ी लायबिलिटी बन गयी हैं -हम दोनों को बस से भी यात्रा मंजूर है मगर इन्हे गाड़ी चाहिए। सही है मनुष्य अपनी किस्मत लेकर भले न पैदा होते हों यह प्रजाति तो निश्चित ही किस्मत लेकर अवतरित होती है। जीना मुहाल है अब हम दोनों का -पिछले 15 वर्षों से हम साथ साथ दूर कहीं घूमने नहीं जा पाये तो इन्ही की बदौलत।

पाम -स्पिट्ज (Pomeranian -Spitz) प्रजाति का औसत जीवनकाल अन्य श्वान नस्लों की तरह यही 12 -14 वर्ष ही होता है। विश्व रिकार्ड 19 वर्ष है। कहीं डेजी के इरादे तबतक तो हमारी छाती पर मूंग दलते रहने की तो नहीं? मौजूदा फिटनेस देखकर तो यही लगता है. आज तो इनका जन्मदिन है शुभ शुभ ही बोलना है। कभी कभी लगता है डेजी को यह लगता है जैसे इन्होने हम सभी को पाला है। और चाहती हैं कि सबकी दादी बनी रहें -हमारी भी और आने नाती पोतों की भी।
 पहले यह भी लगता था कि घर आने वाले हर आगंतुक को ये समझती थीं कि इनसे ही मिलने आया है। हाथ जोड़ सलाम करती थीं। मगर कुछ समय से स्वभाव बदल गया है-अब आगंतुक का आना पसंद नहीं - किसी की मेहमान नवाजी तो बिल्कुल नहीं -शिष्टाचारवश सामने तो कुछ नहीं बोलतीं मगर मेहमान के रुके रहने तक एक परदे के पीछे जाकर मद्धिम स्वर में गुरगुराती रहती हैं।

इनकी प्रजाति अंतःवासी अर्थात घर के भीतर निवास वाली है। और लाइव अलार्म का काम करती है। घर के अहाते में किसी के भी घुसते ही यह अलार्म चालू हो जाता है। अलर्ट काल! बच्चों से इन्हे चिढ है -उनका सामीप्य बिल्कुल पसंद नहीं। आजीवन ब्रह्मचर्य पालन करने वाली डेजी को कुत्तों से सख्त नफरत है। साहचर्य की पक्की विरोधी। और परिवार के जाने पहचाने सदस्यों के अलावा इन्हे किसी के भी द्वारा ज्यादा स्नेह प्रदर्शन और घनिष्टता पसंद नहीं है। सर पर तो किसी और का हाथ बिल्कुल ही कबूल नहीं! लोगों को सावधान करना पड़ता है -क्योंकि इनकी क्यूटनेस से लोग बाग़ खुद को रोक नहीं पाते और हाथ बढ़ा देते हैं।  अब चूँकि इनका हर वर्ष माह अप्रैल में इम्यूनाइजेशन हो जाता है इसलिए कोई डर नहीं।

विश्वास तो बस अपनी मालकिन पर ही है, शायद मुझ पर भी नहीं। और डरती हैं तो केवल बेटे कौस्तुभ से -उसके एक इशारे पर बोलती बंद -पता नहीं उसने क्या जादू किया था। बच्चों से छठे छमासे ही मुलाकात है मगर एकदम से पहचान कर उछल कूद शुरू हो जाती है।प्रियेषा के साथ इनकी खूब धमाचौकड़ी मचती है।  आज तो वे अपने ननिहाल गयीं है मालकिन के मायके -हम सभी दूर से ही नमस्कार और बधाईयाँ दे रहे हैं।
हम सब के साथ आप भी डेजी को लम्बी आयु का आशीष दें!

संत कौन और असंत कौन? (मानस प्रभाती )


खल (दुष्ट) वंदना के पश्चात तुलसी संत और असंत पर एक तुलनात्मक दृष्टि डालते हैं। वैसे समूचे मानस में वे यत्र तत्र संत और असंत का भेद करते दिखते हैं जिससे एक निष्कर्ष सहज ही निकलता है उन्हें जीवन में दोनों तरह के जनों का घनिष्ठ सामीप्य - सानिध्य मिला होगा। उन्होंने दोनों तरह के व्यक्तियों के व्यवहार को शिद्दत के साथ महसूस किया है ऐसा लगता है।
यह देखिये -
बंदउँ संत असज्जन चरना। दुःखप्रद उभय बीच कछु बरना॥
बिछुरत एक प्रान हरि लेहीं। मिलत एक दुख दारुन देहीं

अब मैं संत और असंत दोनों के चरणों की वन्दना करता हूँ, दोनों ही दुःख देने वाले हैं, परन्तु उनमें कुछ अन्तर कहा गया है। वह अंतर यह है कि एक (संत) तो बिछुड़ते समय प्राण हर लेते हैं और दूसरे (असंत) मिलते हैं, तब दारुण दुःख देते हैं। (अर्थात्‌ संतों का बिछुड़ना मरने के समान दुःखदायी होता है और असंतों का मिलना।)

* उपजहिं एक संग जग माहीं। जलज जोंक जिमि गुन बिलगाहीं॥
सुधा सुरा सम साधु असाधू। जनक एक जग जलधि अगाधू

दोनों (संत और असंत) जगत में एक साथ पैदा होते हैं, पर (एक साथ पैदा होने वाले) कमल और जोंक की तरह उनके गुण अलग-अलग होते हैं। (कमल दर्शन और स्पर्श से सुख देता है, किन्तु जोंक शरीर का स्पर्श पाते ही रक्त चूसने लगती है।) साधु अमृत के समान (मृत्यु रूपी संसार से उबारने वाला) और असाधु मदिरा के समान (मोह, प्रमाद और जड़ता उत्पन्न करने वाला) है, दोनों को उत्पन्न करने वाला जगत रूपी अगाध समुद्र एक ही है। (शास्त्रों में समुद्रमन्थन से ही अमृत और मदिरा दोनों की उत्पत्ति बताई गई है।)

*भल अनभल निज निज करतूती। लहत सुजस अपलोक बिभूती॥
सुधा सुधाकर सुरसरि साधू। गरल अनल कलिमल सरि ब्याधू
गुन अवगुन जानत सब कोई। जो जेहि भाव नीक तेहि सोई

-भले और बुरे अपनी-अपनी करनी के अनुसार सुंदर यश और अपयश की सम्पत्ति पाते हैं। अमृत, चन्द्रमा, गंगाजी और साधु एवं विष, अग्नि, कलियुग के पापों की नदी अर्थात्‌ कर्मनाशा और हिंसा करने वाला व्याध, इनके गुण-अवगुण सब कोई जानते हैं, किन्तु जिसे जो भाता है, उसे वही अच्छा लगता है -

* भलो भलाइहि पै लहइ लहइ निचाइहि नीचु।
सुधा सराहिअ अमरताँ गरल सराहिअ मीचु
भला भलाई ही ग्रहण करता है और नीच नीचता को ही ग्रहण किए रहता है। अमृत की सराहना अमर करने में होती है और विष की मारने में-
मानस की प्रस्तावना बहुत प्रभावशाली है. राम कथा आरम्भ करने के पहले तुलसी ने उसकी भावभूमि तैयार करने में अथक परिश्रम किया है जहाँ उनका विशद अध्ययन और विषय के प्रस्तुतीकरण की अद्भुत प्रतिभा दिखती है -
उदाहरणार्थ: वे कहते हैं कि सारा जगत अनेक परस्पर विरोधाभासों से भरा पड़ा है।
कहहिं बेद इतिहास पुराना। बिधि प्रपंचु गुन अवगुन साना
वेद, इतिहास और पुराण कहते हैं कि ब्रह्मा की यह सृष्टि गुण-अवगुणों से सनी हुई है!

* दुख सुख पाप पुन्य दिन राती। साधु असाधु सुजाति कुजाती॥
दानव देव ऊँच अरु नीचू। अमिअ सुजीवनु माहुरु मीचू
माया ब्रह्म जीव जगदीसा। लच्छि अलच्छि रंक अवनीसा॥
कासी मग सुरसरि क्रमनासा। मरु मारव महिदेव गवासा
सरग नरक अनुराग बिरागा। निगमागम गुन दोष बिभागा

-दुःख-सुख, पाप-पुण्य, दिन-रात, साधु-असाधु, सुजाति-कुजाति, दानव-देवता, ऊँच-नीच, अमृत-विष, सुजीवन (सुंदर जीवन)-मृत्यु, माया-ब्रह्म, जीव-ईश्वर, सम्पत्ति-दरिद्रता, रंक-राजा, काशी(पवित्र) -मगध(अपवित्र ), गंगा(जीवनदायिनी) -कर्मनाशा(पुण्यनाशिनी ), मारवाड़(राजस्थान का मरुथल) -मालवा(राजस्थान का हराभरा क्षेत्र ) , ब्राह्मण-कसाई, स्वर्ग-नरक, अनुराग-वैराग्य (ये सभी पदार्थ ब्रह्मा की सृष्टि में हैं।) वेद-शास्त्रों ने उनके गुण-दोषों का विभाग कर दिया है.

* जड़ चेतन गुन दोषमय बिस्व कीन्ह करतार।
संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार
-विधाता ने इस जड़-चेतन विश्व को गुण-दोषमय रचा है, किन्तु संत रूपी हंस दोष रूपी जल को छोड़कर गुण रूपी दूध को ही ग्रहण करते हैं.

तुलसी की व्यापक, समग्र और समता की दृष्टि, समूचे संसार को राममय देखना
उनकी .विशेषता है। मानस की प्रस्तावना में वे सबसे कृपा की आकांक्षा करते हैं-

जड़ चेतन जग जीव जत सकल राममय जानि।
बंदउँ सब के पद कमल सदा जोरि जुग पानि
जगत में जितने जड़ और चेतन जीव हैं, सबको राममय जानकर मैं उन सबके चरणकमलों की सदा दोनों हाथ जोड़कर वन्दना करता हूँ.
* देव दनुज नर नाग खग प्रेत पितर गंधर्ब।
बंदउँ किंनर रजनिचर कृपा करहु अब सर्ब
-देवता, दैत्य, मनुष्य, नाग, पक्षी, प्रेत, पितर, गंधर्व, किन्नर और निशाचर सबको मैं प्रणाम करता हूँ। अब सब मुझ पर कृपा कीजिए'. 
क्रमशः

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