बुधवार, 11 मार्च 2015

पत्नी नहीं हैं तो खाना पीना कैसे चल रहा है?

इन दिनों होम मिनिस्ट्री साथ नहीं है , पैतृक आवास पर सास की भूमिका का निर्वहन हो रहा है जबकि मैं यहाँ सरकारी सेवा के तैनाती स्थल पर एकांतवास कर रहा हूँ।  किन्तु यह ब्लॉग पोस्ट इस विषय को लेकर नहीं है। यह उस असहज सवाल को लेकर है जिससे मुझे ऐसे  एकांतवास के दिनों में अक्सर दो चार होना  पड़ता है। यह जानकारी होने पर की पत्नी साथ  नहीं हैं पता नहीं  घनिष्ठतावश या फिर महज औपचारिकता के चलते  मुझसे यह सवाल इष्ट मित्र  और सगे संबंधी अक्सर पूछ बैठते हैं कि अरे पत्नी नहीं हैं तो खाना पीना कैसे चल रहा है ? 

 यह सवाल इतनी बार सुनने के बाद भी मैं हर बार असहज हो जाता हूँ और सवाल का ठीक ठीक जवाब नहीं दे पाता। आखिर क्या केवल खाना बनाने के लिए ही पत्नी का  साथ रहना आवश्यक है ? नारीवादी और / या महिलायें तक जब ये सवाल पूछती हैं तब मुझे और भी क्षोभ होता है।  क्या घर में नारी की भूमिका केवल खाना बनाने तक ही सीमित है?

आज भी यह आदि ग्राम्य मानसिकता बनी हुयी है कि शादी व्याह इसलिए जरूरी है की कोई  दो जून की रोटी तो बनाने वाला हो! मतलब इसके सिवा आज  भी व्यापक स्तर पर महिलाओं  की अन्य विशेषताओं /आवश्यकताओं को रेखांकित नहीं किया जा पा रहा है. यह एक सोचनीय स्थति है। भई पत्नी है तो उनकी भूमिका को केवल खाना बनाने और परोसने तक ही क्यों अवनत कर दिया गया है? क्या उनकी उपस्थिति उनका साहचर्य अन्य अर्थों में उल्लेखनीय  नहीं है? क्या घर में उनकी भूमिका मात्र इतनी भर रह गयी है और  प्रकारांतर से यह भी कि  पुरुष  क्या मुख्यतः   एक अदद  खाना बनाने वाली के लिए ही व्याह करता है? यह बात हास्यास्पद भले ही लग रही हो मगर आज की इस इक्कीसवी सदी  में भी अधिकाँश पुरुष खुद खाना नहीं बनाते या फिर बना ही नहीं सकते/पाते।  क्योंकि संस्कार ही ऐसा मिलता है।  गाँव घरों में आज भी पुरुष रसोईं में घुसना अपनी शान के खिलाफ समझता है। 

पुरानी सोच की महिलायें भी पुरुष को खाना खुद अपने हाथों से बनाने को हतोत्साहित करती  रहती हैं।  वे खुद नहीं चाहती कि पुरुष रसोईं  संभाले -यह उनका कार्यक्षेत्र है।  यह सही है कि महिलायें अपने जैवीय रोल  में एक चारदीवारी की भूमिका में रहती रही हैं किन्तु अब समय और सोच में बहुत परिवर्तन हुआ है और नर नारी की पारम्परिक भूमिकाएं बदल रही हैं।  आज भी एक महिला को मात्र रोटी बनाने की मशीन के रूप में लेना उसकी महत्ता और उसके पोटेंशियल को बहुत कम कर के आंकना है।  इसलिए मुझसे जब यह प्रश्न  भले ही मेरे प्रति अपनत्व  की  भावना से  पूछा जाता है मुझे नागवार लगता है।  और यह पुरुष के अहम भाव को भी तो चोटिल करता है -अब क्या  हम इतने नकारे हो गए कि अपने खाने पीने का इंतज़ाम तक नहीं कर सकते?  

अरे हम जब 'राज काज नाना जंजाला' झेल सकते हैं तो उदरपूर्ति में परमुखापेक्षी क्यों बने रह सकते हैं? यह सवाल सिरे से खारिज है मित्रों -सवाल यह होना चाहिए कि अरे पत्नी नहीं हैं तो आपको कोई असुविधा तो नहीं हो रही है? अकेलेपन की तो अनुभूति नहीं हो रही है? कोई  यह भी पूछे कि पत्नी नहीं हैं तो घर कैसे व्यवस्थित है ? समय कैसे कटता है? आदि आदि सवाल भी तो पूछे  सकते हैं? कब तक यह चलेगा आप उन्हें लाते क्यों नहीं? 

पत्नी का आपके साथ होना आपके पारिवारिक जीवन की समृद्धता का द्योतक है। घर की जीवंतता का परिचायक है।  सम्पूर्णता का अहसास है।  एकाग्रता और आत्मविश्वास का सम्बल है।  भगवान राम तक कह गए प्रिया हींन  डरपत मन मोरा।  पत्नी साथ नहीं तो आप अधूरे हैं जनाब -एकांगी जीवन जी रहे है -समग्रता  का अभाव है यह ! आप मनसा वाचा कर्मणा सहज नहीं है। और यह कमी आपके व्यवहार में प्रदर्शित हो रही होगी। आपने नहीं तो आपके सहकर्मियों और अधीनस्थों ने यह नोटिस किया होगा और कदाचित झेला भी होगा -कभी उन्हें कांफिडेंस में लेकर पूछिए!
 किसी प्रियजन ने इस पुरानी पोस्ट को भी इसी संदर्भ में प्रासंगिक बताया

मंगलवार, 10 मार्च 2015

तुलसी की दिव्य दृष्टि, विनम्रता और उक्ति वैचित्र्य


जैव विविधता की एक सोच तुलसी की भी है -उन्होंने जैव समुदाय को चौरासी लाख योनियों (प्रजाति ) में वर्गीकृत किया है जो कि रोचक है। मौजूदा वैज्ञानिक वर्गीकरण साठ लाख के ऊपर है और नित नयी प्रजातियां खोजी जा रही हैं। यह दिव्य दृष्टि ही तो है!
* आकर चारि लाख चौरासी। जाति जीव जल थल नभ बासी॥
सीय राममय सब जग जानी। करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी
-चौरासी लाख योनियों में चार प्रकार के (स्वेदज, अण्डज, उद्भिज्ज, जरायुज) जीव जल, पृथ्वी और आकाश में रहते हैं, उन सबसे भरे हुए इस सारे जगत को श्री सीताराममय जानकर मैं दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ!
मानस की प्रस्तावना में तुलसी की विनम्रता उल्लेखनीय है.
एक महान कवि किस तरह से अपने अल्पज्ञान की आत्मस्वीकृति करता है,
उल्लेखनीय है और कवियों ही नहीं किसी भी 'ज्ञानवान' के लिए ध्यान देने योग्य
और अनुकरणीय है। उनमें किंचित भी आत्मप्रचार का भाव नहीं दिखता। आज
के कवियों के बेशर्म आत्म प्रचार के परिप्रेक्ष्य में तुलसी की यह विनम्रता ध्यान देने योग्य
है।
करन चहउँ रघुपति गुन गाहा। लघु मति मोरि चरित अवगाहा॥
सूझ न एकउ अंग उपाऊ। मन मति रंक मनोरथ राउ

मैं श्री रघुनाथजी के गुणों का वर्णन करना चाहता हूँ, परन्तु मेरी बुद्धि छोटी है और
श्री रामजी का चरित्र अथाह है। इसके लिए मुझे उपाय का एक भी अंग अर्थात्‌ कुछ (लेशमात्र) भी उपाय नहीं सूझता। मेरे मन और बुद्धि कंगाल हैं, किन्तु मनोरथ राजा है

* मति अति नीच ऊँचि रुचि आछी। चहिअ अमिअ जग जुरइ न छाछी॥
छमिहहिं सज्जन मोरि ढिठाई। सुनिहहिं बालबचन मन लाई

मेरी बुद्धि तो अत्यन्त नीची है और चाह बड़ी ऊँची है, चाह तो अमृत पाने की है,
पर जगत में जुड़ती छाछ भी नहीं। सज्जन मेरी ढिठाई को क्षमा करेंगे और मेरे बाल वचनों को मन लगाकर (प्रेमपूर्वक) सुनेंगे

* जौं बालक कह तोतरि बाता। सुनहिं मुदित मन पितु अरु माता॥
हँसिहहिं कूर कुटिल कुबिचारी। जे पर दूषन भूषनधारी

-जैसे बालक जब तोतले वचन बोलता है, तो उसके माता-पिता उन्हें प्रसन्न मन से सुनते हैं, किन्तु क्रूर, कुटिल और बुरे विचार वाले लोग जो दूसरों के दोषों को ही भूषण रूप से धारण किए रहते हैं (अर्थात्‌ जिन्हें पराए दोष ही प्यारे लगते हैं), हँसेंगे

* निज कबित्त केहि लाग न नीका। सरस होउ अथवा अति फीका
जे पर भनिति सुनत हरषाहीं। ते बर पुरुष बहुत जग नाहीं

रसीली हो या अत्यन्त फीकी, अपनी कविता किसे अच्छी नहीं लगती? किन्तु जो दूसरे की रचना को सुनकर हर्षित होते हैं, ऐसे उत्तम पुरुष जगत में बहुत नहीं हैं

* जग बहु नर सर सरि सम भाई। जे निज बाढ़ि बढ़हि जल पाई॥
सज्जन सकृत सिंधु सम कोई। देखि पूर बिधु बाढ़इ जोई

-हे भाई! जगत में तालाबों और नदियों के समान मनुष्य ही अधिक हैं, जो जल पाकर अपनी ही बाढ़ से बढ़ते हैं (अर्थात्‌ अपनी ही उन्नति से प्रसन्न होते हैं)। समुद्र सा तो कोई एक बिरला ही सज्जन होता है, जो चन्द्रमा को पूर्ण देखकर (दूसरों का उत्कर्ष देखकर) उमड़ पड़ता है.

कबित बिबेक एक नहिं मोरें। सत्य कहउँ लिखि कागद कोरें
(.... काव्य सम्बन्धी एक भी बात का ज्ञान मुझमें नहीं है, यह मैं कोरे कागज पर लिखकर (शपथपूर्वक) सत्य-सत्य कहता हूँ. )

तुलसी की यह कोई दिखावटी विनम्रता नहीं लगती।यह एक सच्चे अर्थों में विद्वान की विनम्रता है। विद्या ददाति विनयम। किन्तु यहीं कबीर की उद्धत विद्वता थोड़ा आश्चर्य में डालती है। कबीर अक्खड़ हैं और तुलसी उतने ही विनम्र। क्या यह कबीर की दम्भोक्ति नहीं लगती? -"मसि कागद छुयो नही कलम गह्यो नही हाथ" मानो तुलसी ने इसी अक्खड़ विद्वता का जवाब दिया -
कबित बिबेक एक नहिं मोरें। सत्य कहउँ लिखि कागद कोरें। अस्तु!


तुलसी आगे लिखते हैं-
भनिति मोरि सब गुन रहित बिस्व बिदित गुन एक।
सो बिचारि सुनिहहिं सुमति जिन्ह कें बिमल बिबेक

मेरी रचना सब गुणों से रहित है, इसमें बस, जगत्प्रसिद्ध एक गुण है। उसे विचारकर अच्छी बुद्धिवाले पुरुष, जिनके निर्मल ज्ञान है, इसको सुनेंगे

* एहि महँ रघुपति नाम उदारा। अति पावन पुरान श्रुति सारा॥
मंगल भवन अमंगल हारी। उमा सहित जेहि जपत पुरारी

-इसमें श्री रघुनाथजी का उदार नाम है, जो अत्यन्त पवित्र है, वेद-पुराणों का सार है, कल्याण का भवन है और अमंगलों को हरने वाला है, जिसे पार्वतीजी सहित भगवान शिवजी सदा जपा करते हैं.

* भनिति बिचित्र सुकबि कृत जोऊ। राम नाम बिनु सोह न सोउ॥
बिधुबदनी सब भाँति सँवारी। सोह न बसन बिना बर नारी

:-जो अच्छे कवि के द्वारा रची हुई बड़ी अनूठी कविता है, वह भी राम नाम के बिना शोभा नहीं पाती। जैसे चन्द्रमा के समान मुख वाली सुंदर स्त्री सब प्रकार से सुसज्जित होने पर भी वस्त्र के बिना शोभा नहीं देती।

तुलसी कहते हैं कि कविता अपने उपयुक्त श्रोतागण को पाकर ही शोभा पाती है। अनेक वस्तुएं हैं जो जहाँ से उत्पन्न होती हैं वहां के बजाय कहीं और शोभित होती हैं।
*मनि मानिक मुकुता छबि जैसी। अहि गिरि गज सिर सोह न तैसी॥
नृप किरीट तरुनी तनु पाई। लहहिं सकल सोभा अधिकाई
मणि, माणिक और मोती की जैसी सुंदर छबि है, वह साँप, पर्वत और हाथी के मस्तक पर वैसी शोभा नहीं पाती। राजा के मुकुट और नवयुवती स्त्री के शरीर को पाकर ही ये सब अधिक शोभा को प्राप्त होते हैं
*तैसेहिं सुकबि कबित बुध कहहीं। उपजहिं अनत अनत छबि लहहीं॥
भगति हेतु बिधि भवन बिहाई। सुमिरत सारद आवति धाई
-इसी तरह, बुद्धिमान लोग कहते हैं कि सुकवि की कविता भी उत्पन्न और कहीं होती है और शोभा अन्यत्र कहीं पाती है (अर्थात कवि की वाणी से उत्पन्न हुई कविता वहाँ शोभा पाती है, जहाँ उसका विचार, प्रचार तथा उसमें कथित आदर्श का ग्रहण और अनुसरण होता है)। कवि के स्मरण करते ही उसकी भक्ति के कारण सरस्वतीजी ब्रह्मलोक को छोड़कर दौड़ी राम चरित मानस की प्रस्तावना में तुलसी ने सृजन कर्म / रचनाशीलता को लेकर प्रायः उठाये जाने वाले कई प्रश्नों का सहज ही उत्तर दिया है। आखिर राम ही क्यों मानस के नायक हैं ? तुलसी के उपास्य हैं?
संतकवि कहते हैं -लौकिक लोगों पर समय क्यों बर्बाद करना?
कीन्हें प्राकृत जन गुन गाना। सिर धुनि गिरा लगत पछिताना॥
(अर्थात संसारी मनुष्यों का गुणगान करने से सरस्वतीजी सिर धुनकर पछताने लगती हैं (कि मैं क्यों इसके बुलाने पर आई)।

यह ध्यान देने की बात है कि तुलसी ने यहाँ कवि कर्म में चारण/भाँट प्रवृत्ति पर बड़ी सूक्ष्मता से प्रहार किया है। राजा महराजाओं की विरुदावली रचने वालों की अच्छी खबर ली है उन्होने। किन्तु यह भी कहा कि जिस कृति की प्रशंसा बुद्धिमान लोग न करें उसे रचना व्यर्थ ही है -
जो प्रबंध बुध नहिं आदरहीं। सो श्रम बादि बाल कबि करहीं॥
( बुद्धिमान लोग जिस कविता का आदर नहीं करते, मूर्ख कवि ही उसकी रचना का व्यर्थ परिश्रम करते हैं)
फिर रचना का हेतु/ उद्देश्य क्या होना चाहिए? इस पर तुलसी कहते हैं -
कीरति भनिति भूति भलि सोई। सुरसरि सम सब कहँ हित होई॥
(कीर्ति, कविता और सम्पत्ति वही उत्तम है, जो गंगाजी की तरह सबका हित करने वाली हो।) और जब सबके हित की बात हो ,व्यापक जनहित की बात हो तो भाषा भी वही हो जो सबके समझ में आये। तब संस्कृत ही विद्वता की परिचायक भाषा थी। तुलसी ने रचनाशीलता का एक क्रांतिकारी कदम उठाकर जनभाषा में मानस की रचना की। … मानस प्रणयन के प्रयोजन को सफल बनाने के लिए तुलसी द्वारा की गयी वंदना खुद में जैसे एक महाकाव्य बन गयी है -वे शायद ही किसी का आह्वान करने से भूले हों -देव मनुज ,संत असंत ,आदि, समकालीन और भविष्यकालीन कविजन की भी वंदना की है -सबसे याचना की है कि वे सब उनके मनोरथ को पूरा करें। लगता है जैसे वंदना में ही उन्होंने धन्यवाद ज्ञापन भी समेट लिया हो.
आज बस इतना ही। । जय श्रीराम !

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